यह हवेली जिसे मैं बार बार महल कह रही हूं गांव से हटकर तमाम बस्ती से दूर बनाया गया एक आलीशान मकान था. हलांकि मकान आधा अधूरा ही बना था लेकिन इसकी रौनक , बनावट और शान देखने लायक थी.मेरे बचपन तक इस हवेली को गांव के लोग बडका कोठा या दरबार कहकर बुलाते थे. इस दरबार के अंतिम दिनों की मैं भी साक्षी रही हूं. इस दरबार यानि बडका कोठा की भी अपनी बडी रोचक कहानी है ..... नानी बताती थीं कि इस कोठा से पहले यहां एक दूसरा महल हुआ करता था जो 1934 के भूकम्प में जमीदोज़ हो गया. 1934 का भूकम्प बिहार् के इतिहास की एक बडी घटना है. 8.1 की तीव्रता का यह भूकम्प 15 जनवरी 1934 में आया था. हलांकि इस भूकम्प से नेपाल, मुम्बई आसाम , कोलकाता , मुम्बई यहां तक कि लहासा तक प्रभावित थे. इस भूकम्प की कहानी मैने अपने सभी बुजुर्गों से सुन रखी है. बिहार में मुंगेर और मुजफ्फर पुर पूरी तर्ह तबाह हो गये थे.
इस घटना का गवाह मेरे ननिहाल का यह छोटा सा गांव अमनौर भी था क्योंकि यह मुजफ्फरपुर के बेहद करीब है. नानी गाहे बगाहे इस भूकम्प का आंखो देखा हाल सुना दिया करती थी हम बच्चों को क्योंकि यह उसके जीवन में किशोर वय की घटी सबसे भयानक और दिल दहला देने वाली घटना थी . इस घटना ने उसके जीवन पर खासा असर डाला था. नानी कोई 12 साल की किशोरी थी जब यह भूकम्प आया था. वह बताती थीं कि ‘’ वह जाडे के दिन थे , जनवरी का महीना, कडाके की ठंढ .....अचानक धरती हिलने लगी . कोई समझ ही नहीं पाया कि ये क्या हो रहा है . ऐसा लग रहा था कि सारा गांव झूला झूल रहा हो.......... अचानक्क लोगों ने चिल्लाना शुरू किया ...भूकम आयेल बा , भूकम्प ...........बाहर निकल लोगन ..............जल्दी ............. उस समय नानी अमनौर के जिस आलीशान मकान में रहा करती थीं उसे लाल महल कहते थे. यह महल अचानक हिलने लगा और थोडी ही देर में ढहने लगा......सब तरफ धूल ही धूल ........चिल्लाहट........बचाओ बचाओ की आवाज़ ........... आज़ीब दृष्य था ...........वो कहती थी ............इस भाग दौड में घर के सभी लोग बाहर निकल गये ........... नौकर चाकर सब लेकिन उस महल में एक 6 महीने की बच्ची की रोने की आवाज़ आने लगी ..........अचानक नानी देखा कि उनकी छोटी बहन को तो कोई लेकर ही नहीं आया ........................ इस छोटी बहन का मोह नानी को इतना था कि वो भूकम्प में गिरते ढहते महल में घुस गयीं और अपनी छोटी बहन को लेकर ही लौटीं..........................वो कहती थीं .........जैसे ही मैं लल्ली को लेकर बाहर आयी महल ऐसे गिरा जैसे कभी उसका कोई नामो निशान ही ना रहा हो वहां ......................
जब भी भूकम्प का जिकर होता नानी की आंखों में एक अज़ीब सा भाव देखती मैं. उस भाव में बहुत सी कहानियां होतीं ....एक अज़ीब सा दर्द और ढेर सारे किस्से............ उनके होठ थरथराने लगते थे ..... होठ कांपने लगते थे और आंखों में एक भय भी उभर आता था ............वो कहती थी ...........भूकम्प के जाने के बाद जैसे पूरे गांव में मौत का सन्नाटा पसरा हुआ था. लोग एक दूसरे को खोज रहे थे. कुछ मकान के नीचे दब गये थे. कुछ जमीन की बडी बडी दरारों के बीच दब गये थे ...........जो बच गये थे वो रहने, खाने और अपने को बचाने का ठिकाना खोज रहे थे.............. कितने ही बच्चे , बूढे, महिलायें किसी को मिली ही नहीं .............सब तरफ अज़ीब तरह का मातम पसरा था. बच जाने की खुशी से ज्यादा लोगों को खोने का गम था .................. और मैं अपनी छोटी बहन को गोद में ले सोच रही थी कि अब हम रहेंगे कहां ? खायेंगे क्या ? सोयेंगे कहां ?
अपने बारे में सोचते सोचते जब मैं आस पास देखती तो मुझसे भी बदतर हालत में पडे लोग थे, कोई जखमी था तो किसी बच्चे की मां नहीं थी ...............ऐसा मरघट किसी ने देखा नहीं होगा जैसा उस भूकम्प के बाद लोगों ने देखा था ................
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