Tuesday, December 20, 2011

वह

वह
पलता रहा बरसों उसके आंचल में
पाता रहा प्रेम
रोज तवे से उतरी गरम गरम रोटियाँ
घर की सारी सुख सुविधायेँ
बिना शर्त क्योंकि
बेटा था वह


वह
हर रोज उसकी दुनिया में घुस
बनाता रहा रिश्ता जमाता रहा धौंस
उसकी सुरक्षा और एक उम्मीद की खिडकी
बनने के दुम पर और पाता रहा
प्रेम बिना शर्त
भाई था वह

वह
रिश्तों की सबसे अहम मोड पर
बनाता रहा उम्मीद के घरौन्दे
उसके साथ
रंगता रहा हज़ारों ख्वाब हज रोज़
उसके दिल के सबसे सुरक्षित तह्खाने में जा
पाता रहा प्रेम
प्रेमी था वह

वह
सात फेरों के साथ बन्ध गया था
उम्र भर साथ निभाने के लिये
एक घर बनाने के लिये
इस बन्धन की हर सांस में
पलता रहा सात जन्म
और वह
हक से पाता रहा प्रेम
वह पति था

वह गेन्द की तरह उछल जाती
जब वह बुलाता उसे नाम से
वह फूल की तरह खिल जाती
जब वह उसे दुलार लेता
वह सिमट जाती जब वह आंख सुर्ख कर लेता
इस रिश्ते के भी हर मोड पर
वह स्नेह से सिक्त हो
पाता रहा प्रेम
वह पिता था


आज सारे रिश्ते दूर खडे
पलट कर देख रहे हैं
एक दूसरे से
पूछ रहे हैं सवाल
के
वो कौन था जो
ले गया हमसे
हमारा वक्त, स्नेह
और बहुत सी उम्मीद

कौन था जो
सहोदर कह ले गया
मेरा हक

कौन था
जो ले गया
मेरा मन उसका चैन ?

कौन था जो
जाया कह
बनाता रहा मेरी सीमायें



अब समझ गयी
वह एक पुरुष था बस पुरुष
जो अपने लिये भरता रहा
प्रेम का कटोरा
और सीखता रहा प्रेम का पाठ
आधा अधूरा

...........................अलका सिंह

हमारे तुम्हारे बीच रिश्तों की जो सरहद है

हमारे तुम्हारे रिश्ते की एक बड़ी सी सरहद है
जहाँ खड़े हैं बहुत से अपने और प्रभावित हैं उनकी जिंदगियां
इसलिए हरबार इस सरहद तक आकर रुक जाती हूँ मैं
झांकने लगती हूँ उनकी आँखों में
और तुम इस सरहद पर खड़े मुस्कुराते हो
मेरे मन की उधेड़बुन को पढ़

हमारे तुम्हारे बीच रिश्तों की खीचतान भले हो
पर मेरे अन्दर के इंसान ने बरसों बरस
इंसान की आँख पढ़ने की कला सीखी है
रोक लेती है वही शायद यहाँ तक आकर तलवार पर हाथ रख लेने से
रोक लेती है मुझे मुट्ठियाँ भींच लेने से

बहुत मुमकिन है तुम खुशफहमी में जीते हो
और सोचते हो कि ये सब होता रहता है
जैसे आम बात , जैसे रोज की बात
किन्तु मेरे अन्दर बहुत कुछ पल रहा है विष जैसा
जैसे एक काला नाग दिनों दिन बढ़ता सा
जो हर दम उठा लेता है फ़न
जैसे डसने को तैयार

कई रोज से देख रही हूँ कई आँख हर वक्त बस मुझे ताकती है
उनमे एक जोड़ी बूढ़ी आखें भी हैं
जैसे पढ़ रही हों मेरे अन्दर फ़न उठाते नाग को
उस विष् को जिसका जहर उतर जायेग तुमसे पहले उनके अन्दर
और बस् एक द्वंद लिपट जाता है जैसे
एक बहस सर उठाती है अच्छे बुरे के विचार से
मेरे अन्दर

इसलिए,
हमारे तुम्हारे बीच रिश्ते की जो सरहद है
वहां हर बार खडी होती हूँ कई आत्माओं के साथ
कई आँखों के सपने के साथ
किसी के बुढापे की लाठी बन और किसी के भविष्य की उम्मीद बन
और तुम
खुश हो जाते हो मेरी इंसानियत को मजबूरी समझ

पर ये नाग जो मेरे अन्दर पल रहा है
बहुत बावला है
तुम्हारी हरकतों के बदले में
हर रोज़ मुझे अपने साथ ले जाता है सेरेंगेती के जंगलों में
जहाँ इंसानियत की किताब की जगह सब केवल
अपने होने की भाषा समझते हैं
नहीं जानती कब तलक पढ़ पाउंगी
इंसानियत की किताब
हमारे तुम्हारे रिश्ते की जो एक बड़ी सी सरहद है
वहां बैठा है अब वो नाग
जो अब बित्ते भर से लाठी भर का हो गया है

...............................................डा. अलका सिंह ............................

Sunday, December 18, 2011

यह् घर तुम्हारा है

यह घर तुम्हारा है
ये बर्तन, ये भांडे,
ये बिस्तर ये कमरा सब तुम्हारे
इस घर के हर कोने से तुम्हारी आदतों की बू आती है
अरसे तक ये मेरे नाक में इस कदर बसी थी कि कभी
अपनी जगह खोज़ ही नहीं पायी इन दीवारों में
पर आज सोचने बैठी हूँ

इस घर में खुद को इस यकीन से
कि बना लिया है इस घर ‘हमारा घर’’ बना लिया है इस कमरे को अपना कमरा
और खोजती हूँ मै कहां हूँ तुम्हारे इस घर में? क्या चुल्हे की इस लौ में?
झाडू की मूढ पर ?
या फिर बिस्तर की इन सलवटों में?

मैं रोज़ तुम्हारी इन निशानियों को छेडती हूँ
बदलना चहती हूँ हवा और पानी बांटना चहती हूँ इस घर को
एक पूरी जिद्दोजहद है मेरी
कि उमीद का एक घर रोपूँ

पर मेरी हर कोशिश पर एक तुषार है
मेरी हर कोंपल पर एक शीत है
और मेरे हर इरादे पर एक कोहरा
क्योंकि घर इस घर का कोई कोना मेरा नहीं है

यह् घर तुम्हारा है
सब तुम्हारा है
समझ गयी हूं
अभी मुझे चलना है
मीलों एक घर की तलाश में .....................................................अलका

अदम गोंडवी की मृत्यु पर कुछ सवाल खुद से और लिखने- पढने वालों की जमात से

‘अदम गोंडवी’ बडा अज़ीब लगा था यह नाम जब मैने पहली बार उनको दूरदर्शन पर एक कवि सम्मेलन में गज़ल पढते सुना था. अपनी माँ से जब पूछा कि ये क्या नाम हुआ अम्मा तब जैसे वो बिफर उठीं थीं एक तमाचा जडते हुए बोलीं ये ‘रामनाथ् सिंह’ हैं. इनका तखल्लुस है ‘अदम’ और गोण्डा के रहने वाले हैं इसलिये ‘गोंडवी’ लिखते हैं. और तपाक से बोली यह एक जिन्दा शायर हैं सुनो ध्यान से उनको. यह उनसे मेरा पहला परिचय था . आज उनकी मृत्यु की खबर सुनकर, वो दृश्य, माँ और वो तमाचा जैसे मेरी आंखों के सामने एक बारगी घूम गये हैं. तब शायद मैं 10 वीं की छात्र थी. कवि सम्मेलन मेरी जान हुआ करती थी और अदम गोंडवी जैसे शायरों और कवियों को सुनने का जैसे मुझे जुनून था और् यह जुनून बढाने में अदम, बसीम बरेलवी, बशीर बद्र, निदां फाज़ली, कृष्ण बिहारी नूर जैसे शायरों का बड़ा हाथ था किंतु इस पूरी जमात में अदम को पढना कई बार मुट्ठी भींचने को जैसे मजबूर कर देता है. पर आज जैसे खुद पर मुट्ठी तानने को मन हो रहा है. पुष्पेन्द्र फल्गुन की पोस्ट देखकर इस बार के लख्ननऊ प्रवास में उन्हें अस्पताल जाकर देखने की इच्छा थी. पर.......................
आज उनकी गज़लें कई बार पढ रही हूँ. पलट - पलट कर देख रही हूँ उनकी किताब इस दुख से कि आखिर क्यों अदम जैसे शायर अक्सर पैसे के अभाव में अस्पतालों में क्यों दम तोड देते हैं? क्यों एक ऐसा शायर जिसके शब्दों में लोगों को हिला देने की ताकत होती है उसी मुफलिसी का शिकार हो जाता है जिसको मिटा देने की तमन्ना लेकर वो उम्र भर लिखता है. क्यों ऐसा होता है कि हम उसी सरकार से गुहार करने लगते हैं जिसको आइना दिखाते – दिखाते अंतिम सांस लेने की कामना करता है वो शायर. और सरकारें लीवर और आंत की गम्भीर बीमारियों के लिये महज़ 50 हज़ार की सहायता दे कर अपना पिण्ड छुड़ा लेती ? और क्या बात है कि उसके जाने के बाद हम हाथ मलने के लिये मजबूर हो जाते हैं? इन् सभी सवालों के साथ मेरे पास कुछ सवाल आज के काथाकार, कवि और साहित्य कर्म से जुडे साथियों से और भी है किंतु सबसे पहले बात अदम की और उनकी बीमारी की --
अदम एक कृषक थे. उनका मुख्य पेशा भी कृषि ही था. याह बात सभी को मालूम है किंतु वह पूरवी उत्तर प्रदेश के एक ऐसे जिले के किसान थे जो जिला तमाम प्राकृतिक आपदाओं को पूरे साल झेलता है. बाढ, अंशिक क्रृषि सुखाड जैसी आपदायें वहां के लिये एक आम बात है. इस जिले के साथ इस पूरे क्षेत्र में बरसात के दिनो में महीनो पानी भरा रहता है तो ऐसे में पूरा इलाका कम उपज़, भूख, गरीबी, बेरोज़गारी तथा तामाम अन्य तरह के संकटों को झेलता है. इसलिये इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि वह एक ऐसे किसान थे जिनका गुजारा कृषि से कबीर की उन लाइनों की तरह ही चलता रहा होगा कि ‘ मैं भी भूखा ना रहूँ साधु ना भूखा जाये’.’ अदम का व्यक्तित्व इस बात की गवाही भी देता था कि वह भारत के एक आम किसान हैं बात अगर उनके इलाके के स्वास्थ की स्थितियों पर की जाये तो वह इलाका स्वस्थ्य के लिहाज़ से भी उसी तरह रेखांकित किया जाता है जैसे कि कृषि के लिये. आप देखें कि जापानी इंसेफेलाइटिस, मलेरिया और पानी के संक्रमण् से होने वाले कई रोगों से वहां के नागरिक रोज दो चार होते हैं. हर दिन सिर्फ मलेरिया से वहां कई मौतें होती हैं. पानी के संक्रमण से होने वाली तमाम बीमारियां वहां के लोगों को रोज अपना चारा बनाती हैं. बच्चों में जापानी इंसेफेलाइटिस की खब्रों से हो रही मौत की खबरें अभी खबरों की सुर्खियां है और् अदम गोंड्वी ने जब लिखा कि -
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।।
तो यह वो अपने इलाके की ही बात कर रहे थे और दुनिया को ही नहीं अपने साथी कवियों को भी बता रहे थे कि उनके इलाके के आधे घरों की यही हालत है. वहां भूख है, गरीबी है, बीमारी है और बेरोजगारी है. आप देखें कि वो सिर्फ हालात बयान नहीं कर रहे थे वो ये भी कह रहे थे कि -


आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

तो वह चमारों के घर के बहाने साथ के लोगों से यह भी कह रहे थे कि वो इस ताप को मह्सूस करते रहे है और यह ताप उन्हें वो करने से रोकता है जो सब करते है और चहते हैं कि सब इस ताप को मह्सूस करें. साथियों इस ताप को सब्से पहले आप मह्सूस किजीये. क्यों? क्योंकि आपने मेरी बात पर दाद दी है और अगर दाद दी है तो चलिये मह्सूस करते हैं इस ताप को साथ साथ इसीलिये कहते हैं कि -

अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के सिवा क्याी है फ़लक़ के चाँद-तारों में

क्योंकि -

याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास का.


फिर साथ के लोग यह कैसे नहीं समझ पाये कि ऐसा फकीर कवि देश की धरोहर है ? क्यों नहीं समझ पाये कि ऐसा कवि देश के साथ कविता की और हमारी जमात की सम्पत्ति है ? क्यों नहीं समझ पाये कि उनकी भी जिम्मेदारी बनती है उस कवि के प्रति? क्यों नहीं सोच पाये कि ऐसी धरोहरों को बचाने के लिये जब जरूरत होगी तो पहले उनको आगे आना होगा सरकार से गुहार उसके बाद लगायी जायेगी? क्यों नहीं समझ् पाये वो? ये सवाल हमें खुद से पूछने ही होंगे.
आप ध्यान दे कि अभी हाल ही में अदम जी की किताब भी जो आयी वो प्रतापगढ के एक बहुत ही छोटॆ से प्रकाशन अनुज प्रकाशन से आयी. किताब का विवरण देखें :
पुस्तक का नाम:
गजल की इन्कलाबी फसल
लेखक
अदम गोण्डवी
प्रकाशक:
अनुज प्रकाशन, इन्द्रप्रस्थ मार्केट, बाबागज, प्रतापगढ़ उ.प्र.
मूल्य:
Rs-125
तो ऐसे में यह सहज ही अनुमान लगाय जा सकता था कि उनकी इस तरह की गम्भीर बीमारी के समय आर्थिक मदद की अवश्यकता होगी. तो ऐसे में क्या होना चाहिये था ? क्या कोई जिम्मेदारी साथ के लोगों की नहीं बनती थी? क्यों ऐसा होता है कि हम सामर्थ्य होते हुए भी सरकार का मुँह ताकते हैं ? क्यों ? सोच रही हूँ जैसे वो हमसे ही कह रहे है कि -
चाँद है ज़ेरे क़दम. सूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया

जी हाँ किरदार! एक कवि का किरदार! जो लोगों की बात करता था जो जनता की बात करता था और जो आज के देश की तस्वीर हमे दिखाता था और कहता था -

काजू भुनी प्लेहट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहां की नखास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूं मैं होशोहवास में

.................................... अदम गोंडवी

दरअसल जब एक शायर लिखता है और जब जनता के लिये लिखता है तो वह आवाज देता है, आगाह करता है और पुकारता है अपने आस पास को, देश को और उन पढे लिखे बुद्धिजीविओं को के देश के हालात पर सोचो विचार करो क्योंकि देश के हालात खराब हैं जनता बेहाल है और जब हम उसकी कविता पर दाद देते हैं तो वो आशा करता है कि उसके साथी सबसे अधिक जिम्मेदारी के साथ सुनेंगे उनकी बात और अमल करेंगे. सब कहेंगे कि उन्होने सुना उनको समझा उनकोके लिये भी तैयार थे. पर सवाल ये है कि क्या सही समय पर.? जब बात यहां तक पहुंच गयी थी कि –
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूं मैं होशोहवास में

तो मतलब साफ था कि बगावत के बाद के हालात के बाद पर सोचना ही होगा क्योंकि बगावत आसान काम नहीं होता. क्यों नहीं सोच पाये हम? क्यों चूक गये हम? ऐसा नहीं है कि उसने कवियों को पुकारा नहीं था उनको आवाज़ नहीं दी थी. आप देखें वो कई तरह से और कई बार आदीबों को आवाज़ दे चुके थे. और कह रहे थे -

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाक़िफ़ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो
गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिशनगी को वोदका के आचमन तक ले चलो
ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.

शायद कई बार इस ज़मात के तौर तरीके पर बहुत बेबाकी से कह गये कि ---

जल रहा है देश यह बहला रही है कौम को ,
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये !


. अदम इंकलाबी नस्ल के शायर थे. वो देश के हालात को बताने का हुनर रखते थे. इमानदारी से आगाह करने का साह्स रखते थे उनको खोकर सहित्यकारों की जमात दुखी है किंतु इस जमात को खुद के अन्दर झांक कर देखना होगा. खुद से कई सवाल करने होंगे और भविष्य में ऐसा न हो इसके लिये तैयारी करनी होगी क्योंकि यह पहली बार नहीं है कि हमने कोई कवि इस तरह खोया हो. एक लम्बी कतार है. रागदरबारी अभी याद है लोगों को.
अंत में ढेरों सवाल खुद से करते हुए अदम को सम्झने की चेष्टा के साथ कुछ गज़लें --

1. मुक्तिकामी चेतना अभ्यलर्थना इतिहास की

मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की
आप कहते है जिसे इस देश का स्वकर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की
यक्ष प्रश्नोंह में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्याउ हमारी प्यास की?
इस व्यतवस्था़ ने नई पीढ़ी को आख़िर क्याक दिया
सेक्सय की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ा स की
याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की.

2.विकट बाढ़ की करुण कहानी

विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्या.स लिखा है।
बूढ़े बरगद के वल्क ल पर सदियों का इतिहास लिखा है।।
क्रूर नियति ने इसकी किस्मलत से कैसा खिलवाड़ किया है।
मन के पृष्ठों पर शाकुंतल अधरों पर संत्रास लिखा है।।
छाया मदिर महकती रहती गोया तुलसी की चौपाई
लेकिन स्व प्निल स्मृुतियों में सीता का वनवास लिखा है।।
नागफनी जो उगा रहे हैं गमलों में गुलाब के बदले
शाखों पर उस शापित पीढ़ी का खंडित विश्वाेस लिखा है।।
लू के गर्म झकोरों से जब पछुआ तन को झुलसा जाती
इसने मेरे तन्हाकई के मरूथल में मधुमास लिखा है।।
अर्धतृप्ति उद्दाम वासना ये मानव जीवन का सच है
धरती के इस खंडकाव्या पर विरहदग्धच उच्छ्‌वास लिखा है।।

3.वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्थाह विश्वा स लेकर क्या करें
लोकरंजन हो जहां शंबूक-वध की आड़ में
उस व्यनवस्थाब का घृणित इतिहास लेकर क्या‍ करें
कितना प्रगतिमान रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्याि करें
बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूँठ में भी सेक्सँ का एहसास लेकर क्या, करें
गर्म रोटी की महक पागल बना देती है मुझे
पारलौकिक प्यामर का मधुमास लेकर क्याा करें





.....................................................................डा. अलका सिंह्

पढ़िए अदम गोंडवी की कुछ गजलें

1. ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में


ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्‍सल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में

न इनमें वो कशिश होगी, न बू होगी, न रानाई
खिलेंगे फूल बेशक लॉन की लम्‍बी क़तारों में

अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्‍मे के सिवा क्‍या है फ़लक़ के चाँद-तारों में

र‍हे मुफ़लिस गुज़रते बे-यक़ीनी के तज़रबे से
बदल देंगे ये इन महलों की रंगीनी मज़ारों में

कहीं पर भुखमरी की धूप तीखी हो गई शायद
जो है संगीन के साये की चर्चा इश्‍तहारों में.



भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक के जल्‍वों से वाक़िफ़ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

मुझको नज़्मो-ज़ब्‍त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिश्नगी को वोदका के आचरन तक ले चलो

ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.


2. मुक्तिकामी चेतना अभ्‍यर्थना इतिहास की

मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

आप कहते है जिसे इस देश का स्‍वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की

यक्ष प्रश्‍नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्‍या हमारी प्यास की?

इस व्‍यवस्‍था ने नई पीढ़ी को आख़िर क्‍या दिया
सेक्‍स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्‍फ़ास की

याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की.



3. विकट बाढ़ की करुण कहानी

विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्‍यास लिखा है।
बूढ़े बरगद के वल्‍कल पर सदियों का इतिहास लिखा है।।

क्रूर नियति ने इसकी किस्‍मत से कैसा खिलवाड़ किया है।
मन के पृष्‍ठों पर शाकुंतल अधरों पर संत्रास लिखा है।।

छाया मदिर महकती रहती गोया तुलसी की चौपाई
लेकिन स्‍वप्निल स्‍मृतियों में सीता का वनवास लिखा है।।

नागफनी जो उगा रहे हैं गमलों में गुलाब के बदले
शाखों पर उस शापित पीढ़ी का खंडित विश्‍वास लिखा है।।

लू के गर्म झकोरों से जब पछुआ तन को झुलसा जाती
इसने मेरे तन्‍हाई के मरूथल में मधुमास लिखा है।।

अर्धतृप्ति उद्दाम वासना ये मानव जीवन का सच है
धरती के इस खंडकाव्‍य पर विरहदग्‍ध उच्छ्‌वास लिखा है।।



4. वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्‍था विश्‍वास लेकर क्‍या करें

लोकरंजन हो जहां शंबूक-वध की आड़ में
उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास लेकर क्‍या करें

कितना प्रगतिमान रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें

बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूँठ में भी सेक्‍स का एहसास लेकर क्‍या करें

गर्म रोटी की महक पागल बना देती है मुझे
पारलौकिक प्‍यार का मधुमास लेकर क्‍या करें



5 वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्‍नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्‍क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बतलाएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है



6 हिन्‍दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए

हिन्‍दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुरसी के लिए जज्‍बात को मत छेड़िए

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थी; जुम्‍मन का घर फिर क्‍यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए

छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ़
दोस्त मेरे मजहबी नग़मात को मत छेड़िए



7 जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है

जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है
एक पहेली-सी दुनिया ये गल्प भी है इतिहास भी है

चिंतन के सोपान पे चढ़ कर चाँद-सितारे छू आये
लेकिन मन की गहराई में माटी की बू-बास भी है

इन्द्र-धनुष के पुल से गुज़र कर इस बस्ती तक आए हैं
जहाँ भूख की धूप सलोनी चंचल है बिन्दास भी है

कंकरीट के इस जंगल में फूल खिले पर गंध नहीं
स्मृतियों की घाटी में यूँ कहने को मधुमास भी है.



8 जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये

जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये

जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये

जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये

मतस्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिये.

Friday, December 16, 2011

माँ के नाम एक ख़त

माँ के नाम रोज़ रोज़ लिखती रही हूँ एक चिट्ठी
वो देखती होगी मेरी चिट्ठी और मेरा तडपता हुआ मन शायद
आज् कडकती ठंढ में उसके हाथ का एक स्वेटर हाथ में है
जैसे उसने अभी अभी दिया हो पहनने के लिये
उसके गर्म प्यार से भरा ये आज माँ सा हो गया है
और मैं उसकी एक एक बुनावट में घुस
माँ के स्पर्श से सराबोर हो रही हूँ

जब वो बुनती मेरे लिये तो जैसे ख्वाब बुनती थी ढेरों
उसके फन्दे में फंसी मैं सवाल पर सवाल करती रहती
क्यों बुनती हो मेरे लिये ?
क्या मैं पहंकर सुन्दर लगूंगी?
कब तैयार होगा ?
और वो चुप्चाप बुनती रहती प्यार

जब बडी हुई जैसे बदल गया था मन
उसके हाथ के स्वेटर सुहाने बन्द हो गये
वो हर साल बुनती और मैं मुँह बिचका परे रख देती
बिना उसकी आंखों को पढे
वो हर साल सहेज के रख देती अपना प्यार
उन्हीं सहेजे हुए में से ये एक
आज मा सा हो गया है

आज माँ की आंखें याद आती हैं
सूनी सूनी मेरी ओर तकती
फिर खत लिखने का मन है
कि पहन लिया तुमहारा प्यार
और कि
तुम बहुत अच्छी हो माँ
बहुत अच्छी हो

........................................................................अलका

अशोक कुमार पाण्डेय की कविता ''यह मेरी लाश है'' को समझने की एक कोशिश

अशोक कुमार पाण्डेय किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. फेसबुक वाले तो अब उनके तेवर और उनकी कलम के धीरे धीरे नशेडी हो गये हैं. कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र ने कहा - ''आजकल पाडे जी की पोस्ट नही आ रही''. इससे इस बात का अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उनकी पोस्ट का फेसबुक वालों के लिये मतलब क्या है. बहरहाल, आज मैं उनकी कल की रचना पर बात करना चाहती हूँ. आप सब सोच रहे होंगे कि कल की ही रचना पर क्यों ? दिमाग में यह भी चल रहा होगा कि अशोक ने तो एक से एक रचनाएँ लिखी हैं तो उसपर क्यों नहीं ? कल पर ही क्यों.? इसके कुछ कारण हैं पहला करण तो ये कि पहली बार अशोक ने ये स्वीकार किया कि उनकी ये रचना निराशा की है और वो अभी इस कविता की रचना प्रक्रिया से गुजर रहे हैं और दूसरा कारण ये कि जब मैं ये रचना पढ्कर उसपर कमेंट कर रही थी ठीक उसी वक्त मेरे एक मित्र ने मुझे एक और रचना पोस्ट की और कहा इसे भी पढो. मैं हैरान थी दोनो कविताओं को देख कर. एक ही वक्त में ऐसी दो रचनायें. प्रस्तुत है दोनों कवितायें. आप भी पढ लीज़िये दोनो -


1. यह मेरी लाश है

यह मेरी लाश है
कुछ नहीं कहेगी
आप चाहें तो ठीक मेरे बगल में बैठ मुझे गालियाँ दे सकते हैं
बिल्कुल वैसे ही जैसे अभी-अभी कर गया है कोई प्रशंसा
इस देह में सबसे पहले अचेत हुई है जीभ
हृदय उसके ठीक बाद
और आँखे मरने के पहले ही बंद हो गयीं
---------------- अशोक कुमार पंडेय
2. मुर्दे ...
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अब
आजादी की दरकार नहीं है
क्यों, क्योंकि -
यहाँ कोई ज़िंदा नहीं है !
जो भी हैं -
जितने भी हैं, सब मुर्दे हैं !
सब अपना -
ईमान बेच चुके हैं
मुर्दे -
आजाद होकर क्या करेंगे ??
.......................... उदय
यहां मैने उदय की कविता का जिक्र इसलिये जरूरी समझा क्योंकि ये दोनों ही कवितायें एक वक्त में लिखी गयी हैं और दोनो कवि अपने तरह से इस वक्त को बयान कर रहे हैं और दोनो कमोबेश एक ही मनो भाव से गुजरते हुए लिख रहे हैं. तो सोच रही हूँ कि कैसा वक्त है यह ? ये कैसा वक्त है जब सम्वेदना इस उबाल पर है ? कैसा वक्त है ये जब एक कवि जैसे चिघाड्ते हुए कह पडा है कि '' ये मेरी लाश है'' और दूसरा बिफर पडा है कि ''यहाँ कोई ज़िंदा नहीं है'' ? क्या वाकई वक्त ऐसा आ गया है कि अब जरूरी हो गया है सोचना ? आपका, हमारा , हम सभी का, ? क्या सच में ऐसा वक्त आ गया है कि कवि हताशा में मृत होने की कल्पना कर बैठा है ?
इस आलेख में पहले बात अशोक कुमार पाण्डेय की कविता की. ऐसा इसलिये क्योंकि अशोक ने अपनी इस कविता के सन्दर्भ में कुछ बातें स्वीकार की हैं और किसी कवि की अपनी रचना के सम्बन्ध में स्वीकारोक्ति कई बार उस कविता या उसके वक्तव्य को समझना आसान बाना देती है. और वैदेही को जवाब देते हुए अशोक ने कहा कि – वह इस कविता की रचना प्रक्रिया से गुज़र रहे हैं, दूसरी बात जो उन्होंने स्वीकार की कि यह निराशा की कविता है. यह दोनों ही स्वीकरोक्तियाँ कविता को विस्तार देती हैं. कविता के इस् पक्ष को मजबूत करती हैं कि कवि निराशा में है और उदय की कविता इस बात का समर्थन करती है कि इस दौर के कई कवि निराशा में हैं और उनकी कलम अभी रोने की जगह एक खास तरह की मन्:स्थिति में है जिसे या तो झल्लाहट कह सकते हैं या फिर उसके करीब की स्थिति. इसलिये बहुत जरूरी है कि सबसे पहले हम अपने दौर की बात करें क्योंकि इस दौर की स्थितियां ही कवि की निराशा , उसकी छ्ट्पटाहट और उसके शब्दों के वितान में छिपे रहस्य को हमारे सामने रखेंगी.
पर पहले बात अशोक और उनकी रचना धर्मिता की. अशोक अपने दौर में प्रगतीशीलता के कवि हैं, कांति के कवि है और देखा जाये तो डंके की चोट पर कहने वाले कवि हैं. इसलिये उनकी किसी भी रचना पर कलम चलाते हुए इन तत्वों को नज़रन्दाज़ कर नहीं लिखा जा सकता. ना ही उनसे इससे कम की उमीद की जा सकती है. एक रोचक बात चुकि सन्दर्भ है तो बताती चलूँ कि अशोक को मैं काफी लम्बे अरसे से पदती आ रही हूँ किंतु इस बात की जानकारी कि वो मुझसे उम्र में छोटे हैं तब हुई जब मै फेसबुक पर उनकी मित्र बनी. यह बात यहां मैने इसलिये दर्ज़ की क्योंकि उनका लेखन अपनी पूरी परिपक्वता के साथ अपने शुरुआत से ही खडा है और इसीलिये इस रचना की ‘निराशा’ जैसा वो कहते हैं को भी एक परिपक्व भाव में पढा जाना चाहिये क्योंकि मेरा मानना है कि कविता एक सामान्य कर्म नही है. यह आनेवाली पिढियों के लिये दस्तावेज़ तैयार करने का काम है और इसीलिये धूमिल को कोड करूंगी कि ‘’ एक सही कविता पहले एक सही वक्तव्य है’’. तो अशोक जैसे कवि जब अपना वक्तव्य लिखते हैं तो वह समय के गवाह के रूप में अपनी बात आनेवाली नस्लों के लिये कुछ दर्ज़ करते हैं और इस दर्ज़ दस्तावेज़ के कई मायने हैं. यही कारण है कि उनका ये कहना बडी बात हो जाती है कि ‘’ ये मेरी लाश है कुछ नहीं कहेगी......’’. पर कवि इतना ही नही होता वह अपने समकालीन जी रहे सभी लोगों का स्वर होता है, सभी लोगों की कलम होता है और सभी लोगों की उम्मीद होता है इसीलिये एक ऐसे वक्त में जब इस देश में मह्गाई चरम पर है, रुपये का अवमूलयन हो रहा है, भ्रष्टाचार चरम पर है, भूख है, गरीबी है, बेकारी है और भी ना जाने क्या – क्या तब कवि का निराशा के साथ लिखना उसकी अकेले की विवशाता नहीं होती वह उस कलम , उस जुबान और उन सम्कालीन लोगों की विवशता और निराशा बन जाती है जो उनसे अपनी उमीदों को जोड कर उनको लिखने के लिये प्रेरित करते हैं, उनको दाद दे प्रोत्साहित करते हैं और आशा बाधते हैं कि उनका प्रवक्ता उनको समय और समय की गम्भीरता का आभास समय रहते जरूर करायेगा. वह आगाह् भी कारेगा कुचक्रों से, आने वाले दुखों से. इसलिये कवि जैसे एक नियुक्त प्रवक्ता होता है समकालीनो द्वारा. और इसी कारण वह बेचैन, निराश हताश हो जाता है और इसीलिये एक जिम्मेदार कवि जब बइन स्थितियों से गुजरता है तो उसका निराश होना लाज़मी है.
तो चलिये इसी सन्दर्भ में अशोक की कविता और इस दौर में उसके मायनो को समझते हैं.
अशोक कहते है-
इस देह में सबसे पहले अचेत हुई है जीभ
हृदय उसके ठीक बाद
और आँखे मरने के पहले ही बंद हो गयीं
यह तीन लाइन पूरे वक्तव्य की सबसे महत्वपूर्ण लाइन है जो बता रही है कि कवि एक प्रक्रिया के तहत लाश बनते हुए अपने को मह्सूस कर रहा है. मैं अगर इसे व्यापक तौर पर कवि को देखती हूँ तो मेरे सामने उसके इस बयान के बहुत से कारण नज़र आते हैं. आप देखें जो कवि अपने काल खणड की समस्या से अपने को जोड्कर जिम्मेदारी महसूस करते लिखता है सीधे – सीधे सत्ता, सरकार और शासन के सामने आईना लेकर खडा होता है. वो भी जनता की तरफ से जनता का प्रवक्ता बन तो ऐसे में जब देश मुश्किलों के दौर से गुजरे, जनता बेहाल हो, विदेश् की राजनिति आपको डसने के लिये खडी हो, एक के बाद एक ऐसे कानून बन रहे हों जो आने वाले हमारे बच्चों के भविष्य के गर्त का करण होंगी. और लिखने बोलने की स्थिति में अपने को असहाय पाये तो कवि कहेगा ही -
‘’यह मेरी लाश है
कुछ नहीं कहेगी
आप चाहें तो ठीक मेरे बगल में बैठ मुझे गालियाँ दे सकते हैं
बिल्कुल वैसे ही जैसे अभी-अभी कर गया है कोई प्रशंसा’’
वैसे देखें तो यह एक तरह से अपने लोगों से गुस्सा भी है. एक नाराजगी जैसे अब तुम चाहे जो करो मेरी प्रशंशा या बुराई जब तुम्को कोई फर्क नही तो मुझे भी नही फर्क पडता. जैसे मुझसे तुम्हारा नाता नहीं अब वाले अन्दाज़ में. हो सकता है यह एक स्वीकारोक्ति भी हो कि इस दौर में मैं प्रवक्ता जैसा नहीं रहा और यह हताशा भी. किंतु जो भी है एक इमान्दारी जरूर है जो एक सामाजिक कवि की अपने कर्म के प्रति है. इसीलिये वो आगे कहते है -
इस देह में सबसे पहले अचेत हुई है जीभ
हृदय उसके ठीक बाद
और आँखे मरने के पहले ही बंद हो गयीं

जीभ का अचेत होना संकेत है कि मैं इस स्थिति में अचानक नहीं आया हूँ यह प्रक्रिया रही है एक निरंतर पीडा कि मैं वैसा नहीं कह पा रहा जैसा चाहिये या फिर वैसा जैसा मन में था या फिर उतना क्रंतिकारी जो इस वक्त के लोग को आगाह कर सके या फिर जगा सके. कुछ ऐसे भाव जरूर है इसिलिये स्पन्दन और फिर मरने से पहले आंख बन्द जैसे प्रयोग हैं. पर मेरा मानना है कि जीभ बन्द नही हुई बल्कि उसे बन्द कराने की परिस्थितियां उत्पन्न हुईं या फिर की गयीं और धीरे – धीरे स्पन्दन और आंख बन्द करने तक पहुंच गयी.
सोच रही हूँ यह कितनी भयावह स्थिति है इस दौर के लिये. कितनी घोर निराशा की स्थिति कि एक कवि इमान्दारी से स्वीकार कर लेता है कि वह निराश है. यही वज़ह है कि अंजु शर्मा ने कविता की तारीफ करने से इंकार कर दिया और वैदेही ने निराशा की कविता कह अशोक को स्वीकरोक्ति के लिये मजबूर कर दिया . पर मैं इस कविता की तारीफ इसलिये करूंगी कि कवि अपने कर्म को लेकर ईमान्दार है, वह हमारे सामने अपनी निराशा रख रहा है, उसे पता है कि इस निराशा से साथ मिलकर ही निकला जा सकता है. इसीलिये मैं इसे उबाल की कविता कह्ती हूँ क्योंकि ऐसा नही है कि जीभ मर गयी है वह अचेत है और इस अचेतवस्था के कारण जो अभी केवल अभी कवि जानता है को हमें भी जानना होगा. आप देखें ह्र्दय भी बन्द नहीं हुआ है वह भी अचेतावस्था में ही है. और मरने से पहले जो आंखें बन्द होती हैं वो खुलती भी हैं इसलिये यह हमारे लिये निराशा से अधिक चेतावनी की कविता है और इसे हमें समझना ही होगा तकि वक्त रहते कवि वह सब साझा करे जिसने उसे ऐसा करने पर मज्बूर किया (अगर किया तो) नहीं तो जो भी हुआ उसको उसी इमान्दारी से साझा करे जैसी कि कविता इमान्दार है.
इस कविता पर आगे बात जब अशोक इसे पूरी कर साझा करेंगे
......................................................... डा. अलका सिंह