Sunday, August 28, 2011

शब्द

कुछ शब्द सतह से उड़कर

सामने आ गए हैं

गर्जना क़र रहे हैं

मेरे अन्दर के शून्य को टटोल क़र

उसका खाका बना रहे हैं

बार बार मन पर चोट क़र

सवाल दे रहे हैं

पूछ रहे हैं वो वेदना

जो अब भी कहीं गहरे

तली में,

मौन साधे चीत्कार रही है

क्या है ? क्यों है?

शब्द फिर तडक रहे हैं भड़क रहे हैं

बार बार उड़कर उस तली में जाकर

टटोल रहे हैं

समय के पार का सच

जानने को घुमड़ रहे हैं मेरा चेतन ,- अवचेतन

करने तो मैं खुद ही बैठी हूँ कई पन्ने स्याह

इस चेतन अवचेतन के द्वन्द में फंस क़र रह जाती हूँ

क्यों है ऐसा ?

विचरती हूँ इस सवाल के साथ

खोज़ती हूँ सच की कलम

सच्चे शब्द

और एक पन्ना शफ्फाक

आसान नहीं है ये इतना

जब

जाती हूँ अन्दर उलटने को पन्ने

समय सच और कई तंतु बंधाते हैं

पाश में

रोकते हैं, उलझाते हैं कभी कभी

डराते भी हैं

किन्तु हवा में ये तैरते ये शब्द

गढ़ेंगे वो पन्ना लगायेंगे आग

क्योंकि ये शब्द ही मेरे अपने हैं

हवा में तैरते बल देते हाथ पकड़ क़र

रास्ता बता रहे हैं

वो उतर गए हैं मेरी कलम के पार

.......................... अलका

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