Monday, August 29, 2011

हसरतें

मन की उडान जब रफ़्तार पकड़ने लगी तब मेरी उम्र बहुत छोटी थी. वो एक बीच की उम्र थी जब बड़े लोग़ वक्त बेवक्त छोटा कह कहकर कभी आपकी हर सांस पर लगाम लगा देते हैं कभी बड़ी हो गयी हो कह क़र आपके सपनो को सीखचों में कैद क़र देते हैं. दुनिया की ज्यादातर लड़कियां इसी उहापोह में रह जाती हैं के कब वो दिन आएगा के वो बड़ी होंगी और कब अपने सपनो पे चलेंगी और जैसे ही दुनिया बड़े होने की मुहर लगाती है लड़कियों के लिए एक नया घर खोज दिया जाता है फिर से नए संघर्ष के लिए. मैंने बचपन से लेकर बड़े होने तक लड़कियों की यही दुनिया देखी थी. कईयों के सपने बिखरते देखे थे और कईयों के घर भी बिखरते देखे थे. जिन्होंने अपने घर बसाये थे वो कहीं हर रोज अपने सपनो और उडान की आस लेकर या फिर उसके आर जाने की पीड़ा को लेकर जी रही थीं. ऐसी स्थितियों के साथ जीना होगा उझे भी ? नहीं बिलकुल नहीं हर रोज इस संकल्प के साथ मैं सोती और जगती थी. सच कहूँ तो मुझे ये नहीं पता था के अब एरे संघर्ष के दिन आने वाले हैं. मुझे ये भी नहीं पता था के मेरे इर्द गिर्द जो मेरे सबसे अपने हैं मेरा संघर्ष किसी और से नहीं सबसे पहले उनसे ही शुरू होना है.
मेरे सपने जैसे जिंदगी थे मेरी . कवितायेँ लिखना, गाना गाना, और अपनी आँखों से दुनिया को देखना लोगों को अपनी कलम के मध्यम से लोगों तक पहुँचाना जैसे सपना था मेरा. रोज मन से पूछती क्या चल पाऊँगी अपने सपनो पर ? क्या जी पाऊँगी अपनी जिंदगी ? मन जवाब देता - हाँ क्यों नहीं? पर कहीं न कहीं मन अपने ही अन्दर टटोलने लगता अपने आप को कि क्या सब आसान है? कई बार मैं खुद से पूछती क्यों अंतर्मन सवाल करता है क्यों उसे शंका है ? क्यों ? जवाब जानते हुए भी कई बार उसे स्वीकार क़रने में वही मन हिचकता है साथ नहीं देता. पर जवाब क्या हैं मैं कई बार आईने के सामने खड़े होकर पूछती. क्या माँ रोकेगी उडान भरने से? फट से मन बोलता नहीं बिलकुल नहीं पर फिर एक बार मन कहता ठीक से सोचो कहीं माँ ही तो नहीं फिर मन बोल उठता - न न .
मन फिर उसके साथ सबंधों की विवेचना करता और कहता - आखिर वो कैसे क़र सकती है ऐसा कैसे रोक सकती है मुझे मेरे सपनो को बुनने से ? कैसे रोक सकती है जबकी उसी ने पूरा है हर रोज मेरे सपनो की डोर को. हर रोज नए नए बीजों को रोपा है मुझमे. मेरी छोटी छोटी उपलब्धियों पर खुश होकर सीना तानकर खड़ी होने वाली कैसे रोकेगी ऊंचाई पर जाने से. मन फिर मुझे कहता वही तो है जो दूसरों से आपके जीवन के लिए याचना करती है. हर देव की चौखट पर सर पटकती है फिर क्यों रोकेगी.
तो क्या पापा ? किशोर मन उछल क़र कहता - नहीं. पापा तो बिलकुल नहीं. फिर मन अचानक सोचने लगता और सहते हुए कहता - क्यों नहीं वही तो हैं जो बाहर जाने से अब रोकते हैं . बात बात पर माँ से सवाल करते हैं. मैं कहाँ कहाँ जाउंगी वो तै करते हैं. क्या सच वो मेरे सपनो के साथ जीने देना नहीं चाहते ? बड़ा सवाल था. बहुत बड़ा पर मेरा मन मानाने को तैयार नहीं होता था. क्यों ? शय इसकी अपनी वज़ह थी.

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