जिन्दा रहने के लिए सपने उतने ही जरूरी हैं जितना कि खाना - पीना. जब तक सपने रहते हैं आपके जीवन का सब कुछ आपके हिसाब से चलता हुआ लगता है. कोई बात दिल को न तो दुखाती है न ही काम थकाता है. न कोई रोग घेरता है न ही ब्याधि पास आती है. पापा का डर भी सपनो के आगे कई बार हार गया है. हाँ, एक दौर मेरे जीवन में ऐसा भी आया जब मैं पापा से डरने लगी. उनसे बात करते शब्द अटक जाते थे हलक में.. उनकी आँखों में वो ममता मुझे खोजे भी नहीं मिलाती थी जो मेरी ताकत थी जो मेरी जिंदगी को उर्जा देती थी. मेरा किशोर मन डर के साये तले जीने लगा था . क्यों अचानक सारा का सारा प्यार एक डर में तब्दील हो गया था समझ नहीं पाती थी ? क्यों पापा ने एक दूरी बना ली थी ? मेरा किशोर मन ये भी समझने में असमर्थ था के पिता का एक डर भी होता है, . पर अब सोचती हूँ तो सारी तस्वीर कई सच बयान करती है. कई बार पुरुष के जीवन और उसके द्वन्द का सच, एक बेटी के पिता होने का सच और समाज और उसके दबाव का सच. . .
पापा और मेरा रिश्ता बहुत जटिल रहा है.मैंने जब से इस दुनिया में आँख खोली है तो पुरुष के रूप में जिस पहले इंसान को देखा है वो पापा रहे हैं. उन्होंने मेरी छोटी छोटी जरूरतों , छोटी छोटी आदतों और छोटी छोटी तकलीफों का ख्याल रखा. बोलने की तहजीब सिखाई, भाषा का ज्ञान कराया, उंगली पकड़ कर चलाना सिखाया, वो सब सिखाया जो दुनिया में जीने और अच्छा इंसान बनने के लिए जरूरी है. उन्होंने ही जाने अनजाने मुझे सपनो की डगर भी बताई और उसपर चलाना सिखाया.
कई कई बार उनको माँ और पिता दोनों बनते देखा था. अम्मा जब पढ़ने के लिए स्कूल जाती तो वही मेरी जरूरतों का ख्याल रखते. बुखार आ जाने पर रात रात भर जागते रहते थे पापा. मेरी ऊँगली में लगाने वाली हलकी सी चोट पर एकसाथ कई दवाइयां खरीद लाते. ऐसे थे बचपन के पापा. उनकी आँखों में अपने लिए एक समय तक अम्मा से अधिक ममता देखी थी अपने लिए. हर पल मेरे लिए सोचना और बड़े बड़े सपने पापा के आंखे कल भी देखती थी और आज भी देखती हैं. पर एक लम्बे समय तक हमारे सपने विचार और तर्क टकराने लगे थे.. मेरे लिए उनके सोच की हदें सिमटने लगी थी. वो भी वही चाहते लगे थे जो दुनिया के सब पिता चाहते हैं. और मैं उनसे वक्त, और अपने लिए एक तरह की आज़ादी मांगने लगी थी. वो मेरे सपनो पर मेरी चाहतों पर सवाल खड़े करने लगे थे. अम्मा और उनके बीच कई बार मैं एक उद्दा बन जाती थी. कई बार सोचती क्यों है ऐसा? आखिर क्या बात है? क्या मैं कोई गलत तरफ जाने की जिद पर हूँ ? उस वक्त कई बातें बहुत परेशान करती थी मुझे.. बचपंन की बहुत सी बातें हर वक्त आँखों में तैरती रहती.
मुझे याद आता पापा का लाला- पाला कराना, अम्मा के पास चौके में खड़े होकर मेरे भविष्य के सपने बुनना, बाबा से मेरे लिए लड़ना, उनका इस बात का गुमान के उनकी बेटी दुनिया की सबसे सुन्दर बेटी है. मैं सोच सोच कर रो पड़ती के सब अचानक कहाँ चला गया सब . कई बार अपने आप से सवाल करती क्या लड़कियों को बड़ा नहीं होना चाहिए ? सपने नहीं देखने चाहिए ? सपने देखना गलत है ? क्या मुझे भी सारी लड़कियों की तरह चुपचाप अपने सपनो को दफ़न कर देना चाहिए? न न बिलकुल नहीं .......
मैं कोई तीसरे क्लास में गयी थी - सरकारी स्कूल की छात्र थी, उस समय अंग्रेजी ३सरे क्लास से ही शुरू होती थी. पहले दिन स्कूल गयी और टीचर ने अंग्ग्रेजी की वर्णमाला याद करने के लिए दिया. घर आयी तो पापा ने रोज की तरह सवाल किया स्कूल इ क्या पढाया गया ? मेरा जवाब था आज अंग्रेजी का A B C D याद करना है उनकी आँखें चमक उठीं और आधी रात तक वो मुझे पढाते रहे.
उस दौरान मै हमेशा इस जुगत में लगी रहती के पापा के दिल में अपने सपनो के लिए जगह बनाऊँ पर बात तो अटक ही गयी थी क्योंकि हम नदी के दो छोर पर खड़े थे.
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