Monday, April 15, 2013

जब जब सोचती हूं तुम्हें

तुम्हें सोचती हूं
जब जब
याद करती हूं
वक्त खुद ही उकेरने लगता है
बीता हुआ कल
एक अक्स ,कुछ शब्द

पीछे मुडकर
जब जब तुम्हे देखती हूं
एक परछाई की पदचाप
उभरने लगती है
मैं सुनने की कोशिश करती हू उसे
ठिठक जाती हूं
बीती हुई आहटों के साथ

जब जब
लिखती हूं तुम्हें
तुम पहाड बन जाते हो
एक किताब
जिसके पन्ने पलटने से
सिहरन होती है
खुशी और भय दोनों
मैने तुम्हें और उस वक्त को
अपनी किताबों में
बन्द कर रखा है
तब से
इतने सावल जो करने हैं तुमसे
पूछना है
अक्षर अक्षर बीता हुआ कल

मन
सुनना चाहता है तुमको
अपने लिये
.......................................अलका








No comments:

Post a Comment