Friday, October 13, 2017
नहीं लगता मन उसके गांव
विवाह कितने साल पहले हुआ
इसके लिये उंग्लियो का सहरा लेना पडता है
पीछे पलट कर देखना पडता है
सीते पिरोते अपने होने के सच को
एक बार फ़िर याद करना पडता है
सालों पहले से बिसर गये अपने नाम को
बार बार गोहराना पडता है
डूबते दिनो के दर्द को याद करने से गुजरना पड्ता है
पलट कर देखने पर
बाबुल का घर और उसका लाड एक खीझ पैदा करता है
पांव मानते ही नहीं जिद में रह्ते हैं
वहीं जाने की कवायद में जुते रह्ते हैं
हर बार जाने कितनी ही मिन्नतों
आग्रहों का सहारा लेना पडता है
कि मन और पांव दोनों को राहत मिले
उठते – बैठते सोचती हूं
तानों- उलाहनों से भरी चौखट
आखिर कैसे दे सकती है सुकून
कैसे बज सकती है रुनझुन
कैसे हो सकती है
किसी फ़िल्मी हेरोईन सी मुस्कान
कैसे हो सकता है ये सब
पूरे मन से , भाव से
जब मन और तन दोनों पर रस्सियों से गतर दिये जाने
का आभास हो
कैसे लग सकता है वह घर अपन
इसलिये
कभी नहीं लगा मुझे पिया का घर प्यारा
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