मैं लिखना चाहती थी एक कविता
मन के सबसे खूबसूरत भावों को समेट
खोजती रही उन्हें
कुरेद कुरेद
कहीं गुम हो गये थे
मिले ही नहीं
रात
चांद के साथ बैठ
पूछ रही थी उससे
कि कितनी रातें गुजारी थीं उससे बात करते
कितनी रातें सोयी नहीं
उससे साझा करते हुए
अपने भाव कि
कर सकूँ एक गुणा गणित
वो चुप सा मुझे देखता रहा
जैसे पहचता ही ना हो
सांझ भी मुकर गयी थी
मेरी जिन्दगी के
सबसे जरूरी पहरों को चुरा
बताने से कुछ भी
फिर तो
टहल आयी थी शहर का हर कोना
पूछ आयी थी चौक चौबारों से
पर
उसी तरह खाली हाथ लौट कर
यह सोचते सोचते
अपनी ही दहलीज़ पर
खडी हूँ विचारमग्न
कि
आत्म्विश्व्वस
खुद को बटोरते आदमी के
सिरहाने खडा
जीवन से कडी टक्कर के लिये
तैयार करता
एक बडा बल है
और
खुद को बटोरते हुए स्त्री की कविता
बिल्कुल
अधूरी है इस बल के बिना
.....................................अलका
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