नासिरा शर्मा को सुनते हुए ....................
जन संस्कृति मंच अक्सर तमाम मतभेदोँ ,बहस मुबाहिसोँ के बाद भी हमेँ एक बेहतर मानसिक खुराक देने का आयोजन कर ही देता है . 17/9/18 ऐसा ही एक मौका था जब हम उर्दू अदब मेँ बायीँ पसली यानि उर्दू साहित्य मेँ औरत पर चर्चा करने के लिये लखनऊ के निशात गंज स्थित कैफी आज़मी सभागार मेँ इकट्ठे हुए थे. यहाँ जुटना इस बात की सूचना थी कि अब सभी समाजोँ मेँ औरत सामूहिक रूप से अपने मुद्दोँ पर जुटकर सोच रही है और बता रही है कि बहुतेरी चुप्पियाँ या तो टूट चुकी हैँ या फिर वो तोडने की मुहिम मेँ है. यह भी कि वह अपनी चौखटोँ के पार भी दुनिया देख और समझ रही है
......लेकिन इस सेमिनार की मुख्य अतिथि ने अपने उद्बोधन मेँ स्त्री के सन्द्र्भोँ को जिस तरह रेखांकित किया वह हतप्रभ करने वाली बात थी . सच कहूँ तो उनकी बातोँ ने स्त्री , उसकी पहचान, उसके व्यक्ति होने की लडाई की इतने सालोँ की कवायद को कई मायनोँ मेँ सीधे सीधे कटघडे मेँ खडा कर दिया. मुझे उनकी बातोँ ने पूरी तरह कई स्तरोँ पर निराश किया. यह निराशा सिर्फ मुझे हुई या फिर औरोँ को भी ये मुझे पता नहीँ पर औरतोँ के साथ काम करते हुए जितना भी मैने सीखा समझा और जाना है उसमेँ नासिरा जी की बहुतेरी बातेँ फिट नहीँ बैठती या कहूँ कि कोई भी बात न तो जँचती है न गले से उतरती है. मै समझ नहीँ पा रही कि उम्र के इस पडाव पर आकर नासिरा शर्मा इस तरह एक स्त्री के रूप मेँ अपनी हार व्यक्त कर रही थीँ , विवशता व्यक्त कर रहीँ थीँ या फिर उनके तजुर्बोँ ने उन्हेँ य्ह बताया कि स्त्री जैसी है उसे उससे निकलने की जरूरत नहीँ? या फिर बात भारत जैसे देश मेँ अल्प्संख्यक समाज की स्त्री को रेखांकित कर गयी ??? बहर हाल, उनकी बात का जो भी मतलब रहा हो लेकिन नयी स्त्री, नये स्त्री विमर्श और नयी चेतना वाली जेनेरेशन की व्याख्याओँ मेँ उनकी बात आलोचनाओँ के घेरे मेँ अधिक और ग्रहणीय कम ही लगती रही . क्योँकि वह बार बार नयी स्त्री , उसके लेखन , उसके काम और स्त्री विमर्श की अगुआ स्त्रियोँ को कटघरे मेँ खडा करती रही थीँ.
मुझे लगता है नासिरा जी के वक्तव्योँ पर आने से पहले कुछ अपनी बातेँ भी रखती चलूँ ताकि भारत के अन्दर नयी स्त्री, उसका लेखन, उसके विचार को रेखांकित कर सकूँ . अपनी बात इसलिये भी कि उर्दू अदब , अल्प सँख्यक मुस्लिम समाज , उस समाज की स्त्री इन सब तक पहुँचना मेरे लिये एक समय तक टेढी खीर ही थी. स्वतंत्र भारत मेँ जन्मी मैँ ने बहुत बाद मेँ जाना कि भारत एक जटिल समाजोँ के सामुच्च्य से बना देश है. बहुत बाद मेँ ही मुझे यह भी पता चला कि इन जटिल समाजोँ के बीच एक बडी मानसिक दूरी भी है. इसलिये जब हम भारत मेँ स्त्रियोँ, उनकी स्वतंत्रता , की बात करते हैँ तो वो समाज, उसके नियम कानून और उन समाजोँ की विशेषता और धर्म अनायास ही इस पूरी बात चीत का हिस्सा ब्नन जाते हैँ . नासिरा जी की बातोँ मेँ मुझे धर्म और राजनीति दोनोँ के प्रभाव और दबाव दोनोँ साफ साफ नज़र आ रहा था. उनकी बातोँ मेँ मुझे अल्प्संख्यक समाज का गुस्सा, तेवर और अपनी अलग पह्चान बनाये रखने की जिद भी दीखी.
तमाम विश्लेषनोँ के बावजूद यह भी सच है कि अपने समाज, अपने समूह, वर्ग अपने इलाके मेँ, धर्म –जाति और अपने साहित्य मेँ औरत पर चर्चा करना दुनिया का सबसे पेचीदा और दुरूह काम है और जोखिम भरा भी. ऐसा इसलिये है क्योंकि औरत लम्बे समय से एक ऐसे जीवन की आदी रही है जिसमेँ उसके स्वतंत्र होने की चेतना कहीँ गुम थी. वह आमतौर पर एक बेहतर श्रमिक थी और आर्थिक रूप से पराश्रित भी और अब वह जब इसे तोडने की कवायद मेँ जुटी है तो अक्सर लोगोँ के सामने उसे और उसकी परिस्थितियोँ के बेहतर और सटीक रेखांकन का संकट खडा हो जाता है . पित्रिसत्तात्मक ढांचे मेँ पले बढे हम जाने अनजाने कई बारीक बातोँ को या तो समझ नहीँ पाते या फिर समझते हुए भी उसको रेखांकित नहीँ कर पाते. अब जबकि स्त्री पढ रही है ताकि वह अपने इंसान होने के अर्थ को न केवल जान सके बल्कि अपने अनुभवोँ के माध्यम से अप्नी परिस्थितियोँ का आंकलन कर सके . वह लिख रही है ताकि वह समाज मेँ अपनी स्थिति उसकी जटिलता को लोगोँ के सामने रख सके , लोगोँ को बता सके. वह अब बोल भी रही है ताकि वह अपनी सोच और वास्तविक स्थिति वह इन का सही खाका खाका खीँच सके.किंतु फिर भी उसके इर्द गिर्द कई संकट हैँ. वह इजन संकटोँ से जूझ रही है, ....इसी लिये जब मैँ जोखिम भरा कहती हूँ तो मेरे सामने स्त्री, उसके जीवन, उसकी खामोशी, उसकी आवाज़, उसके संघर्ष और उसके प्रतिकार के बहुत से चित्र उभर आते हैँ जो धर्म , समाज, जाति और समूह द्वारा कभी प्रतिबन्धित कभी बाधित तो कभी पूरी तरह नजरअन्दाज किये जाते रहे हैँ. लम्बे समय तक स्त्री ने या तो सवाल किये ही नहीँ और अगर किये भी तो उसे चुप करा दिया गया. इसलिये जब कलमकार जब उसके पक्ष को लेकर सामने आता है, उसकी बात लिखता है तो वह कई अर्थोँ मेँ महत्वपूर्ण हो जाता है.
. ... और जब मैँ चर्चा के इस सिलसिले मेँ दुरूह और पेचीदा शब्द का प्रयोग करती और कहती हूँ तो मुझे स्त्री और स्त्रीवादी दोनोँ की मुश्किलेँ भारत जैसे बहु जातिय , बहु वर्गीय और बहु धर्मीय समाज वाले देश मेँ साफ साफ नजर आती है. .....जब् यह चर्चा उस अल्प संख्यक कहे जाने वाले वर्ग के हवाले से हो तब तो यह पेचीदगियाँ संकरे सामाजिक राजनीति हलकोँ से गुजरते हुए कई और भी कठिनाइयाँ पैदा करती हैँ. दरअसल स्त्री पर चर्चा उस पूरी सामाजिक संरचना पर चर्चा है जिसमेँ स्त्री येन केन प्रकारेण जीती आयी है .........और किसी भी देश मेँ अल्प संख्यक समाज की स्त्री , उसके अधिकार पर चर्चा उस देश की सत्ता , सामाजिक आर्थिक सरोकारोँ और कई तरह की जटिल स्थितियोँ पर चर्चा बन जाती है. मुझे लगता है कम से कम भारत के सन्दर्भ मेँ बहुत कुछ ऐसा ही है.
मैँ यह बात अनायास नहीँ कर रही बल्कि इस सेमिनार की मुख्य अतिथि और अदब मेँ बाईँ पसली जैसे संकलन को लेकर आने वाली एक बडी लेखिका नासिरा शर्मा को सुनते हुए इस बात का आभास मुझे साफ साफ होता है. मुझे नासिरा जी के लेक्चर के कई पहलुओँ ने हतोत्साहित किया जिसमेँ स्त्री, उसके लेखन की आलोचना के साथ ..... नई राजनीति से उलझी उनकी टिप्पणियोँ ने जो सन्देश दिया वह अन्दर तक हिला देने के लिये काफी था.
सच कहूँ तो मैनेँ अपनी जेनेरेशन की अल्प संख्यक स्त्रियोँ की आवाज़ मेँ वह ताप सुनी थी जो मेरी आवाज़ से मेल खाती थी. मुझे उनमेँ वही छट्पटाहट दिखती थी जो कभी मेरे अन्दर भी उछाल मारती थी. उनकी हिम्मात अक्सर मुझे हौसला देती थी कि हम अकेले नहीँ .... सच ! मुझे मेरी वो तीन मुस्लिम दोस्त याद आ रही थीँ जो बात बात पर अपनी सामाजिक जकडन को , पढने के लिये अपनी जिद्दोजहद को बार बार बयान करती थीँ. वह अक्सर कहती थीँ कि ‘’ हमने कितनी चौखटेँ , खिडकियाँ और कितने ही दरवाजे तोडे हैँ यह दूसरे क्या जानेँ. अपनी जिद्दोजहद का बखान करते हुए कई बार बताती थीँ कि उनकी दिक्कतेँ क्या हैँ ,तब मुझे पता चला था कि वह भी उन्हीँ स्थितियोँ से लड रही हैँ जिससे हम सब गुजर रहे हैँ. उन्होँने ही मेरा परिचय उर्दू की कहानियोँ, उसमेँ महिलाओँ खासकर मुस्लिम महिलाओँ के किरदारोँ से कराया था. उन्होनेँ ही मुझे बहुतेरी लेखिकाओँ के नाम बताये थे और पात्रोँ के चरित्रो के रेखांकन की बात की थी. वर्ना मेरा नाता ऊर्दू अदब से दूर की दुआ सलाम जैसा ही रहा था.
लिपि न आने की दिक्कतोँ के कारण अक्सर उर्दू साहित्य तक पहुँचने का सहारा मेरे लिये अनुवाद ही रहा है. मुझे याद है पहली बार उर्दू साहित्य को छुआ तो इस्मत चुगताई की आत्मकथा “ कागजी है पैराहन ‘’ पढी ....और लगा कि इस साहित्य की महिला कलमकारोँ मेँ कुछ बात है ....कागजी है पैराहन पढ्ते हुए बार बार दिल ने कहा - क्या लिखती है ये महिला ! फिर तो खोज खोज कर वो सारे अनुवाद पढ डाले जो इस्मत चुगताई ने लिखे थे. मुझे हमेशा लगा कि मेरी जिन बातोँ का जवाब मेरे घर की औरतेँ नहीँ दे पातीँ वह इस्मत देती हैँ और बस मैँ उनकी मुरीद बनती चली गयी ........... फिर एक दिन कुर्तुलैन हैदर का एक कहानी संग्रह हाथ लग गया “ अगले जनम मोहे बिटिया न कीज़ो’’ के नाम से और फिर उनको भी पढ डाला और यह सिलसिला चलता रहा ..........फिर एक लगाम लग गयी क्योंकि भाषा आडे आ गयी .......इस बीच जिसे पढा वो थीँ नासिरा शर्मा जो हिन्दी और उर्दू दोनोँ मेँ समान रूप से सम्मानित रहीँ.... जिनकी ‘ठीकरे की मंगनी’ ने मुझे अपना दिवाना बना दिया था फिर शल्मली फिर बहुत कुछ ......और अंत मेँ तस्लीमा को खूब पढा. इस तरह उर्दू अदब की बायीँ पसलियोँ ने ही मुझे बताया कि बायीँ पसली ही असली ताकत है, उसकी कलम मेँ दम है, वह अपनी बात बेबाकी से रखना जानती है. वह एक इंसान है इस मुहिम की आवाज़ है.
.......और तसलीमा ने तो सबको पीछे छोड बहुत कुछ कह डाला . तस्लीमा एक स्वतंत्र चेता स्त्री है उसका लेखन अक्सर हमेँ बताता है कि किसी भी समाज की स्त्री समाज का स्वत्ंत्र हिस्सा है ही नहीँ . वह अलग अलग समाजोँ मेँ अलग अलग पहचान लिये उस खूँटे का वह सिरा है जिसे आवश्यक रूप से बान्धे रखने की कवायद हमेशा से की जाती रही है. ....इसलिये जब भी उसे पढती या समझने की कोशिश करती हूँ मुझे मार्क्स याद आते हैँ. मार्क्स स्त्री को लेकर जो मूल बात कहता है उसने मुझे उसका मुरीद बना दिया. मार्क्स कह्ता है कि स्त्री दुनिया का अंतिम उपनिवेश है. शुरुआती दौर मेँ मुझे अक्सर यह समझ्ने मेँ कठिनाई होती थी कि मार्क्स ऐसा क्योँ कहता है ? क्या मैँ भी उपंवेश हूँ? माँ भी ? .....और मैँ विचलित होती रही लेकिन धीरे धीरे स्त्री को समझते हुए यह बात समझ मेँ आयी कि वह ऐसा क्योँ कहता है और उसकी बात का असल मर्म तसलीमा और उसके जैसी कई लेखिकाओँ को पढते हुए समझ आया. ............तो मैने बायीँ अदब की बायीँ पसलियोँ को कुछ इस अन्दाज़ से जाना था. .............इस तरह अपनी इस पूरी समझ और अनुभव के साथ इस चर्चा मेँ शामिल होने और नासिरा जी को सुनने पहुँची थी. कार्ड पर नाइस हसन का नाम देखकर मेरे मन मेँ यह सवाल भी उठा कि क्या इस्लाम मेँ स्त्री को लेकर जो सामयिक चर्चायेँ हैँ, स्त्री अधिकारोँ को लेकर जो सामयिक माँग है और जो वास्तविक स्थितियाँ हैँ क्या वह भी उर्दू अदब का हिस्सा बन रही है ? मैँ यह भी जानने को उत्सुक थी कि उर्दू साहित्य मेँ स्त्री की कलम कितनी बेबाक, कितनी निडर है और यह भी कि इस खाने की कलम कार औरत को लेकर अपनी चर्चायेँ किस मुकाम तक ले जाती हैँ. पर कुछ ऐसी निराशा हाथ लेकर लौटी कि तब से सोच रही हूँ कि आखिर क्या हुआ जो उम्र के इस पडाव पर नासिरा शर्मा वहीँ खडी दिख रही हैँ जहाँ से स्त्री ने अपने अधिकारोँ की बात शुरु की थी .............क्योँकि वो कहती हैँ
‘’ नयी जेनेरेशन की स्त्रियोँ ने जो मर्द के खिलाफ जो एक गद्द लिखना शुरु किया है वो गद्द नहीँ वो विलाप है वो विलाप हम कर सक्ते हैँ , हम साथ भी दे सक्ते हैँ लेकिन आर्ट का बदा नुकसान हो जाता है ................
कहानियाँ मैँ पढती हूँ नयी जेनेरेशन की वो बडी खूबसूरती से बयान होते होते एक दम से नारे मेँ बदल जाती है. तो धक्का लगता है या तो स्त्री विमर्श कर लो या फिर गद्द लिख लो ........
और वो बहादुर औरतेँ हैँ कहाँ जो एक वक्त मेँ सबको धराशायी कर देती हैँ .. लाओ..ये मुट्ठी भर औरतेँ जो बैठी हैँ जो बडे बडे दफ्तरोँ मेँ दिख जाती हैँ दिख जाती हैँ ....
मर्दोँ को छोड दिया गया है .........उनकी , कुंठायेण क्या हैँ .......उनके गम क्या हैँ परेशानियाँ क्या हैँ वो क्या सोचते हैँ उनको तो हमदर्दी से हम इंसान समझ् कर हैन्ड्ल ही नहीँ करते .हम पैदा करते हैँ मर्दोँ को और हम अपने अगेंस्ट तालीम देते हैँ उंको कि बेटा जब बीवी आये तो ‘’
हसरतें
Friday, October 5, 2018
Friday, October 13, 2017
नहीं लगता मन उसके गांव
विवाह कितने साल पहले हुआ
इसके लिये उंग्लियो का सहरा लेना पडता है
पीछे पलट कर देखना पडता है
सीते पिरोते अपने होने के सच को
एक बार फ़िर याद करना पडता है
सालों पहले से बिसर गये अपने नाम को
बार बार गोहराना पडता है
डूबते दिनो के दर्द को याद करने से गुजरना पड्ता है
पलट कर देखने पर
बाबुल का घर और उसका लाड एक खीझ पैदा करता है
पांव मानते ही नहीं जिद में रह्ते हैं
वहीं जाने की कवायद में जुते रह्ते हैं
हर बार जाने कितनी ही मिन्नतों
आग्रहों का सहारा लेना पडता है
कि मन और पांव दोनों को राहत मिले
उठते – बैठते सोचती हूं
तानों- उलाहनों से भरी चौखट
आखिर कैसे दे सकती है सुकून
कैसे बज सकती है रुनझुन
कैसे हो सकती है
किसी फ़िल्मी हेरोईन सी मुस्कान
कैसे हो सकता है ये सब
पूरे मन से , भाव से
जब मन और तन दोनों पर रस्सियों से गतर दिये जाने
का आभास हो
कैसे लग सकता है वह घर अपन
इसलिये
कभी नहीं लगा मुझे पिया का घर प्यारा
Friday, August 4, 2017
अनामिका, कल्पित और अभद्र पोस्ट
अब तक अनामिका का नाम बस एक सुना हुआ नाम था मेरे लिये इस ग्यान के साथ कि वह हिन्दी की एक कवियत्री हैं. लेकिन कल एक कवि की वाल ने मुझे अनामिका के बारे में जानने और उन्हें पढने को मजबूर किया क्योंकि उस कवि ने कुछ ऐसा लिखा था जिसे लेकर फ़ेसबूक पर नाराजगियों और विरोध का दौर शुरू हो गया था. अमूमन हर कवियत्री और उससे जुडी प्रबुद्ध महिलायें उस कवि को लानतें मलानतें भेज रही थीं. जब पडताल करनी शुरू कि तब पता लगा कि कवि महोदय ने भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के संदर्भ को लेकर ना केवल अनामिका के चुनाव पर प्रश्न उठाये थे बल्कि उनकी निजी जिन्दगी को भी घसीट लिया है. कवि का नाम है कृष्ण कल्पित और वो अपनी वाल पर लिखते हैं,
“ अनामिका पिछले एक वर्ष से बहुत युवा कवियों को अपनी कविता के साथ घर बुलाती रही हैं. उन्होंने उनमें से एक जवान कवि चुनाव किया है. इसमें किसे को क्या ऐतराज हो सकता है ? यह उनका व्यक्तिगत फ़ैसला है , जिसका हमें स्वागत करना चाहिये. ”
इसके बाद वो हैश ट्रैक का निशान बनाकर भारत भूष्ण पुरस्कार _ २०१७ लिखते हैं
और फ़िर लिखा जाता है – किसी को दाढी वाला पसन्द है और किसी को सफ़ाचट. अपनी अपनी सौन्दर्याभिरुचि है.
इसीलिये इस संदर्भ में पहले बात अनामिका और उनके निजी निर्णय की. अनामिका का निजी जीवन कैसा और क्यों रहा इसमें मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है और ना ही दिल चस्पी इसमें है कि उन्होंने फ़िलहाल किसका चुनाव किया क्योंकि कोई भी स्त्री या पुरुष अपने लिये किसी का भी चुनाव कर सकता है. वह जवान भी हो सकता है बूढा भी, दाढी वाला भी और सफ़ाचट भी क्योंकि सबकी अपनी अपनी ......... इसीलिये उनका चुनाव उनके निजी जीवन, निजी फ़ैसले का हिस्सा है और अगर कोई उनके इस चुनाव पर अभद्र टिप्पणी करता है , मज़ाक उडाता है और इस तरह की पोस्ट लिखता है तो उसको सभ्य लोगों सहित स्त्रियों के विरोध का भागी बनना ही पडेगा और इसी लिये कल्पित की इस पोस्ट की पूरे तौर पर भरपूर आलोचना स्त्री, उसके आत्म सम्मान, और उसके चुनाव के संदर्भ में जरूर होनी चाहिये और भरपूर होनी चाहिये क्योंकि उन्होंनें अपनी पोस्ट में अनामिका के लिये जिन शब्दों, जिन व्यंजनाओं और जिन भावों का चुनाव किया है वह बेहद निर्लज्ज, भद्दे और अपमानजनक है. आप देखें, “उन्होंने उनमें से एक जवान कवि का चुनाव किया है’” और फ़िर लिखा जाता है – “किसी को दाढी वाला पसन्द है और किसी को सफ़ाचट. अपनी अपनी सौन्दर्याभिरुचि है” यदि यह मान भी लिया जाये कि अनामिका ने इस पुरस्कार देने, कविता का चुनाव करने और दबाव बनाने में अपनी कोई भूमिका निभाई भी है तो भी उनके निजी जीवन, उसके फ़ैसले को लेकर इस तरह की भाषा और भाव का खुलेआम प्रयोग करना इस बात का प्रमाण है कि कल्पित स्त्री संदर्भों को लेकर एक संवेदन हीन व्यक्ति हैं और इस लिहाज से उनकी कविता भी आधी आबादी की कविता होने में संदेह पैदा करती है. बहर हाल कल्पित के इस कृत्य के लिये उनकी भरपूर आलोचना हो रही है, होगी और होनी भी चाहिये. एक स्त्री होने के नाते, स्त्री संदर्भों के लिये काम करने के नाते मैं कल्पित की इस पोस्ट की कडी निंदा करती हूं. पर सोचती हूं कि आखिर कल्पित को यह मौका मिला क्यों? और क्या वजह थी कि कल्पित ने अनामिका के निजी जीवन पर चोट करने की जुर्रत की..........क्योंकि कल्पित कोई मूढ व्यक्ति नहीं हैं. वह कवि हैं और खुद कहते हैं कि यह अश्लील समय है तो फिर वह इतने अश्लील और अभद्र क्यों और कैसे हो गये ? आखिर भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार को लेकर वह इतने चोटिल क्यों हो गये ? क्या वजह थी कि उन्होंने चोट करने के लिये अनामिका को ही चुना ? और समिति के बाकी सदस्यों पर कोई सवाल नहीं उठाये ? यह ना केवल सोचने वाली बात है बल्कि इस पुरस्कार के संदर्भ को लेकर पडताल करने वाली बात भी है .
भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार तार सप्तक के कवि भारत भूषण अग्रवाल के नाम पर उनकी पत्नी बिन्दू जी ने इसे १९७८ या ७९ में आरंभ किया था. मंशा यह थी कि इस पुरस्कार के बहाने हर साल एक युवा कवि को पुरस्कृत और प्रोत्साहित किया जायेगा. मैं जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढती थी तब मैं इस पुरस्कार के बारे में परिचित हुई. मेरे ही आस पास के एक दो मित्रों को जब यह पुरस्कार मिला तो अचम्भे से मैं उन्हें देखती रही और कई कानाफ़ूसियों और विवादों को सुनती रही. यह बात मैं १९९० - ९१ की बता रही हूं. इसलिये हिन्दी कविता, उससे जुडे पुरस्कार और विवाद का लम्बा नाता है इस बात से मैं पूरी तरफ़ वाकिफ़ हूं. मैं जिस वक्त का जिकर कर रही हूं उस वक्त भारत भूषण पुरस्कार को लेकर जो चौकडी होती थी उसमें कुछ ऐसे नाम थे जिनके सामने जाने और खडे होने में हिन्दी साहित्य के लोगों की आज भी घिग्घी बंध जाती है. और मैं उसे चौकडी इसलिये कहती हूं क्योंकि वो लोग किसी सामंत की तरह मनमाने तरीके से कविताओं का चुनाव करते और उसे साल की कविता और कवि को साल का कवि घोषित कर देते. ......और मजे की बात तो यह है कि उनकी नज़र में कवियत्रियां कम ही आती थीं जबकि महिलायें उस दौर में भी लिख रही थीं और अच्छा लिख रही थीं. इस तरह भारत भूषण पुरस्कार की जहां तक बात है तो इस पुरस्कार को देने में हमेशा एक चौकडी का हाथ रहा है. चौकडी के सदस्यों का नाम जरूर बदलता रहा है लेकिन तरीका कमोबेश एक ही रहा है. समिति की निणर्नायक मंडल में फ़िलहाल – अशोक बाजपेयी, अरुंण कमल, उदय प्रकाश अनामिका और पुरुषोत्तम अग्रवाल हैं जो हर वर्ष बारी बारी से वर्ष की सर्व श्रेष्ठ कविता का चुनाव कर उन्हें पुरस्कृत करते हैं. कहा जा रहा है कि इस बार अनामिका की भूमिका प्रमुख थी.
जहां तक ताजा संदर्भ का सवाल है यहां मैं यह नहीं जानती कि जिस कविता और कवि का चुनाव किया गया है उसमें और अनामिका के व्यक्तिगत फ़ैसले में कितना लिंक है लेकिन एक बात तो तय है कि यदि उनका निजी जीवन और उसका फ़ैसला उनके निजी जीवन के दायरों से निकल कर लोक जीवन के किसी हिस्से, विधा या अन्य को प्रभावित करेगा तो एक बात वैधानिक चेतावनी की तरह याद रखना होगा कि तब यह सबकुछ विवाद का हिस्सा होगा ही. यह तब और भी होगा जब चुनाव में अहम भूमिका निभाने का भार होगा जैसा कि कहा जा रहा है. .....
पर मुझे यहां एक बात सोचने पर मजबूर कर रही है कि माना कि कविता के चुनाव में अनामिका की अहम भूमिका थी लेकिन अन्य सदस्य क्या माटी के माधो बने बैठे थे ? वो क्या कर रहे थे ? क्या वो अनामिका से डर रहे थे या फ़िर अनामिका इतनी प्रभावशाली हैं कि उनके प्रभाव के आगे उनकी एक ना चली? और अगर ऐसा नहीं है तो मतलब कि जो चुनाव किया गया उसमें सबकी सहमति थी? फ़िर अनामिका की आलोचना पर सब चुप क्यों हैं ? अशोक बाजपेयी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, अरुण कमल और उदय प्रकाश कहां हैं? अगर वो चुप हैं तो मतलब वो कल्पित का कहीं ना कहीं समर्थन कर रहे हैं ............अगर नहीं तो समिति के सदस्य के रूप में सामने आकर कहें कि यह चुनाव हम सब का है और इस तरह की टिप्पणी का हम ना केवल विरोध करते हैं बल्कि ऐसे कवियों का बायकाट करते हैं .............लेकिन पिछले कई दिनों से ऐसा कुछ नहीं हुआ ...............
मैं इसके कई मतलब निकाल रही हूं. मतलब यह कि अनामिका अकेली हैं और उनका चुनाव उनका निज़ी फ़ैसला होते हुए भी उनके साथ के लोगों ( समिति के सद्स्यों ) को भी हज़म नहीं हुआ. मतलब यह कि बडी बडी बातें करने और लिखने वाले अंतत: मर्द वादी ही हैं. मुझे याद है मेरे विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के एक प्रोफ़ेसर जो इस पुरस्कार से जुडे रहे हैं और जिनके दो शिष्यों को यह पुरस्कार एक के बाद एक मिला भी ...अपनी महिला मित्रों के लिये खासे चर्चित रहे हैं ना केवल इलाहाबाद में बल्कि साहित्य जगत में भी और मैने उनके सहयोगियों को उनके पक्ष में खडे होते और साथ देते हुए देखा है ............. तो अपने फ़ैसलों के साथ अनामिका अकेले क्यों हैं ? क्यों उनके ऊपर होने वाली अभद्र टिप्प णी पर साहित्य के पुरोधा अपनी कलम नहीं उठा रहे हैं ? जो भी हो तमाम बातों के बावजूद भी हिन्दी साहित्य और उसके लेखकों को जेंडर सेंस्टिव होने की जरूरत है , उन्हें इस संदर्भ में एक कडी ट्रेनिंग की भी जरूरत है वर्ना वो हमारा वक्त वैसे ही लिखेंगे जैसे लिख रहे हैं और अनामिका जैसी लेखिकाओं को सजगता से चलते हुए बेहद निष्पक्शः होकर अपना समय लिखना होगा और अपना फ़ैसला लेना होगा .....(मैं निजी फ़ैसले की बात नहीं कर रही) कल्पित और मौन रहकर उनके साथ खडे लोगों को हराने का यही तरीका होना चाहिये
डा. अलका
“ अनामिका पिछले एक वर्ष से बहुत युवा कवियों को अपनी कविता के साथ घर बुलाती रही हैं. उन्होंने उनमें से एक जवान कवि चुनाव किया है. इसमें किसे को क्या ऐतराज हो सकता है ? यह उनका व्यक्तिगत फ़ैसला है , जिसका हमें स्वागत करना चाहिये. ”
इसके बाद वो हैश ट्रैक का निशान बनाकर भारत भूष्ण पुरस्कार _ २०१७ लिखते हैं
और फ़िर लिखा जाता है – किसी को दाढी वाला पसन्द है और किसी को सफ़ाचट. अपनी अपनी सौन्दर्याभिरुचि है.
इसीलिये इस संदर्भ में पहले बात अनामिका और उनके निजी निर्णय की. अनामिका का निजी जीवन कैसा और क्यों रहा इसमें मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है और ना ही दिल चस्पी इसमें है कि उन्होंने फ़िलहाल किसका चुनाव किया क्योंकि कोई भी स्त्री या पुरुष अपने लिये किसी का भी चुनाव कर सकता है. वह जवान भी हो सकता है बूढा भी, दाढी वाला भी और सफ़ाचट भी क्योंकि सबकी अपनी अपनी ......... इसीलिये उनका चुनाव उनके निजी जीवन, निजी फ़ैसले का हिस्सा है और अगर कोई उनके इस चुनाव पर अभद्र टिप्पणी करता है , मज़ाक उडाता है और इस तरह की पोस्ट लिखता है तो उसको सभ्य लोगों सहित स्त्रियों के विरोध का भागी बनना ही पडेगा और इसी लिये कल्पित की इस पोस्ट की पूरे तौर पर भरपूर आलोचना स्त्री, उसके आत्म सम्मान, और उसके चुनाव के संदर्भ में जरूर होनी चाहिये और भरपूर होनी चाहिये क्योंकि उन्होंनें अपनी पोस्ट में अनामिका के लिये जिन शब्दों, जिन व्यंजनाओं और जिन भावों का चुनाव किया है वह बेहद निर्लज्ज, भद्दे और अपमानजनक है. आप देखें, “उन्होंने उनमें से एक जवान कवि का चुनाव किया है’” और फ़िर लिखा जाता है – “किसी को दाढी वाला पसन्द है और किसी को सफ़ाचट. अपनी अपनी सौन्दर्याभिरुचि है” यदि यह मान भी लिया जाये कि अनामिका ने इस पुरस्कार देने, कविता का चुनाव करने और दबाव बनाने में अपनी कोई भूमिका निभाई भी है तो भी उनके निजी जीवन, उसके फ़ैसले को लेकर इस तरह की भाषा और भाव का खुलेआम प्रयोग करना इस बात का प्रमाण है कि कल्पित स्त्री संदर्भों को लेकर एक संवेदन हीन व्यक्ति हैं और इस लिहाज से उनकी कविता भी आधी आबादी की कविता होने में संदेह पैदा करती है. बहर हाल कल्पित के इस कृत्य के लिये उनकी भरपूर आलोचना हो रही है, होगी और होनी भी चाहिये. एक स्त्री होने के नाते, स्त्री संदर्भों के लिये काम करने के नाते मैं कल्पित की इस पोस्ट की कडी निंदा करती हूं. पर सोचती हूं कि आखिर कल्पित को यह मौका मिला क्यों? और क्या वजह थी कि कल्पित ने अनामिका के निजी जीवन पर चोट करने की जुर्रत की..........क्योंकि कल्पित कोई मूढ व्यक्ति नहीं हैं. वह कवि हैं और खुद कहते हैं कि यह अश्लील समय है तो फिर वह इतने अश्लील और अभद्र क्यों और कैसे हो गये ? आखिर भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार को लेकर वह इतने चोटिल क्यों हो गये ? क्या वजह थी कि उन्होंने चोट करने के लिये अनामिका को ही चुना ? और समिति के बाकी सदस्यों पर कोई सवाल नहीं उठाये ? यह ना केवल सोचने वाली बात है बल्कि इस पुरस्कार के संदर्भ को लेकर पडताल करने वाली बात भी है .
भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार तार सप्तक के कवि भारत भूषण अग्रवाल के नाम पर उनकी पत्नी बिन्दू जी ने इसे १९७८ या ७९ में आरंभ किया था. मंशा यह थी कि इस पुरस्कार के बहाने हर साल एक युवा कवि को पुरस्कृत और प्रोत्साहित किया जायेगा. मैं जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढती थी तब मैं इस पुरस्कार के बारे में परिचित हुई. मेरे ही आस पास के एक दो मित्रों को जब यह पुरस्कार मिला तो अचम्भे से मैं उन्हें देखती रही और कई कानाफ़ूसियों और विवादों को सुनती रही. यह बात मैं १९९० - ९१ की बता रही हूं. इसलिये हिन्दी कविता, उससे जुडे पुरस्कार और विवाद का लम्बा नाता है इस बात से मैं पूरी तरफ़ वाकिफ़ हूं. मैं जिस वक्त का जिकर कर रही हूं उस वक्त भारत भूषण पुरस्कार को लेकर जो चौकडी होती थी उसमें कुछ ऐसे नाम थे जिनके सामने जाने और खडे होने में हिन्दी साहित्य के लोगों की आज भी घिग्घी बंध जाती है. और मैं उसे चौकडी इसलिये कहती हूं क्योंकि वो लोग किसी सामंत की तरह मनमाने तरीके से कविताओं का चुनाव करते और उसे साल की कविता और कवि को साल का कवि घोषित कर देते. ......और मजे की बात तो यह है कि उनकी नज़र में कवियत्रियां कम ही आती थीं जबकि महिलायें उस दौर में भी लिख रही थीं और अच्छा लिख रही थीं. इस तरह भारत भूषण पुरस्कार की जहां तक बात है तो इस पुरस्कार को देने में हमेशा एक चौकडी का हाथ रहा है. चौकडी के सदस्यों का नाम जरूर बदलता रहा है लेकिन तरीका कमोबेश एक ही रहा है. समिति की निणर्नायक मंडल में फ़िलहाल – अशोक बाजपेयी, अरुंण कमल, उदय प्रकाश अनामिका और पुरुषोत्तम अग्रवाल हैं जो हर वर्ष बारी बारी से वर्ष की सर्व श्रेष्ठ कविता का चुनाव कर उन्हें पुरस्कृत करते हैं. कहा जा रहा है कि इस बार अनामिका की भूमिका प्रमुख थी.
जहां तक ताजा संदर्भ का सवाल है यहां मैं यह नहीं जानती कि जिस कविता और कवि का चुनाव किया गया है उसमें और अनामिका के व्यक्तिगत फ़ैसले में कितना लिंक है लेकिन एक बात तो तय है कि यदि उनका निजी जीवन और उसका फ़ैसला उनके निजी जीवन के दायरों से निकल कर लोक जीवन के किसी हिस्से, विधा या अन्य को प्रभावित करेगा तो एक बात वैधानिक चेतावनी की तरह याद रखना होगा कि तब यह सबकुछ विवाद का हिस्सा होगा ही. यह तब और भी होगा जब चुनाव में अहम भूमिका निभाने का भार होगा जैसा कि कहा जा रहा है. .....
पर मुझे यहां एक बात सोचने पर मजबूर कर रही है कि माना कि कविता के चुनाव में अनामिका की अहम भूमिका थी लेकिन अन्य सदस्य क्या माटी के माधो बने बैठे थे ? वो क्या कर रहे थे ? क्या वो अनामिका से डर रहे थे या फ़िर अनामिका इतनी प्रभावशाली हैं कि उनके प्रभाव के आगे उनकी एक ना चली? और अगर ऐसा नहीं है तो मतलब कि जो चुनाव किया गया उसमें सबकी सहमति थी? फ़िर अनामिका की आलोचना पर सब चुप क्यों हैं ? अशोक बाजपेयी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, अरुण कमल और उदय प्रकाश कहां हैं? अगर वो चुप हैं तो मतलब वो कल्पित का कहीं ना कहीं समर्थन कर रहे हैं ............अगर नहीं तो समिति के सदस्य के रूप में सामने आकर कहें कि यह चुनाव हम सब का है और इस तरह की टिप्पणी का हम ना केवल विरोध करते हैं बल्कि ऐसे कवियों का बायकाट करते हैं .............लेकिन पिछले कई दिनों से ऐसा कुछ नहीं हुआ ...............
मैं इसके कई मतलब निकाल रही हूं. मतलब यह कि अनामिका अकेली हैं और उनका चुनाव उनका निज़ी फ़ैसला होते हुए भी उनके साथ के लोगों ( समिति के सद्स्यों ) को भी हज़म नहीं हुआ. मतलब यह कि बडी बडी बातें करने और लिखने वाले अंतत: मर्द वादी ही हैं. मुझे याद है मेरे विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के एक प्रोफ़ेसर जो इस पुरस्कार से जुडे रहे हैं और जिनके दो शिष्यों को यह पुरस्कार एक के बाद एक मिला भी ...अपनी महिला मित्रों के लिये खासे चर्चित रहे हैं ना केवल इलाहाबाद में बल्कि साहित्य जगत में भी और मैने उनके सहयोगियों को उनके पक्ष में खडे होते और साथ देते हुए देखा है ............. तो अपने फ़ैसलों के साथ अनामिका अकेले क्यों हैं ? क्यों उनके ऊपर होने वाली अभद्र टिप्प णी पर साहित्य के पुरोधा अपनी कलम नहीं उठा रहे हैं ? जो भी हो तमाम बातों के बावजूद भी हिन्दी साहित्य और उसके लेखकों को जेंडर सेंस्टिव होने की जरूरत है , उन्हें इस संदर्भ में एक कडी ट्रेनिंग की भी जरूरत है वर्ना वो हमारा वक्त वैसे ही लिखेंगे जैसे लिख रहे हैं और अनामिका जैसी लेखिकाओं को सजगता से चलते हुए बेहद निष्पक्शः होकर अपना समय लिखना होगा और अपना फ़ैसला लेना होगा .....(मैं निजी फ़ैसले की बात नहीं कर रही) कल्पित और मौन रहकर उनके साथ खडे लोगों को हराने का यही तरीका होना चाहिये
डा. अलका
Saturday, January 21, 2017
कहने सुनने के लमहों से निकल कर
एक कोना रीता ही रह गया है
सूना सूना
कहने सुनने के लमहों से निकल कर
एक अंधेरी कोठरी पकड ली है
सुकून की ठंढ के लिये
सालों जिद की थी
अपने उगने के लिये
सब सील गयी है
छट्पटाहट दम दोडकर
चुप है
कहीं कोने में दुबकी पडी
कलम और शब्द
सब कैद हैं
उस लोहे की आलमारी में
जिसे खोलने में अब हाथ सिहर जाते हैं
और उंगलियां टेढी हो
विफ़र उठती हैं
अजीब वक्त है,
बदला बदला
अजीब जगह है
दुश्मन सरीखी
जो सारे शौक, हुनर और पसंद को
तहखाने में डाल देने को
आमादा कर
सलीका बताती है
और मुंह पर जबरन उंगली रख
चुप हो जाने को
बेहतर चरित्र का लाबाद ओढा
मुस्कुराती है
अजीब लोग हैं
बडी बडी डिग्रियों के साथ
अनपढ
कलम से चिढे
शब्द से डरे
सारे अधिकारों कानूनों से
अनजान
इस गहरे अवसाद
उसके घात के बाद भी
मन अभी जिन्दा है
सोचता है,
स्थितियों पर विचार करता हुआ
टपक भी जाता है
कौन समझेगा कि
एक अंधेरा कमरा फ़िर
जीना चहता है
फ़िर से उगने के लिये
अल्का
सूना सूना
कहने सुनने के लमहों से निकल कर
एक अंधेरी कोठरी पकड ली है
सुकून की ठंढ के लिये
सालों जिद की थी
अपने उगने के लिये
सब सील गयी है
छट्पटाहट दम दोडकर
चुप है
कहीं कोने में दुबकी पडी
कलम और शब्द
सब कैद हैं
उस लोहे की आलमारी में
जिसे खोलने में अब हाथ सिहर जाते हैं
और उंगलियां टेढी हो
विफ़र उठती हैं
अजीब वक्त है,
बदला बदला
अजीब जगह है
दुश्मन सरीखी
जो सारे शौक, हुनर और पसंद को
तहखाने में डाल देने को
आमादा कर
सलीका बताती है
और मुंह पर जबरन उंगली रख
चुप हो जाने को
बेहतर चरित्र का लाबाद ओढा
मुस्कुराती है
अजीब लोग हैं
बडी बडी डिग्रियों के साथ
अनपढ
कलम से चिढे
शब्द से डरे
सारे अधिकारों कानूनों से
अनजान
इस गहरे अवसाद
उसके घात के बाद भी
मन अभी जिन्दा है
सोचता है,
स्थितियों पर विचार करता हुआ
टपक भी जाता है
कौन समझेगा कि
एक अंधेरा कमरा फ़िर
जीना चहता है
फ़िर से उगने के लिये
अल्का
Sunday, June 21, 2015
आज ’फ़ादर्स डे’ है
फ़ेसबुक ने याद दिलाया कि आज ’फ़ादर्स डे’ है मतलब
पिता को याद करने का दिन. मेरे ७३ साल के पिता को याद करना मुझे कई मौसमों से गुजरने जैसा लगता है. उन्हें याद करना जैस जाडों की नर्म और गर्म धूप को याद करद्ने जैसा है, कई बार उन्हें याद करना जैसे बारिश की पहली फ़ुहार को याद करना है और कई बार उन्हें याद करना जून की भरी दुपहरी की चटखती धूप को सहने जैसा भी है जैसे रेगिस्तान की गर्म रेत पर नंगे पांव चलने और जलने जैसा. एक लम्बा वक्त मैने इसी अहसास के साथ बिताया है उनके साथ. क्योंकि जैसे जैसे मैं बडी होने लगी थी उनके अन्दर का पिता एक अजीब खोल को ओढने लगा था. एक अनजान पुरुष उनके अन्दर अवतरित होने लगा था जिससे मैं कतई परिचित नहीं थी और उनके जीवन दर्शन से मैं टकराने लगी थी. अक्सर उनकी सोच को मैं डरते डराते ही सही चुनौती देने लगी थी. सच कहूं तो पापा के साथ मेरे रिश्ते कभी सामन्य नहीं रहे इसलिये आज जब भी मैं उन्हें सोचती हूं, उनसे मिलती हूं, उन्हें याद करती हूं तो अपनी उमर के सारे रास्तों और गलियारों से गुजर जाती हूं.. दूर खडी हो जब भी उनको देखती हूं मुझे अक्सर एक पुरुष दिखता है जो कई डोरियों से बंधा है. कई बार मैं उन्हें उन डोरियों में तडपता हुआ देखती हूं और कई बार उन सख्त होती डोरियों के बीच तन के खडा होता हुआ एक बेचारा देखती हूं. उनके साथ का कोई पल भूली नहीं हूं मैं. उनके साथ के अच्छे बुरे हर पल मुझे याद हैं. याद क्या जैसे गडे हुए हैं मेरी स्मृतियों में. वो कुछ इस तरह गडे हैं जैसे कल ही की तो बात है..
सोच रही हूं कब से जानती हूं उन्हें मैं? सही कहूं तो सोच रही हूं कि कब से पहचानती हूं उन्हें मैं? मां कहती थी बच्छा तो मां के गर्भ से पिता को पहचानता है....पर मुझे पापा का पहला अक्स याद आता है जब वो मुझे कुछ बनाने के बडे बडे सपने पाले अम्मा से बतिया रहे हैं...... एक अक्स जो आंखों में छपा है जब वो मुझे घुघुआ मन्ना कराते थे.........एक अक्स और है जब वो मुझे कन्धे पर चढा लेते थे...........थोडी देर बाद फ़िर एक चित्र आंखों के सामने घूमता है..फ़िर एक और........फ़िर एक और .............और तब से लेकर अब तक के वो सारे पल मेरी निगाहों में कैद हैं जो पापा और मेरे रिश्ते के बीच है..............मां कहती थी मेरी पैदाइश पर पापा थोडे मायूस थे पर मैने ये मायूसी कभी अपनी यादाश्त में महसूस नहीं की. इसीलिये पापा मेरे लिये गर्म घूप की तरह हैं आज भी. इसीलिये अपने बचपन के पापा को जब भी मैं याद करती हूं तो गुस्सैल पापा कभी याद नहीं आते मुझे.......हां उनकी बडी बडी आंखों ने कभी कभार मुझे डराया जरूर है...............सच कहूं तो बचपन में मां बाप के साथ बच्चों का रिश्ता एक अजीब बन्धन से बंधा होता है, एक अजीब अहसास से सराबोर........
पापा को बहुत कुछ मां के शब्दों से जाना है इसीलिये जब भी पापा को याद करती हूं मां का भी कोने में खडी म्लती है मुझे...बडी सी लाल बिन्दी लगाये लाल बार्डर की सफ़ेद साडी में.........कभी मुस्कुराते हुए ...कभी गुस्से में ......कभी आंखे तरेरते हुए...............कभी पापा से एक अजीब भाषा में बतियाती हुई ...........मां जैसे पिता के रोल को समझाने की काउन्सलर हो............. पापा और मेरे रिश्ते की एक्स्पर्ट........मेरा मानना है कि पिता को बच्चे आधे से अधिक मां के शब्दों से जानते हैं............उसके मनोभाव से समझते हैं.......... और मैने भी पापा को अम्मा के रहते ऐसे ही जाना था............... आज मां नहीं है तो पापा बांध तोड कर हमारे और करीब आ गये हैं जैसे मां ..........जैसे उसका आंचल ........पिछले १६ साल से मां के बाद मेरे लिये पापा जैसे मां अधिक हो गये हैं .......... कई बार एक ऐसे बच्चे जिसे मां ही सम्भालना जानती थी ..... अब तो लगता है जैसे हम मां बाप हैं और वो बच्चा......एक जिद्दी बच्चा...........................पापा आपके होने का बहुत मतलब है जीवन में ..................बहुत बहुत मतलब है ...
पिता को याद करने का दिन. मेरे ७३ साल के पिता को याद करना मुझे कई मौसमों से गुजरने जैसा लगता है. उन्हें याद करना जैस जाडों की नर्म और गर्म धूप को याद करद्ने जैसा है, कई बार उन्हें याद करना जैसे बारिश की पहली फ़ुहार को याद करना है और कई बार उन्हें याद करना जून की भरी दुपहरी की चटखती धूप को सहने जैसा भी है जैसे रेगिस्तान की गर्म रेत पर नंगे पांव चलने और जलने जैसा. एक लम्बा वक्त मैने इसी अहसास के साथ बिताया है उनके साथ. क्योंकि जैसे जैसे मैं बडी होने लगी थी उनके अन्दर का पिता एक अजीब खोल को ओढने लगा था. एक अनजान पुरुष उनके अन्दर अवतरित होने लगा था जिससे मैं कतई परिचित नहीं थी और उनके जीवन दर्शन से मैं टकराने लगी थी. अक्सर उनकी सोच को मैं डरते डराते ही सही चुनौती देने लगी थी. सच कहूं तो पापा के साथ मेरे रिश्ते कभी सामन्य नहीं रहे इसलिये आज जब भी मैं उन्हें सोचती हूं, उनसे मिलती हूं, उन्हें याद करती हूं तो अपनी उमर के सारे रास्तों और गलियारों से गुजर जाती हूं.. दूर खडी हो जब भी उनको देखती हूं मुझे अक्सर एक पुरुष दिखता है जो कई डोरियों से बंधा है. कई बार मैं उन्हें उन डोरियों में तडपता हुआ देखती हूं और कई बार उन सख्त होती डोरियों के बीच तन के खडा होता हुआ एक बेचारा देखती हूं. उनके साथ का कोई पल भूली नहीं हूं मैं. उनके साथ के अच्छे बुरे हर पल मुझे याद हैं. याद क्या जैसे गडे हुए हैं मेरी स्मृतियों में. वो कुछ इस तरह गडे हैं जैसे कल ही की तो बात है..
सोच रही हूं कब से जानती हूं उन्हें मैं? सही कहूं तो सोच रही हूं कि कब से पहचानती हूं उन्हें मैं? मां कहती थी बच्छा तो मां के गर्भ से पिता को पहचानता है....पर मुझे पापा का पहला अक्स याद आता है जब वो मुझे कुछ बनाने के बडे बडे सपने पाले अम्मा से बतिया रहे हैं...... एक अक्स जो आंखों में छपा है जब वो मुझे घुघुआ मन्ना कराते थे.........एक अक्स और है जब वो मुझे कन्धे पर चढा लेते थे...........थोडी देर बाद फ़िर एक चित्र आंखों के सामने घूमता है..फ़िर एक और........फ़िर एक और .............और तब से लेकर अब तक के वो सारे पल मेरी निगाहों में कैद हैं जो पापा और मेरे रिश्ते के बीच है..............मां कहती थी मेरी पैदाइश पर पापा थोडे मायूस थे पर मैने ये मायूसी कभी अपनी यादाश्त में महसूस नहीं की. इसीलिये पापा मेरे लिये गर्म घूप की तरह हैं आज भी. इसीलिये अपने बचपन के पापा को जब भी मैं याद करती हूं तो गुस्सैल पापा कभी याद नहीं आते मुझे.......हां उनकी बडी बडी आंखों ने कभी कभार मुझे डराया जरूर है...............सच कहूं तो बचपन में मां बाप के साथ बच्चों का रिश्ता एक अजीब बन्धन से बंधा होता है, एक अजीब अहसास से सराबोर........
पापा को बहुत कुछ मां के शब्दों से जाना है इसीलिये जब भी पापा को याद करती हूं मां का भी कोने में खडी म्लती है मुझे...बडी सी लाल बिन्दी लगाये लाल बार्डर की सफ़ेद साडी में.........कभी मुस्कुराते हुए ...कभी गुस्से में ......कभी आंखे तरेरते हुए...............कभी पापा से एक अजीब भाषा में बतियाती हुई ...........मां जैसे पिता के रोल को समझाने की काउन्सलर हो............. पापा और मेरे रिश्ते की एक्स्पर्ट........मेरा मानना है कि पिता को बच्चे आधे से अधिक मां के शब्दों से जानते हैं............उसके मनोभाव से समझते हैं.......... और मैने भी पापा को अम्मा के रहते ऐसे ही जाना था............... आज मां नहीं है तो पापा बांध तोड कर हमारे और करीब आ गये हैं जैसे मां ..........जैसे उसका आंचल ........पिछले १६ साल से मां के बाद मेरे लिये पापा जैसे मां अधिक हो गये हैं .......... कई बार एक ऐसे बच्चे जिसे मां ही सम्भालना जानती थी ..... अब तो लगता है जैसे हम मां बाप हैं और वो बच्चा......एक जिद्दी बच्चा...........................पापा आपके होने का बहुत मतलब है जीवन में ..................बहुत बहुत मतलब है ...
Tuesday, June 16, 2015
जिन्दगी जीते हुए
<मैनें अपनी सगाई तोड दी थी. लडका मुझे किसी हाल में पसन्द नहीं था लेकिन घर वालों के दबाव के आगे मैं कुछ नहीं बोल पायी थी और फ़ैज़ाबाद के एक होटल में घर वालों के पीछे पीछे सगाई करने चली गयी थी. मेरा मन किसी हाल में मेरे हाथ में पडी अंगूठी को स्वीकार नहीं कर पा रहा था. सगाई होने के दूसरे दिन ही मैने अंगूठी उतार कर आलमारी में रख दी थी. घर वालों के चेहरे पर छाई खुशी मुझे अक्सर अपने मन की बात कहने से रोक देती थी और मैं चुप हो जाती थी लेकिन उस लडके से विवाह ना करने की इच्छा इतनी बलवती थी कि मैं उस अन्गूठी को किसी रूप में स्वीकार नहीं कर पा रही थी. बहरहाल मैं चुप चाप घर में चल रही तैयारियों को देखती और विश्वविद्यालय चली जाती लेकिन एक दिन खुद लडके के पिता ने मुझे इस सगाई से ना कहने का मौका दे दिया और मैने फ़ौरन इस विवाह से ना करने में देर नहीं की.
इस सगाई के टूटने के बाद घर का माहौल एक अज़ीब सी खामोशी में तब्दील हो गया. एक ऐसी वीरानी छा गयी थी जिसमें मुझे सांस लेने में घुटन सी होने लगी थी. मां की आन्खों के सूनेपन में कई सवाल और बेचैनी रहने लगी. दो छोटे भाई जो मुझे बेहद प्यार करते थे घर में सबसे कमजोर स्थिति में थे और पिता एक अज़ीब परायी नज़र से देखते जबकि दहेज़ के बेलगाम घोडे की लगाम थाम के ही मैने इस विवाह से ना की थी. अकेली लडकी जरूर थी लेकिन अपने इमानदार पिता की आर्थिक हदें जानती थी सो पूरे परिवार को गड्ढे में ढकेलने से बेहतर मैने इस लाव लश्कर वाले विवाह को ना करना ही बेहतर समझा. मैं नहीं जानती थी कि परिवार के सदस्यों के मन में क्या क्या चल रहा था लेकिन मुझे अपने घर में वह नही मिल रहा था जो इससे पहले तक मिलता आया था. मां ने तो जैसे खाट ही पकड ली थी और कोई सात महीने बाद इस दुनिया को छोड भी चलीं लेकिन मैं इस घर की घुटन से निकलना चाहती थी और मैने अपने बडे भाई के पास भोपाल जाने का फ़ैसला लिया.
भोपाल भारत का एक खूबसूरत शहर. एक ऐसा शहर जहां रहने का अहसास आपको प्रकृति के करीब रखता है लेकिन मैं अपनी जिन्दगी में आये इस दौर से अन्दर तक आहत थी. समझ में नहीं आता था कि क्या करूं. मन इतना अशान्त था कि कई बार आत्महत्या करने को जी करता. कई बार मन होता अम्मा की गोद से लिपट लिपट कर खूब रोऊ. पर मां ने जैसे अपने को अपने अन्दर समेट लिया था. कई बार सोचती जो पापा इतना प्यार करते थे वो इस तरह क्यों हो गये. अपने इन मनोभाओं के साथ मैं अपने भाई और भावज़ के घर गयी थी. उन्होंने इसी साल की ३ फ़रवरी को शादी की थी. इस तरह की मनोदशा में लिये गये फ़ैसले शायद अक्सर गलत होते हैं मेरा यह फ़ैसला भी गलत था इसका अहसास मुझे भाई के घर में घुसते ही होने लगा था फ़िर भी उन लोगों ने मुझे एक महीने किसी तरह बर्दाश्त किया. इन एक महीनों में मैने रिश्तों के बदतले तेवर को महसूस किया. वह भाई जो साल भर पैसे जुटाता था कि मुझे राखी पर कोई उपहार दे सके एक अज़ीब कशमकश में रहता. मुझसे बात करने के लिये शब्द उसके गले तक आकर अटक जाते थे. मुझे बडी मरणांतक पीडा होती. मै समझने लगी थी कि यह जगह मेरी नहीं है अभी यह ठीक से समझकर मैं कोई फ़ैसला कर पाती एक दिन उसने मुझे अपने आफ़िस के एक एक वर्कर के साथ मुझे एक ऐसी जगह भेज दिया जहां के जीवन की मैने कभी कल्पना नहीं की थी.
मैं उत्तर प्रदेश के एक ठीक ठाक मध्यम वर्गीय परिवार की तीन भाइयों के बीच की अकेली लडकी थी. तीन भाईयों के बीच होने के कारण थोडी दुलारी नकचढी और बेहतर जिन्दगी के सपने देखने वाली और अचानक यह बेतूल जिले के चिखली ब्लाक के जन्गलों के बीच के एक गांव में फ़ील्ड के अनुभव के नाम पर काम करने लिये भेज दिया जाना................ मैं भाई के इस फ़ैसले को कई दिनों तक समझ नहीं पाई थी. मेरे लिये बेतूल जिला एक अनजान और बहुत अज़ीब सा जिला था. अपनों से दूर वीरान में सांप बिच्छुओं के बीच एक ऐसी झोपडी में जीना जहां अगल बगल सांप और चूहों के चलने की आवजें आती हों बेहद डरावना था लेकिन अपने जीवन की इन परिस्थितियों में मैने इसे अपना भाग्य मान लिया था ..........मां अक्सर बहुत याद आती. उसका लाड और दुलार याद आता.......ठोडा सा बुखार होने पर उसका चादर ओढाना, सिर में तेल लगाना .....सिरहाने बैठे रहना सब याद आता ...........पापा का संरक्षण और गुस्सा याद आता ......मेरे दोनों छोटे भाई याद आते ...पर जिन्दगी कुछ ऐसे जाल में उलझ गयी थी कि मैं उनकी आवज सुनने को तरस गयी थी .................एक रात जब पेशाब करने के लिये बाहर जाते वक्त जब एक मोटा सांप दरवाजे पर था तो जिन्दगी जैसे खत्म सी लगी ..........उस रात के बाद जितने दिन मैं वहां रही रात में सोयी नहीं ....धीरे धीरे मैने अपने को काम में रमाना शुरू किया लेकिन अक्सर मेरे दिमाग में आता भाई तो जानता था मुझे फ़िर उसने मुझे यहां क्यों भेजा ??? अक्सर इन्हीं सवालों में उलझकर मैं एक गां से दूसरे गांव के रास्ते नापती. कभी रोती, कभी अपने से सवाल करती और कभी छोटे छोटे टीलों पर बसे गां वों में रहने वालों को देखकर अपने जीवन से उनकी तुलना करती. धीरे धीरे मैने उस पूरी जमात के दुख दर्द और रहन सहन को जानना शुरू किया जो इन्हीं परिस्थितियों में पैदा होते हैं और जीते हैं ...जो इससे इतर जीवन जानते ही नहीं.......अक्सर मैं अपने जीवन से उनकी तुलना करती और मेरी पीडा धीरे धीरे कम होने लगती. ...........
इस सगाई के टूटने के बाद घर का माहौल एक अज़ीब सी खामोशी में तब्दील हो गया. एक ऐसी वीरानी छा गयी थी जिसमें मुझे सांस लेने में घुटन सी होने लगी थी. मां की आन्खों के सूनेपन में कई सवाल और बेचैनी रहने लगी. दो छोटे भाई जो मुझे बेहद प्यार करते थे घर में सबसे कमजोर स्थिति में थे और पिता एक अज़ीब परायी नज़र से देखते जबकि दहेज़ के बेलगाम घोडे की लगाम थाम के ही मैने इस विवाह से ना की थी. अकेली लडकी जरूर थी लेकिन अपने इमानदार पिता की आर्थिक हदें जानती थी सो पूरे परिवार को गड्ढे में ढकेलने से बेहतर मैने इस लाव लश्कर वाले विवाह को ना करना ही बेहतर समझा. मैं नहीं जानती थी कि परिवार के सदस्यों के मन में क्या क्या चल रहा था लेकिन मुझे अपने घर में वह नही मिल रहा था जो इससे पहले तक मिलता आया था. मां ने तो जैसे खाट ही पकड ली थी और कोई सात महीने बाद इस दुनिया को छोड भी चलीं लेकिन मैं इस घर की घुटन से निकलना चाहती थी और मैने अपने बडे भाई के पास भोपाल जाने का फ़ैसला लिया.
भोपाल भारत का एक खूबसूरत शहर. एक ऐसा शहर जहां रहने का अहसास आपको प्रकृति के करीब रखता है लेकिन मैं अपनी जिन्दगी में आये इस दौर से अन्दर तक आहत थी. समझ में नहीं आता था कि क्या करूं. मन इतना अशान्त था कि कई बार आत्महत्या करने को जी करता. कई बार मन होता अम्मा की गोद से लिपट लिपट कर खूब रोऊ. पर मां ने जैसे अपने को अपने अन्दर समेट लिया था. कई बार सोचती जो पापा इतना प्यार करते थे वो इस तरह क्यों हो गये. अपने इन मनोभाओं के साथ मैं अपने भाई और भावज़ के घर गयी थी. उन्होंने इसी साल की ३ फ़रवरी को शादी की थी. इस तरह की मनोदशा में लिये गये फ़ैसले शायद अक्सर गलत होते हैं मेरा यह फ़ैसला भी गलत था इसका अहसास मुझे भाई के घर में घुसते ही होने लगा था फ़िर भी उन लोगों ने मुझे एक महीने किसी तरह बर्दाश्त किया. इन एक महीनों में मैने रिश्तों के बदतले तेवर को महसूस किया. वह भाई जो साल भर पैसे जुटाता था कि मुझे राखी पर कोई उपहार दे सके एक अज़ीब कशमकश में रहता. मुझसे बात करने के लिये शब्द उसके गले तक आकर अटक जाते थे. मुझे बडी मरणांतक पीडा होती. मै समझने लगी थी कि यह जगह मेरी नहीं है अभी यह ठीक से समझकर मैं कोई फ़ैसला कर पाती एक दिन उसने मुझे अपने आफ़िस के एक एक वर्कर के साथ मुझे एक ऐसी जगह भेज दिया जहां के जीवन की मैने कभी कल्पना नहीं की थी.
मैं उत्तर प्रदेश के एक ठीक ठाक मध्यम वर्गीय परिवार की तीन भाइयों के बीच की अकेली लडकी थी. तीन भाईयों के बीच होने के कारण थोडी दुलारी नकचढी और बेहतर जिन्दगी के सपने देखने वाली और अचानक यह बेतूल जिले के चिखली ब्लाक के जन्गलों के बीच के एक गांव में फ़ील्ड के अनुभव के नाम पर काम करने लिये भेज दिया जाना................ मैं भाई के इस फ़ैसले को कई दिनों तक समझ नहीं पाई थी. मेरे लिये बेतूल जिला एक अनजान और बहुत अज़ीब सा जिला था. अपनों से दूर वीरान में सांप बिच्छुओं के बीच एक ऐसी झोपडी में जीना जहां अगल बगल सांप और चूहों के चलने की आवजें आती हों बेहद डरावना था लेकिन अपने जीवन की इन परिस्थितियों में मैने इसे अपना भाग्य मान लिया था ..........मां अक्सर बहुत याद आती. उसका लाड और दुलार याद आता.......ठोडा सा बुखार होने पर उसका चादर ओढाना, सिर में तेल लगाना .....सिरहाने बैठे रहना सब याद आता ...........पापा का संरक्षण और गुस्सा याद आता ......मेरे दोनों छोटे भाई याद आते ...पर जिन्दगी कुछ ऐसे जाल में उलझ गयी थी कि मैं उनकी आवज सुनने को तरस गयी थी .................एक रात जब पेशाब करने के लिये बाहर जाते वक्त जब एक मोटा सांप दरवाजे पर था तो जिन्दगी जैसे खत्म सी लगी ..........उस रात के बाद जितने दिन मैं वहां रही रात में सोयी नहीं ....धीरे धीरे मैने अपने को काम में रमाना शुरू किया लेकिन अक्सर मेरे दिमाग में आता भाई तो जानता था मुझे फ़िर उसने मुझे यहां क्यों भेजा ??? अक्सर इन्हीं सवालों में उलझकर मैं एक गां से दूसरे गांव के रास्ते नापती. कभी रोती, कभी अपने से सवाल करती और कभी छोटे छोटे टीलों पर बसे गां वों में रहने वालों को देखकर अपने जीवन से उनकी तुलना करती. धीरे धीरे मैने उस पूरी जमात के दुख दर्द और रहन सहन को जानना शुरू किया जो इन्हीं परिस्थितियों में पैदा होते हैं और जीते हैं ...जो इससे इतर जीवन जानते ही नहीं.......अक्सर मैं अपने जीवन से उनकी तुलना करती और मेरी पीडा धीरे धीरे कम होने लगती. ...........
Saturday, April 11, 2015
कवि उदय प्रकाश, पापुलर चेहरे और ब्राह्मणवाद ...
’ब्राह्मण’ और ’ब्राह्मणवाद अक्सर इन दो शब्दों की विशद चर्चा मेरे तमाम मित्रों द्वारा फ़ेसबुक से लेकर तमाम जगहों पर की जाती है. कई बार तो व्यक्तिगत बहसों में भी इन दोनों शब्दों को लेकर लम्बी लम्बी चर्चा यहां तक की विवाद होते रहते हैं. अभी ताज़ा विवाद फ़ेसबुक पर पढने को मिला दिव्या शुक्ला, पंकज झा और कवि उदय प्रकाश की वाल पर. यह विवाद कुछ इतना बडा हुआ कि पान्चजन्य में छपे एक लेख में कवि उदय प्रकाश को मिले साहित्य अकादमी पुरस्कार को वापस ले लेने की मांग की गयी. तो क्या इस देश में ब्राह्मणवाद इतना बडा और मजबूत तंत्र है कि इस वाद पर अपनी सोच रख देने भर से आपके जीवन की सबसे बडी उपलब्धी पर ग्रहण लग जाता है? क्या यह इतना तगडा और मजबूत तंत्र है कि यह आपकी जडें खोदने के लिये काफ़ी है ? क्या यह इतना तगडा और मजबूत तंत्र है कि यह आपको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी जगह और अवसर नहीं देता? अगर ऐसा है तो यह बेहद गम्भीरता से सोचने और समझने वाला विषय है क्योंकि इतनी बडी आबादी वाले देश में एक छोटे से समूह का इतना तगडा नेटवर्क? इतनी बडी आबादी वाले देश में एक ऐसा समूह जिसके हाथ में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सीधा हथियार है ? अगर ऐसा है तो सच में सोचने वाली बात है. वैसे फ़ेसबुक पर ब्राह्मणवाद की यह बहस फ़ेसबुक पर क्यों और कैसे शुरू हुई यह पता नहीं लेकिन कवि उदय प्रकाश के खिलाफ़ आगबबूला होना का कारण उनकी यह पोस्ट थी...
“इस समय, इस देश में, जो सबसे बड़ी अलगाववादी, देशद्रोही ताक़त है, वह कुछ और नहीं , ब्राह्मणवादी हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद है।
वह किसी भी 'पाप्युलर' चेहरे के साथ अवतरित हो सकता है।
यह एक ऐसा सच है, जिसे स्वीकार करना, इस देश की मुक्ति और स्वतंत्रता की दिशा में पहला ज़रूरी क़दम होगा। इसे स्वीकार करने के लिए सच्ची देशभक्ति, सामाजिक प्रतिबद्धता और साहस चाहिए।”
मैं उदय प्रकाश जी की यह पोस्ट बार बार पढने और समझने की कोशिश कर रही हूं और यह भी समझने की कोशिश कर रही हूं कि कवि उदय प्रकाश आखिर यह क्यों लिख रहे हैं ? फ़िर सोच रही हूं कि आखिर उनके लिखने में ऐसा क्या है जिसके कारण पंकज कुमार झा साहेब इतना मुखर विरोध कर रहे हैं? क्या यह एक ब्राह्मण और एक गैर ब्राह्मण की व्यक्तिगत लडाई भर है ? लेकिन इस बढते विवाद पर कुछ और टिप्पडियां भी आयीं जिसमे प्रमुख रूप से अर्चना वर्मा जी की की ८ पोस्टेंम हैं ब्राह्मण वाद पर और उसके जवाब में अरुण माहेशवरी जी की लम्बी पोस्ट. यह बडी अज़ीब बात है कि किसी की अभिव्यक्ति पर इस कदर विरोध जाहिर किया जाये कि उसे मिले सम्मान को छीन लेने की बात कर दी जाये? यह बडी अज़ीब बात है कि इस पर एक सम्पादकीय लिख दिया जाये. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की इतनी भी जगह इस देश में नहीं ताकि हम अपनी बात एक मंच पर कह सकें. पन्कज कुमार झा के विरोध और उस अखबार के सम्पादकीय ने यह साबित तो किया ही है कि इस देश में ब्राहमणवाद है और वह एक विषेश जाति के एक समूह द्वारा ही सन्चालित किया जाता है . यह और बात है कि उस वाद में अन्य वर्ग भी शामिल हैं. ऐसा इसलिये है क्योंकि शास्त्र कहते हैं कि बिना राजसत्ता के ब्राह्मण का वर्चस्व कायम नहीं हो सकता. आईये जरा करीने से ब्राह्मण उसके वाद और राजसत्ता से उसके सम्बन्ध को समझा जाये क्योंकि इसी को उदय प्रकाश ’पापुलर चेहरा’ कह रहे हैं. इस समझ को सबके सामने रखने के लिये मैं भारत के सामाजिक ताने बाने, साहित्य और प्राचीन इतिहास का सहारा लेना चाहती हूं. इसीलिये मैं उदय प्रकाश जी के पूरे कथन को दो हिस्सों में समझना चाहती हूं. पहला ब्राह्मण और ब्राह्मण वाद और दूसरा हिस्सा पापुलर चेहरा. आईये पहले ’पापुलर चेहरे’ के सहारे की बात करें. पापुलर चेहरे की बात पहले इसलिये क्योंकि इसी के सहारे हम सत्ता, सत्ता में एक वाद के हावी होने और उसके काम करने के तरीके को आसानी से समझ सकते हैं. क्योंकि कोई भी विचारधारा शासन और सत्ता पर तभी हावी हो सकती है जब उसे किसी चेहरे के माध्यम से पर सफ़लता से पहुंचाया जासके.
पापुलर चेहरा इसका मतलब क्या है ? और इस वाद के पापुलर चेहरे के माध्यम से अवतरित होने का आश्य क्या है ? अगर हम इन दो के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को सही तरीके से समझें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि ब्राहमण और उसका वाद क्या है और कैसे काम करता है? कैसे वो सत्ता और सत्ता के सिंहासन तक पहुंचकर जनता के जीवन के हर काम भाव और नीति को प्रभावित करता है . कैसे वो एक घेरा बनाता है जिसमें सत्ता बंधती चली जाती है. दूसरी तरफ़ यह पूरा वाद धर्म और कर्म कांड के नाम पर आम जन के भीतर भी गहरे काम करता है जो इस जनता में दो तरह से काम करती है. नम्बर एक – यह पूरा तन्त्र जनता में एक तरह का भय पैदा करता है और दूसरा यह कि वह सत्ता के साथ जनता के भीतर कई तरह के भेद विभेद और मतभेद भी पैदा करने में सफ़ल होता है जो सत्ता के लिये एक महव्पूरण हथियार बनके ऊभरती है. दुनिया के कई देशों में समय समय पर इस तरह के उदाहरण मिलते हैं. आयातुल्ला खोमेनी इसका सबसे बडा उदाहरण है लेकिन हम यहां इसे भारतीय इतिहास और मिथकों से समझने की कोशिश करेंगे.
भारतीय इतिहास उठाकर देखें तो राजसत्ता के अनेक ऐसे पापुलर चेहरे दीखेंगे जिनका वजूद आज भी कायम है. इन पापुलर चेहरों में सबसे पापुलर चेहरा राम का है. राम ब्राह्मण नहीं थे लेकिन वह इस वाद का सबसे बडा हथियार रहे हैं और आज भी हैं. क्या इसके पीछे राम का हाथ रहा होगा कि उन्हें इस रूप में स्थापित किया जाये ? क्या उन्होंने वाल्मिकी को रामायण लिखने के लिये प्रेरित किया था ? शायद नहीं, किन्तु इस चेहरे को अनेक काल खण्डों में भारत के अलग अलग जगहों पर ना केवल ग्रन्थ लिखे. समझने वाली बात है कि क्या कथा लिखने भर से राम का चरित्र पापुलर हो गया ? शायद नहीं बल्कि इस कथा को प्रचारित और प्रसारित करने के लिये इसके पीछे एक पूरा तन्त्र था जिसने उसे उसी रूप में मूर्त करने की कोशिश की जिस रूप में उस तन्त्र ने चाहा ......मैं यहां राम का विरोध नहीं कर रही बल्कि एक पापुलर चेहरे और राजसत्ता के समीकरण को समझने की कोशिश कर रही हूं. राम के विरोध के भी कई कारण उनके ऊपर लिखित चरित्र के माध्यम से किया जा सकता है लेकिन यह अग्यात है कि राम का वास्तविक चरित्र क्या था. राम को हम उतना ही जानते और समझते हैं जितना रामायण और राम कथा से सुनते और समझते हैं. राम को लेकर यह तन्त्र और समीकरण इतना तगडा था कि आने वाले दिनो में भी राम राज ही हो ऐसी कल्पना की गयी........
इसी तरह का एक चेहरा कृष्ण का भी है. इस चेहरे के पीछे भी बहुत काम किया गया है. इस चेहरे के बचपन से लेकर हर काल की छवि का चित्रण कुछ इस तरह किया गया है और उसे देव रूप से जोड कर इस तरह प्रचारित किया गया है कि आपके विरोध के लिये कहीं जगह नहीं. इस चेहरे की बायगेमी पवित्र, इस चेहरे की रास लीला पवित्र, उसकी हर नीति पवित्र. यहां मैं कृष्ण का भी विरोध नहीं कर रही बल्कि यह समझने की कोशिश कर रही हूं कि उस पूरे तन्त्र द्वारा किसी व्यक्ति का चरित्र लिख और प्रचारित भर कर देने से पूरा मानव समाज किस तरह उसे उसी रूप में भजने और देखने लगता है जैसा वह चाहता है. इसी क्रम में बहुत से चेहरे इतिहास में बुने गये और जनता को उसे उसी रूप में भजने और देखने को बाध्य किया गया है. बहु सन्खयक जनता इस पापुलर चेहरे के मोह पाश में अक्सर बंधती भी रही.
पापुलर चेहरे के साथ अवतरित होने के क्रम में कभी कभी यह वाद ठंढा भी पडःआ और शान्त भी रहा लेकिन इसकी जडें फ़िर भी काम करती रहीं और वह अपना पापुलर चेहरा गढता रहा. यह जरूरी नहीं है कि यह पापुलर चेहरा किसी विषेश जाति या वर्ग का होगा बल्कि यह जरूरी है कि यह पापुलर चेहरा उस पूरे वाद विन्यास के साथ काम करेगा जिसके बूते सत्ता और सत्ता की रणनीति पर कायम हुआ जा सकता है.
तो अगर पन्कज कुमार झा और वह अखबार इस पूरे वक्तव्य के विरोध में लिखते और छापते हैं और यह मांग कर डालते हैं कि उन्हें दिया गया साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस लिया जाये तो यह बात अपने आप ही सिद्ध होती है कि आज भी यह वाद एक पापुलर चेहरे के पीछे से ना केवल हावी होने की कोशिश कर रहा है बल्कि वह विन्यास गढने में लगा हुआ है ताकि सफ़ल हुआ जा सके. आगे बात ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद की
-------------------डा. अलका सिंह
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