Wednesday, April 24, 2013

क्या मतलब है जब अनुज कहते हैं कि 'धरती उनकी भी है '

‘अनुज कुमार’ इमानदारी से कहूं तो यह मेरे लिये एक ऐसा अनजाना नाम है जिसे मैने इस कविता को पढने से पहले पूरी तरह नहीं जाना था. अनुज मेरे अन्य फेसबुक मित्रों की तरह एक मित्र हैं और इस कविता के साथ उन्होने मेरा नाम टैग किया था. करीब दो दिनो तक काम की व्यस्तता के कारण मेरी नज़र इस कविता पर गयी ही नहीं लेकिन कल जब मैं थोडा फुर्सत से बैठी तो देखा कि एक कविता मेरी वाल पर मेरा इंतज़ार कर रही है. यह सचमुच एक ऐसी कविता थी जो बरबस मेरा ध्यान खींच रही थी. मैने कविता को एक सरसरी निगाह से देखा और चुप चाप सोचने लगी यह अनुज आखिर है कौन ? क्या काम करता है यह ? शिक्षा की किस डोर को कहां तक और कहां से पकडा है इसने. कई बार प्रोफाईल देखने की कोशिश की लेकिन नेटवर्क की खराबी के कारण पूरी प्रोफाईल खुली ही नहीं. बस अनुज का चेहरा और उसका नाम देख पा रही थी. फिर उनको मैं उनको उनकी कविता के माध्यम से समझने की कोशिश करने लगी...... आप भी पढें अनुज की एक बेहद सम्वेदंशील और बडी कविता जो वहां से बोलती है जहां से मानव ने अपना सफर शुरू किया था क्योंकिं यह कविता अपने समय से आगे भी जाती है और बहुत पीछे मिथक से लेकर इतिहास और मानव विकास के पार तक जाती है. बेहद अर्थपूर्ण यह कविता मानव समाज , उसके विकास और उसके इतिहास पर सोचने कोमजबूर करती है. प्रस्तुत है अनुज की कविता धरती उनकी भी है -----------


जिनके सर पर छत हो,
उनके लिए धरती घर होती है,
जिनके हाथ में रोटी हो,
उनके लिए धरती शहद का छत्ता होती है,
जिनके देह पर शॉल हो,
उनके लिए धरती गर्म होती है,
जिनके बगल में माशूक हो,
उनके लिए धरती रूमानी होती है,
जिनके हाथ में प्याला हो,
उनके लिए धरती सपना होती है,

धरती के लाखों रंग उनके भी होते हैं,
जिनके सर शम्बूक के हैं,
हाथ एकलव्य के और दिल कबीर का,
जो बिरसा हैं, जाबली सत्यकाम हैं,
जो मनुष्य से हैं, मनुष्य नहीं,
जिनके ज़मीं का हिस्सा किसी का बकाया है,
जिनने अपने आकाश, चाँद सूरज खातिर बहुत चुकाया है,
जिनके बगल में कोई नहीं,
केवल ये हैं, इनके मवेशी, इनका घर.
जिनकी कोई मांग नहीं, केवल जबरन माँगा है,
जिन्होंने अपना बचपन धरती को जन्नत मानने में गुज़ारा है
और अपनी जवानी आकाश तक चीखें,
और धरती के गर्भ में अपनी आहें पहुंचाने में गुजारी है,
जो आज भी दो बांह धरती के मोह में
सदियों से दधिची की हड्डिया ढूँढ रहे थे. ढूँढ रहे हैं.
__________________अनुज कुमार_____

. जैसा कि मैने पहले कहा मैं अभी तक अनुज के लेखन से बहुत परिचित नहीं हूं. थोडा थोडा याद आ रहा है कि शायद अनुज को अशोक कुमार पांडे के ब्लाग असुविधा पर पढा था. पर पक्का याद नहीं है. लेकिन अनुज की इस कविता ने मेरा अनुज से एक अलग ही परिचय कराया है. परिचय यह कि इस कवि से आगे उम्मीद बध रही है. उम्मीद् यह कि इस कवि को अपने समय को बेहतर तरीके से साहित्य में रखना होगा. मैं इस कविता को इतना महत्व इसलिये भी दे रही हूं क्योंकि इस कविता ने मानव इतिहास , उसके विकास, उसके अर्थशास्त्र का सत्य एक साथ हमारे सामने रखा है. इस कविता ने मानव समाज, उसके भाव, उसके दर्द और उसकी सम्वेदना की कई पर्तें खोली हैं. बडी इमानदारी से बताने की कोशिश की है कि हम असल में हैं क्या? हमने मानव विकास के कैसे कैसे खांचे बनाये हैं. हम्ने कैसी दुनिया गढी है. आप भी देखें उनकी कविता का पहला खण्ड ....
जिनके सर पर छत हो,
उनके लिए धरती घर होती है,
जिनके हाथ में रोटी हो,
उनके लिए धरती शहद का छत्ता होती है,
जिनके देह पर शॉल हो,
उनके लिए धरती गर्म होती है,
जिनके बगल में माशूक हो,
उनके लिए धरती रूमानी होती है,
जिनके हाथ में प्याला हो,
उनके लिए धरती सपना होती है,

सामान्य तौर पर देखा जाये तो कविता का यह खण्ड उन लोगों की बात करता है जिनके पेट भरे हैं. जिनका अपने आस पास के संसाधन पर बेहतर कब्जा है. जो अधिशेष पर अपना जीवन यापन करते हैं. जिन्होने इस दुनिया को वैसा बनाया है जैसा वो चाहते हैं. इस दुनिया को वैसा बनाया है जैसी दुनिया दिखती है.इस दुनिया को वैसा बनाया है जैसा दुनिया को दरासल कई अर्थों में होना नहीं चाहिये था. मैं बार बार अनुज के अर्थ को दुनिया के रूप में शब्द दे रही हूं जबकि अनुज इसे धरती कहते हैं. तो सोच रही हूं कि अनुज ने धरती क्योंकर कहा होगा ? क्योंकर उन्होने कहा होगा कि धरती शहद हा छत्ता है ? क्योंकर कहा होगा धरती गर्म है? और क्योंकर कहा होगा कि धरती रूमानी है ? इतने सारे सवालों का जवाब खोजते खोजते जब मैं कविता के दूसरे खण्ड में प्रवेश करती हूं मुझे धरती शब्द का अर्थ स्प्ष्ट होने लगता है. मैं मनुष्य को वहां से देखने लगती हूं जब वह धरती पर आया. वहां से देखने लगती हूं जब उसने अपने लिये धरती का अर्थ समझा और जब उसने धरती को धारण किया. इसीलिये जैसे ही कविता का दूसरा खंड आरम्भ होता है इस प्रथम खंड का अर्थ अपना विशेष रूप ग्रहण करने लगता है और कविता अपना असली अर्थ पाठकों पर छोडती है .आप देखें भी देखें कविता का दूसरा हिस्सा ...........
धरती के लाखों रंग उनके भी होते हैं,
जिनके सर शम्बूक के हैं,
हाथ एकलव्य के और दिल कबीर का,
जो बिरसा हैं, जाबली सत्यकाम हैं,
जो मनुष्य से हैं, मनुष्य नहीं,
जिनके ज़मीं का हिस्सा किसी का बकाया है,
जिनने अपने आकाश, चाँद सूरज खातिर बहुत चुकाया है,
जिनके बगल में कोई नहीं,
केवल ये हैं, इनके मवेशी, इनका घर.
जिनकी कोई मांग नहीं, केवल जबरन माँगा है,
जिन्होंने अपना बचपन धरती को जन्नत मानने में गुज़ारा है
और अपनी जवानी आकाश तक चीखें,
और धरती के गर्भ में अपनी आहें पहुंचाने में गुजारी है,
जो आज भी दो बांह धरती के मोह में
सदियों से दधिची की हड्डिया ढूँढ रहे थे. ढूँढ रहे हैं.
कविता का दूसरा खंड पढते हुए मुझे अपने वो सारे काम याद आने लगते हैं जो अपनी समाज सेवा के दौरान
मैने किये हैं. वो सारा इतिहास याद आने लगता है जिसे मैने सालों पढा और पढाया है वो सारा अर्थ शास्त्र समझ में आने लगता है जिसने दुनिया को इतना जटिल और गूढ बना दिया है. दर असल कविता का पहला हिस्सा पढते हुए मुझे मानव के विकास काल के इतिहास में मनुष्य का हर पल का संघर्ष दिखता है जहां मनुष्य अपने जीवन को शिकार युग से लेजाकर एक सुगम पठ देता है. कृषि युग में आकर अधिशेष उत्पादन, बाज़ार और फिर शान और शौकत जैसे जीवन को इज़ाद करता है. धीरे धीरे यह विकास एक शक्ल अखित्यार करने लगती है और मनुष्य अपने अपनी जलवायू के हिसाब से जीवन जीने लगता है ..मनुष्य मनुष्य को विजित करने लगता है , हराता है , कुछ विजयी होने का गर्व पालते हैं, और कुछ विजित होने का दुख सहते हैं, इस तरह मनुष्य एक पूरी दुनिया ऐसी बनाता है जिसमें मानव दो भागों में बंट जाता है एक शोषक है जिसने इस धरती के अधिकतम संसाधनों को अपना कहा, अपना बनाया और अपने लिये इस्तेमाल किया. विजयी लोगों का जीवन लिखा, जीया और अपनी आने वाली पीढियों के लिये इन संसाधनों को सहेज़ कर रखने की परम्परा बनायी. भाषा बनायी, साहित्य लिखा , इतिहास बनाया और इतिहास लिखा, इन सबसे बडा उन्होने अपने आस पास के जीवन के तरीके को इतना आकर्षक बनाया कि वही तरीका मान्य और बेहतर माना जाता रहा.
वहीं दूसरी तरफ इसी धरती के मनुष्यों का बडा वर्ग जो इस दुनिया के संसाधनों के 10 प्रतिशत हिस्सेपर अपना गुज़ारा करता आ रहा है कमी उस मानव केलिये पूर्ण मानव नहीं रहा जिसने दुनिया पर अपना एक छत्र राजय बना रखा है .........जब अनुज कहते हैं कि

धरती के लाखों रंग उनके भी होते हैं,
जिनके सर शम्बूक के हैं,
हाथ एकलव्य के और दिल कबीर का,
जो बिरसा हैं, जाबली सत्यकाम हैं,
जो मनुष्य से हैं, मनुष्य नहीं,

..........तो वह इतिहास में पीछे मुड्कर देखने कीबात करते हैं. वो यह बताने की कोशिश करते हैं कि हर इंसान जो धरती पर आया है यह धरती उनकी भी उतनी ही है जितनी अन्य की. मसलन शम्बूक की भी उतनी ही है जितनी राम की, एक्लव्य की भी उतनी ही थी जितनी अर्जुन और कृष्ण. वह राम अराज्य के सत्य की बात करते हैं वह महाभारत और उसके सत्य की बात करते हैं, वह अर्जुन के शूर वीर होने पर प्रश्न भी खडा करते हैं प्रकारांतर से ......और वह द्रोण के माध्यम से शिक्षा व्यवस्था , उसके सच , उसके एक तरफा होने की तरफ इशारा करते हैं , एक्लव्य के माध्यम से वह पूरे महाभारत काल , उसके सच और हमारे मानस में रचे बसे इतिहास को पुन: खनगालने की तरफ इशारा करते हैं .....मतलब यह कि वह दुनिया को इंसानों की उस जमात के लिये सोचने को मजबूर करते हैं जो हाशिये पर रहा है/ रहता है ............. और वह भी इसी धरती की संतान है ............वह भी अपने तरीके से इस दुनिया में जीता है और इसे अपनी अगली पीढी के लिये छोड कर चला जाता है........... इसी के बहाने वो नस्ल और नस्ल भेद की भी बात करते हैं -----.

जिनके ज़मीं का हिस्सा किसी का बकाया है,
जिनने अपने आकाश, चाँद सूरज खातिर बहुत चुकाया है,
जिनके बगल में कोई नहीं,
केवल ये हैं, इनके मवेशी, इनका घर.
जिनकी कोई मांग नहीं, केवल जबरन माँगा है,
जिन्होंने अपना बचपन धरती को जन्नत मानने में गुज़ारा है

जैसे जैसे कविता आगे बढती है वह उस बडी आबादी के जीवन, उसकी मांग और उसके तनाव को रंग देती है. कविता के इस हिस्से ने जिसमें ‘केवल ये हैं, इनके मवेशी, इनका घर.’ का उल्लेख आता है मुझे बेतुल के गोंड और कोरकू आदिवासी याद आ जाते हैं...जिनके घर आज भी ऐसे ही हैं ........ कई बार सोचती हूं कि यदि दुनिया की यह आबादी भी उस समूह की तरह दुनिया के सारे संसाधनों पर बराबरी के हक के साथ सुख भोगती तो दुनिया कैसी होती ? यदि वो भी पेट्रोल की इस दुनिया में इसका उतना ही इस्तेमाल करते जैसे सुखवादी मानव समूह/ देश कर रहा है तो दुनिया कैसी होती ? यहीं पर मुझे निर्मला पुतुल याद आती हैं जब वो प्र्शन करते हैं कि सोचो अगर तुम्हारा घर पहाडी के पार सूदूर होता तो तुम्को कैसा लगता ? तो मैं भी वहीं खडी सोचती हूं कि अगर मानव का यह बडा वर्ग जो धरती को धरती बनाये रखने के लिये जोझ रहा है वो ना होता तो ये दुनिया कैसी होती ?

और अपनी जवानी आकाश तक चीखें,
और धरती के गर्भ में अपनी आहें पहुंचाने में गुजारी है,
जो आज भी दो बांह धरती के मोह में
सदियों से दधिची की हड्डिया ढूँढ रहे थे. ढूँढ रहे हैं.

...............और फिर अनुज की अंतिम चार पंक्तियां लाज़बाब कर देती हैं ............सोचती हूं , सोचती हूं .सोचती हूं निरंतर कि यह धरती और इसपर सुख से जीने वाले ऋणी है उनके जिनके जीवन सुदूर जंगल में हैं , जो दिबरी की रौशनी में अपनी चीखें पृथवी के गर्भ में डालते हैं और जो कभी सवाल करते हैं तो उनको हमारी उन समूहों की सेना , पुलिस मौत के घाट उतारती रहती है ......................एकलव्य याद है ना आपको

4 comments:

  1. अलका जी, सबसे पहले तो आपको बधाई, आपकी पैठ आपके फर्स्ट हैण्ड एक्सपीरियंस पर आधारित है और मेरा अनुभव मेरे संश्लेषण-विश्लेषण का नतीजा. हम दोनों से श्रेयस्कर है उन सबका अनुभव जो हर क्षण कभी स्पष्ट रूप से तो कभी महीन रूप से अलगाव का शिकार होते हैं.

    मैं नहीं जानता कि छपना-छपवाना कैसे किया जाता है. माने यारी-दोस्ती, बाज़ार के समीकरण, मुझ जैसे आलसी के समझ के बाहर की चीज़ है. ज़ाहिर है आप मेरे बारे में जानने की कोशिश करती भी तो शायद आपके हाथ कुछ ज्यादा न आ पाता. इतना ही कह सकता हूँ कि शोध दिनकर जी की आलोचनाओं पर किया है. एम.फिल अरुण कमल जी की काव्य-चेतना पर.

    मुझे लगता है, गुमनामी अच्छी चीज़ है, यह आपको कुछ प्रूफ करने की प्रेरणा प्रदान करता है. इसका ख़तरा यह भी कि पाठकों का आपसे और बेहतर पाने की कसौटी से आप बचे रह जाते हैं, जो आपको मद्धम बना सकता है.

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    1. अच्छा लगा आपका कमेंट देखकर, वैसे तो मेरे मेसेज बाक्स और वाल पर हज़ारों कवितायें रहती हैं वक्त मिलने पर मैं उनपर लिखती भी हूं. समाज सेवा क्षेत्र में काम करने के कारण समय की कमी इतनी अधिक रहती है कि साहित्य जो मेरी पहली पसन्द है दूसरे सथान पर चला जाता है. पर आपकी कविता ने मुझे इतना आकर्षित किया कि रोक नहीं पायी ............. आप तक वो पहुंचा जो मेरी कलम ने पहली बार मह्सूस किया ...................बाकी फिर कभी इसी कविता पर जब वक्त मिलेगा

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  2. एक एक लिंक्स को पढ़िए ज़रूर -

    http://bulletinofblog.blogspot.in/2013/10/2.html

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