Tuesday, August 30, 2011

हसरतें

अम्मा का और मेरा रिश्ता भी कम जटिल नहीं था. हम दोनों एक दूसरे से जितना प्यार करते थे दूर भी उतने ही थे . मैं जिंदगी में हर खिड़की खोल कर जीना चाहती थी लेकिन उसे खिड़कियाँ बंद करने की आदत हो चली थी. वो कई दबावों में जीती थी और मै दबाओं को न तो पसंद करती थी न ही उनमे जीना पसंद था मुझे. मां को जिंदगी का अनुभव हो चला था मै अभी अनुभव बटोरने के लिए बस उठ खड़ी हुई थी. मुझे लेकर उसके पास भी सपने थे पर उसमे कई दीवारें थी और कई चौखटें किन्तु मेरे अपने सपने खुले आकाश की तरह थे. माँ के पास कई ऐसे रिश्ते थे जो उसे आदेशित करते थे वो कई कारणों से उसे मानने को मजबूर थी पर मैं किसी ऐसे बंधन को जो मेरे गले में फांस की तरह हो पसंद नहीं करती थी. इसलिए अम्मा और मुझमे टकराहट होती रहती थी. अम्मा को लगता था मैं उसकी बात नहीं समझती पर मैं उसकी बात समझते हुए भी कभी समझाना नहीं चाहती थी. मुझे पता नहीं के दुनिया की हर माँ बेटी के बीच इस तरह की दूरी होती है या नहीं पर मेरे और माँ के बीच इस तरह की एक दूरी जरूर थी. जो कभी कभी हमारे बीच लम्बी बहस या कभी कभी झगड़े का कारण होती थी.

मैं उसकी पहली संतान थी इसलिए मेरे और उसके रिश्ते मे एक अजीब तरह का अपनत्व भी था. अक्सर वो कहती ' तुमने मुझे पहली बार माँ होने का अहसास दिया है इसलिए तुम अनमोल हो मेरे लिए'. यह एक लाइन मुझे उससे ऐसे जोड़ती जैसे मेरी नाल अभी भी उसके गर्भ मे पड़ी हो. मैं अभिभूत होकर उसे निहारती रह जाती. . .

अम्मा साधारण महिला नहीं थी. विचारों से बहुत ही असाधारण थी वो. अपने क्रांति कारी विचारों के ओज और उसे कार्य रूप मे लाने के कारण कई बार उसे परिवार का विरोध झेलना पड़ता था. अक्सर वो समाज, जाती और गाँव के परम्पराओं के सारे नियम कायदे ताक़ पर रख देती.थी. एक बार तो गाँव के एक मंदिर मे वहां के पुजारी से लड़ गयी करण था के पुजारी ने शंकर भगवन के मंदिर मे महिलाओं को पूजा के लिए घुसने से मना कर दिया. इस बात पर महिलाएं पुजारी से नाराज़ हो गयीं और माँ से आकर शिकायत की. वह शिवरात्रि का दिन था अम्मा ने भी व्रत किया था. तैयार होकर वो पूजा के लिए उसी मंदिर मे पहुँच गयी पूजा करने. पुजारी ने आव देखा न ताव फिर बरस पड़ा. बोला महिलाओं पर, बोला - तुम लोंगों को ये पता नहीं कि महिलाओं को शंकर भगवान् की पूजा नहीं करनी चाहिए? महिलाओं के प्रवेश से मंदिर अपवित्र हो जाता है. भगवान् नाराज हो जाते हैं. तुम लोग सब अगर पूजा ही करना चाहती हो तो बाहर से ही पूजा कर लो और भोले बाबा को हाथ जोर लो.

मुझे याद है अम्मा की आँखे उस समय जैसे आग के गोले की तरह लाल हो गयी थी. उसकी उंगलियाँ आपस मे भीचने लगी थीं. उसने थाली जमीन पर राखी और पानी से मुंह धुला और पुजारी को ऐसे घूरा के पुजारी के तो होश फाख्ता हो गए. अम्मा ने औरतों से बोला तुम लोग पूजा करो इस पुजारी को मैं देखती हूँ. और पुजारी पर बरस पड़ी - क्या कहा पुजारी जी आपने ? क्या बोला कि औरतों के मंदिर मे प्रवेश से मंदिर अपवित्र हो जाता है ? आप जानते हैं जब तक औरतें ये पूजा कर रही हैं तभी तक इस मंदिर और भगवान् का अस्तित्व है जिस दिन छोड़ देंगी उस दिन न मंदिर रहेगा न तुम. समझे. तुम म म म म .......... पंडित को काटो तो खून नहीं लेकिन फिर भी अपनी पंडिताई दिखने से बाज नहीं आया बोला मैं आपकी शिकायत करूँगा ....... अम्मा ने कहा तुमसे पहले ये शिकायत मैं करुँगी के क्या महिलाएं इस गाँव की नागरिक नहीं? क्या मदिर के पुजारी से लेकर घर के लोंगों तक सबको उनका अपमान करने का हक है? पंडित हैरान सा चुप हो गया. २ दिन बाद खबर आयी के वो गाँव छोर कर चला गया है.

एक किस्सा और मुझे याद आता है जब उसने भरी सभा मे सबसे लड़ाई कर ली थी. मेरे बाबा और आजमगढ़ के तत्कालीन सांसद रामधन जी बहुत अच्छे मित्र थे. दोनों की मित्रता मे जात - पात, ऊँच - नीच जैसा कुछ नहीं था. बाबा जब भी कोई कार्यक्रम करते रामधन जी को जरूर बुलाते थे. हम भी उन्हें बाबा ही कहकर बुलाते थे. राम धन जी जाती से हरिजन थे. इसलिए कईयों को बाबा की इस दोस्ती से बहुत ऐतराज था. वो मेरी सबसे बड़ी चचेरी बहन की शादी मे शिरकत करने आये हुए थे. दरवाजे पर द्वारपूजा का कार्य क्रम चल रहा था किसी ने रामधन जी को मिटटी के कुल्लढ़ मे चाय और मिटटी के बरतन मे मिठाई दे डी जबकि दूसरे लोंगों को पलते दी गयी थी. किसी ने आकर अम्मा से कहा के बाहर ऐसा हुआ है उसने घर से बाहर तक सबकी क्लास ले ली. बाहर द्वारपूजा मे जाकर बाबा को बोला - आपने अपनी आँखों के सामने ऐसा होने कैसे दिया ? इसका मतलब आप अपने मित्र की दिल से इज्ज़त नहीं करते. रामधन जी से बोला - आप दरअसल इनके दोस्त नहीं हैं आपकी ये दोस्ती दरअसल राजनीतिक है दिल से नहीं. रामधन कुछ कहते उससे पहले ही वो बोल पड़ी अगर आप सच मे समाज का विकास करना चाहते हैं तो आपको इन लोंगों के आचरण का विरोध करना चाहिए. मित्रता इस बात की इज़ाज़त देती है अगर सच्ची है तो. बाबा और रामधन दोनों बहुत देर तक चुप रहे..

एक वाकया मुझे और याद आता है. १९९० मे जब मंडल आन्दोलन शुरू हुआ मैं M .A . की छात्र थी. आरक्षण को लेकर बहस बहुत तेज थी. खासकर हम छात्रों के बीच. एक दिन मेरा एक क्लास मेट मुझसे घर पर मिलाने आया. हम बैठ कर आरक्षण पर बात कर रहे थे . बात आरक्षण पर और उसके बटवारे पर होने लगी. अम्मा चुप चाप बैठ कर हमें सुन रही थी. जैसे ही बटवारे की बात आयी बीच मे ही बोल पड़ी - ये तो बहुत अच्छा है कि तुम पुरुष लोग २७ और २२ बाँट लो महिलाएं कहाँ गयी? हम सब अचानक शांत हो गए. उस समय तक महिला आरक्षण जैसा कोई सवाल नहीं उठा था

अम्मा के व्यक्तिव के ये पहलू उसे बहुतों से अलग करते थे. मुझे आज भी इस बात का गर्व है के मैं उसकी बेटी हूँ. मैं अम्मा के इसी क्रन्तिकारी रूप का साथ चाहती थी. पर हमरे रिश्तों के डोर एक दौर मे आकर उलझ गयी थी. वो चाहकर भी मुझे आधा अधोरा समर्थन दे पाती थी.

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