Friday, February 3, 2012

हो रहा है सच का सामना

एक देश बंटा
बंटकर दो हो गया
लोग बंटे और
बंटकर दूर खडे हो गये
जैसे दुश्मन हों आमने – सामने
फिर
भाषा बंटी, कानून बंटा तोप बंटी तलवारें और बन्दूकें भी बंटी
बित्ते बित्ते का हिसाब हो गया
और
खिंच गयी एक लकीर
बन गयी एक सरहद
खिंच गयीं तलवारें , तन गयी संगीने

पर
उस सरहद पर आज भी कुछ दिखता है
लगता है जैसे
कुछ सुर्ख आंखें इस पार से उस पार तक
खोजती हैं रिश्ते,घर और यादों से बिन्धा अपना
बचपन
और अल्लाह की शान में गाती हैं नातिया

कुछ हाथ दिखते हैं उठे हुए सलामती के लिये
सर झुके हैं बहुत से
और लब तरबतर आंसुओं से
बुदबुदाते
न जाने कब से वहीं के वहीं हैं
वो आंखें वो हाथ वो लब वो आंसू
उस दुनिया की हैं
जो सरहदों के पार भी एक सी पसरी पडी है
जी हाँ, उस औरत की दुनिया
जो नहीं बंटी और
पडी है पहले सी साबूत
खंड खंड टूटती बूद-बूँद रिसती और
छन्न –छन्न बिखरती

कल दस्तक दी थी
मेरे कमप्यूटर पर
सरहद पार की जिन्दगी का खाका लेकर आयी
सखियों ने
पहली दुआ सलाम के साथ एक हो गयी थीं हमारी बातें
एक हो गया था जीवन, एक हो गयी थी भाषा, एक हो गयी थी जिन्दगी हम चाहते थे
एक सा कानून
एक सी भाषा
और एक ऐसा देश जो हमारा हो

वह रूबिना थी ब्याह के गयी है सरहद पार
बडी हसरत से आयी थी इस पार
पर क्या पता था कि
जिन्दगी कुछ और उलझने लेके आयेगी
क्योंकि वो हर वक्त तिरंगे पर ठहर कर सोचती है
के क्या करूँ इसका जो दिल में बसा है
क्या करूँ ?
वह फातिमा है जो बार – बार
चांद सितारे वाले उस हरे झंडे को अपलक निहारती है
और कभी कभी फफक फफक कर रोती है
और सरहद पार से
कबूतरों के आने का इंतजार करती है
कबूतर भी धोखेबाज आते ही नहीं

सईदा तलाकशुदा है अकेली इसपार इंतज़ार में है अपने बच्चों के
जाने कब देखेंगी उसकी आंखें अपने ही जनों को
क्योंकि कानून से वो बच्चे उसके नहीं
उसपर उसका हक कम और देश का ज्यदा है

सफिया और रूबी दोनो ननद भावजें हैं
दोनो के बच्चे उनके नहीं हैं एक इस पार का है
एक उस पार का
दोनो सरहदों के सिपाही हैं
उनकी आंखें झुकी हैं अल्लाह की शान में

मैं कब से सुन रही हूँ ये अंत हीन कथायें
अंतहीन दुख
स्क्रीन कहे जाने वाले इस यंत्र पर
जान रही हूँ सरहद पार का सच


और समझ रही हूँ औरत और देश होने का सच
कल एक और बच्ची ने खटकाया था दरवाजा
क्लिक कर के
वो एक और सरहद की दास्तान लेकर आयी थी
अपनी जुबान में
हम दोनो ने बातें की
अपनी जुबान में
जी हाँ अपनी जुबान में
उसने बांटा अपना बहनापा
कि वो रोज लाठियों से पीटी जाती है कमप्युटर छूने के कारण वो लोज गाली खाती है
पढने के कारण
और वो रोज मारी जाती है
बेह्तर ढंग से
रहने के कारण
पर जीती है आंखओं में सपने ले
कि एक दिन बदलेगी उसकी भी दुनिया

सच कहूँ तो मैं जान रही हूँ
औरत की दुनिया को
हर रोज
करीब से जैसे
हो रहा हो सच का सामना
हर पल, हर दिन
बार – बार

.................... अलका

2 comments:

  1. उफ़ ……………बेहद मार्मिक चित्रण ………………संवेदनशील सच्।

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  2. उस सरहद पर आज भी कुछ दीखता है

    लगता है जैसे

    कुछ सुर्ख आँखें

    इस पार से उस पार तक खोजती हैं

    रिश्ते ,घर और यादों से बिंधा अपना बचपन ..मर्म स्पर्शी पंक्तियाँ अलका जी !!बहुत सुन्दर रचना ...आपकी इस रचना से गुलज़ार साहब की एक त्रिवेणी याद आ गई

    "मैं रहता इस तरफ हूँ यार की दीवार के लेकिन
    मेरा साया अभी दीवार के उस पार गिरता है

    बड़ी कच्ची सी सरह एक अपने जिस्मों जान की है "

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