Sunday, April 29, 2012
एक कविता अपने शहर के नाम......................आप सब से साझा कर रही हूँ ............उम्मीद है आप अपनी प्रतिक्रिया के साथ पसन्द भी करेंगे ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
सोचती हूँ
ऐसे वक्त पर जीवन में
एक शहर
रौशनी का नुमाइन्दा बन
अपने पूरे वजूद के साथ
प्रवेश करता गया अंतर तक
जब मन तमाम अठखेलियाँ करता
कभी मचलता , कभी भटकता , आवारागर्दी करता
गुजर रहा था कई ठिकानों से
तब किसी पितामह की तरह
सख्त हो अच्छे बुरे के फर्क को साझा करता
सामने खडा समझाता रहा बरसों
वह सब जो
मन की स्लेट पर लिखी
सबसे उम्दा इबारत है
जानती हूँ पिता नहीं था वह
फिर भी स्नेह वैसा ही था
जानती हूँ माँ नहीं था वह फिर भी
ममत्व से भरा
तमाम नसीहतों के साथ
एक अज़ीज़ दोस्त सा वो शहर
आज भी है
दिल के करीब अपनी तमाम रौशनी के साथ
भाषा, संस्कृति और संस्कार के बहाने
जीवन के कई रंग , अर्थ और जटिलतायें
उसके साथ ने ही समझा दिये थे जाने - अनजाने
आज भी उसके साथ का दम
मजबूत करता है
मेरा संकल्प, मेरी दृष्टी और बढने के हौसले को
कई बार सोचती हूँ सलाम करूँ वहाँ के देवी देवताओं को
माटी को और संगम को
सलाम करूँ बटवृक्ष को और बेणीमाधव को
पर अचनाक याद आते हैं
वहाँ के लोग, दोस्त –यार
याद आते हैं बडे - बुजुर्ग
और वो वटवृक्ष जिसकी शाखायें
बने हम फैले हैं चारो ओर
बस झुक जाती हूँ मन ही मन
करोडो धन्यवाद के बोल ले
बढ जाती हूँ उस तरफ जहाँ के लिये
वादा किया था
‘उससे’ बरसों पहले मन ही मन
अनवरत
खुश नसीब हूँ कि पली हूँ वहाँ
खुश नसीब हूँ कि बढी हूँ वहाँ
सच ! खुश नसीब हूँ कि पढी हूँ वहाँ
जहाँ से सब ओर आदमीयत की
परिभाषा जाती है
संस्कार की भाषा जाती है
सच कहूँ तो इस खुश नसीबी पर फखर करने से बेहतर
इसे बोना चहती हूँ
बंजर ज़मीनों में
एक आस्ताना उगाने के लिये
आदमियत का
.........................................अलका
Monday, April 16, 2012
पुतुल की कविता अंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल .......... आदिवासी जनजीवन ......उनकी माँग और नक्सलवाद ?
देश की अंतरिक सुरक्षा खतरे में है यही कारण है कि आज इसी मुद्दे पर दिल्ली में सभी मुख्य मंत्रियों की बैठक बुलायी गयी. अब सवाल है कि देश की अंतरिक सुरक्षा को खतरा किस बात से है ? प्राप्त सूचना के अनुसार भारत के अन्दर 19 बडी इंसर्जेंसीज चल रही हैं. यानि कि देश के भीतर ही बडे बडे खतरे पैदा हो गये हैं. आज की इस पूरी मीटिंग में जिन खतरों को गिनाया गया उसमें नक्सालवाद की तरफ इशारा करते हुए उसे आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बडा खतरा बताया गया. अभी कोई दो तीन दिन पहले एन डी टी वी पर अभिज्ञान प्रकाश ने एक कार्यक्रम पेश किया था. इस कार्यक्रम का शीर्षक था ‘’क्या नक्सल्वादियों के आगे झुक गयी सरकार ?’’
आज प्रधान मंत्री और ग़ृहमंत्री चिदबरम के भाषण और दो दिन पहले के अभिज्ञान के कार्यक्रम के बीच मुझे झारखंड की एक आदिवासी कवियत्री निर्मला पुतुल की कवितायें एक एक कर याद आती रहीं. ऐसा इसलिये कि देश की अंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल .......... आदिवासी जनजीवन ......उनकी माँग और नक्सलवाद ? यह प्र्श्नचिन्ह इसलिये क्योंकि अभिज्ञान के कार्यक्रम में आये लोगों ने जो चर्चा की उससे यह बात साफ साफ निकल कर आ रही थी कि नक्सलवाद का सम्बन्ध उन इलाकों से है जिन इलाकों में आदिवासी रहते हैं. क्या आपको यह बात हैरत में नहीं डालती कि इस देश के एक बडे हिस्से के नागरिक हथियार बन्द हो गये हैं? क्या ये सवाल परेशान नहीं करता कि अगर ऐसा है तो क्यों? यए सवाल कई और सवालों के साथ मुझे हर रोज परेशान करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों है कि इस देश के 8 बडे राज्यों का एक बडा हिस्सा हथियार बन्द हो गया है और जवाब में पुतुल की एक कविता अपने पूरे वज़ूद के सामने खडी हो सवालों की झडी लगा देती है . आप भी पढें -
अगर तुम मेरी जगह होते
जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को.
जरा सोचो न, कैसा लगता?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगो के बीच
और तुम सामने हाथ बाँधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
................... निर्मला पुतुल
निर्मला की इस कविता पर बात कहाँ से शुरु करूँ समझ नहीं पा रही. मेरे लिये यह जटिल इसलिये हो रहा है क्योंकि देश का प्रधान कहता है कि नक्सलवाद सबसे बडी समस्या है,,,,,,,,,,,, देश का एक पूर्व जनरल कहता है कि नक्सल्वादियों को अब चीन हथियार देने की योज़ना बना रहा है............. और देश अब सभी राज्यों को लेकर आंतरिक सुरक्षा के मद्दे नज़र अब इस नक्सलवाद से जुडे लोगों के खिलाफ एक बडी रणनिति बनाने की योज़ना बना रहा है क्योंकि बकौल पूर्व जनरल ’ कि इस पूरे इलाके में आज तक कोई पेनीट्रेट नहीं कर पाया’’किंतु इन सभी के बीच निर्मला कुछ सवाल रखती हैं और कहती हैं कि –
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
मेरा यह हमेशा से मानना रहा है कि इमानदार कवितायें किसी भी बात , भाव या समस्या को बेहतर तरीके से समझने और उसके तह तक जाने का सबसे अच्छा जरिया होती हैं. सच कहूँ तो एन डी टी वी के कार्यक्रम ने मेरी इस अवधारणा में एक और पहलू जोड दिया कि एक देश , उसकी सत्ता और वहाँ की जनता की समस्या को समझने के लिये इमानदार कवियों , लेखकों के लेखन से गुजरना उतना ही जरूरी है जितना कि किसी इलाके में जाकर कर वहाँ के मुद्दों को जानना है. पर क्या टी.वी पर चर्चा में शाम्मिल होने वाले उतनी ही सवेदना और चश्में से उस समस्या को देख पाते हैं जिस सम्वेदना की जरूरत होती है उस इलाके के लोगों को ? आप देखें कि एक तरफ देश की आंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल, एक तरफ नक्सलवाद जैसी समस्या से निपटने की रणनीति और एक तरफ उस पूरे इलाके के लोगों के मूलभूत सवाल.... सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कवितायें देश का प्रधान नहीं पढता ? सोच रही हूँ कि इस तरह की कवितायें देश का सेनाध्यक्ष नहीं पढता? और यह भी सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कविताओं पर देश की पुलिस की भी नज़र नहीं जाती? अगर इस सभी की नज़र नहीं जाती तो यह इस देश का दुर्भाग्य ही है क्योंकि अगर वह इस तरह के साहित्य से गुजरे होते तो उनकी चर्चाओं में समस्या को समझने का नज़रिया और इस तरह की चर्चाओं में उनके बयान की गम्भीरता कुछ और ही होती. निर्मला की कविता महज़ एक कविता नहीं है. यह कविता देश के उस बडे हिस्से की आवाज़ है जो यह महसूस करता है कि उसकी नाक चिपटी है, वह काला है, उसके पावों में बिवाई है और् इसलिये वह देश के विभिन्न सुविधाओं के लिये लगने वाली कतार में सबसे पीछे खडा होता है. लोग उसके पावों की बिवाई को समझने की जगह फब्ती कसते हैं .जोरदार ठहाका लगाते है ...........निर्मला की इस आवाज़ में एक दर्द है और यह प्रश्न भी कि यदि तुम्हारे साथ ऐसा होता तो तुम क्ता करते?
अगर इस कविता के माध्यम से सिर्फ आदिवासी जमात की ही बात की जाये तो भी कविता कुछ मूल भूत व्यव्हारिक बात को हमारे सामने सरलता से लाती है. देखा जाये तो यह कविता एक ही देश में हो रहे नागरिकों के बीच की भयानक दूरी, कुंठा, क्षोभ और गहरे आक्रोश को व्यक्त करती है किंतु जब इस प्रकरण का जिक्र अभिज्ञान प्रकाष के कार्य्क्रम में एक प्रोफेसर करने की कोशिश करता है जिसने 8 साल सरकार और उन लोगों के बीच सेतु बनने का काम किया जो आज सरकार के लिये समस्या बन गये हैं .....तो उसे एक नेता द्वारा यह कहकर चुप रहने के लिये कहा जाता है कि ‘’ प्रोफेसर साहब उपदेश ना दें’’ म्मतलब यह कि इस देश की राजनिति यह समझने के लिये तैयार नहीं है कि इस देश के गरीब और आदिवासी जीवन की मूल्भूत आवश्यकताओं के लिये जूझ रहे हैं. वह यह समझने के लिये तैयार नहीं है इस समस्या के पीछे के कारण से निपट्ने के लिये उन लोगों की बात को भी सुनना जरूरी है जो इस समस्या पर अपने महत्व्पूर्ण विचार संजीदगी से रख सकते हैं..
दुर्भाग्य से मैं अभिज्ञान प्रकाश के कार्यक्रम को पूरा नहीं देख पायी लेकिन जहाँ से देखा उसने मेरे अन्दर कई स्वाल पैदा किये. वह कुछ ऐसे मूल भूत सवाल हैं जिसे हर उस नागरिक का पूछने का हक बनता है जो इस देश में इस देश के सम्विधान के मतलब को समझता है. किंतु बात जब आदिवासी जन की आती है तो वह हमारी दोहरी नीति, दोहरे आचरण और सामंत्वादी तौर तरीकों की तरफ इशारा करता है. हमारे विकास, विकास की अवधारणा और इस विकास के खांचे से दूर लोगों की आकंक्षाओं की टकराट की भी बात उठती है. इसीलिये जब निर्मला कहती है कि -
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?
सच कहूँ तो अभिज्ञान के कार्यक्रम में नक्सल वाद, आदिवासी जीवन , उनकी समस्या और मुख्य धारा में उनके ना होने की त्रासदी को जिस तरह से समझा और रखा गया उसने मुझे झकझोर कर रख दिया....
इसीलिये मैं गहरी सोच में हूँ. एक तरह की नारज़गी में. बार बार यह समझने की कोशिश में हूँ कि देश का मतलब क्या होता है? नागरिक का मतलब क्या होता है? और यह भी समझने की लगातार कोशिश कर रही हूँ कि क्या एक देश के नागरिक और उसके प्रश्न क्या होने चाहिये? यह भी कि नागरिक सुरक्षा का मतलब क्या है? सालों से यह सवाल मुझे बेतरह परेशान करते रहे हैं किंतु जबसे मैनें आदिवासी जीवन को करीब से देखा है उसे जाना है ये सवाल हर वक्त मेरे जेहन में किसी कीडे की तरह रेंगते रहते हैं कि इस देश में आदिवासी होना क्या आपको पूरी सुरक्षा देता है ? क्या आपके सवालों को दिल्ली दरबार तक पहुंचाता है ? ..........और सच कहूँ तो जब एक आदिवासी के घर में खडे होकर मन में यह सवाल उठते हैं तो मन बडी शिद्द्त से जवाब मांगता है क्योंकि मध्यप्रदेश से लेकर अन्ध्रा तक उत्तर प्रदेश से लेकर उडीसा तक आदिवासी जीवन की त्रासदी एक सी है और सवाल , मांगें और उम्मीदें भी एक सी हैं.......लेकिन इस देश में उस आदिवासी की बात सुनना तो दूर उसकी तरफ ध्यान से देखा नहीं जाता जिसकी परम्परा में कभी भीख नहीं मांगना जैसे एक मिशन है, जिसकी परम्परा में मेहनत एक इबादत है .......और अपने आस पास की प्रकृति की रखवाली करना एक पूजा है..............लेकिन आज़ादी के 65 सालों बाद एक एक कर उनकी संस्कृति को तोडा है, उनके मिशन को तोडा है और उनकी इबादत गाह को नष्ट किया है .तो ऐसे में क्या सरकारों , नेताओं, पार्टियों को उन सवालों पर सोचना नहीं चाहिये जहाम वह कह रहे हैं कि -.
“जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?”
मैने इस कविता को पहले कई बार पढा है और जब भी पहले इसे पढा तो सोचती रही कि निर्मला के सारे सवाल आखिर किससे हैं? क्या गैर आदिवासियों से ? या फिर सत्ता और उसके आस पास बैठे उनसे जो कल चर्चा का हिस्स थे ? या देश के उस प्रधान से जो आज भषण दे रहा था ? या प्फिर देश के उन नागरिकों से जो देश के बडे शहरों में बडी सुविधाओं का लाभ उठाते हुए कहते हैं कि ‘ जो जाति देश की मुख्य धारा में शामिल नहीं हो सकती वह तो इसी स्थिति में ही रहे गी ना ? या फिर उन कुछ बेहद स्वार्थ से भरे लोगों से जो कहते हैं कि देश के विकास के लिये बाक्साईट जैसे खनिज़ के लिये उनकी जमीन पर सरकार पर कब्ज़ा तो करना ही पडेगा ? किससे ? या फिर सभी से ? सीधे तौर पर देखा जाये तो यह सवाल पुतुल सबसे करती हैं कि जो देश अपनी जीडीपी को 8 प्रतिशत दिखाने का दावा कर वाह्वाही पा रहा है उस देश में आज़ादी के 65 साल बाद भी अगर एक तबके का जीवन इस हाल में है तो अगर यह जीवन आप जी रहे होते तो क्या करते? हाँलाकि देखा जाये तो इस देश में यह सवाल एक शास्वत सवाल है किंतु यह सवाल जब अपनी जमात की तरफ से पुतुल करती हैं तो इन सवालों की त्रासदी दोगुनी हो जाती है क्योंकि वह इन सवालों के साथ साथ हालात का भी बयान करती हैं -
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
------------------------और देखा जाये तो जो हालात पुतुल ने अपनी कविता के माध्यम्म से रखे हैं वह आज भी ज्यों के त्यों हैं ..................चाहे रांची का नम्कुम हो, मध्यप्रदेश का बेतुल और छोन्दवादा हो, छत्तीसगढ का दंतेवाडा हो या उत्तर प्रदेश का शंकरगढ हर जगह सवाल यही हैं पर समाधान कुछ नहीं, हर जगह उनके जनजीवन की मांसलता को ही नापा जा रहा है और देखे जा रहे हैं छाती के उभार . चाहे वो बाम्क्साईड के रूप में हों , चाहे जंगल के रूप में -
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.
किंतु अब वह बेखबर नहीं रह गया है क्योंकि वह सवाल करने लगा है कि ‘’अगर तुम मेरी जगह होते’’ सोचो क्या करते
.............................डा. अलका सिह
आज प्रधान मंत्री और ग़ृहमंत्री चिदबरम के भाषण और दो दिन पहले के अभिज्ञान के कार्यक्रम के बीच मुझे झारखंड की एक आदिवासी कवियत्री निर्मला पुतुल की कवितायें एक एक कर याद आती रहीं. ऐसा इसलिये कि देश की अंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल .......... आदिवासी जनजीवन ......उनकी माँग और नक्सलवाद ? यह प्र्श्नचिन्ह इसलिये क्योंकि अभिज्ञान के कार्यक्रम में आये लोगों ने जो चर्चा की उससे यह बात साफ साफ निकल कर आ रही थी कि नक्सलवाद का सम्बन्ध उन इलाकों से है जिन इलाकों में आदिवासी रहते हैं. क्या आपको यह बात हैरत में नहीं डालती कि इस देश के एक बडे हिस्से के नागरिक हथियार बन्द हो गये हैं? क्या ये सवाल परेशान नहीं करता कि अगर ऐसा है तो क्यों? यए सवाल कई और सवालों के साथ मुझे हर रोज परेशान करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों है कि इस देश के 8 बडे राज्यों का एक बडा हिस्सा हथियार बन्द हो गया है और जवाब में पुतुल की एक कविता अपने पूरे वज़ूद के सामने खडी हो सवालों की झडी लगा देती है . आप भी पढें -
अगर तुम मेरी जगह होते
जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को.
जरा सोचो न, कैसा लगता?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगो के बीच
और तुम सामने हाथ बाँधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
................... निर्मला पुतुल
निर्मला की इस कविता पर बात कहाँ से शुरु करूँ समझ नहीं पा रही. मेरे लिये यह जटिल इसलिये हो रहा है क्योंकि देश का प्रधान कहता है कि नक्सलवाद सबसे बडी समस्या है,,,,,,,,,,,, देश का एक पूर्व जनरल कहता है कि नक्सल्वादियों को अब चीन हथियार देने की योज़ना बना रहा है............. और देश अब सभी राज्यों को लेकर आंतरिक सुरक्षा के मद्दे नज़र अब इस नक्सलवाद से जुडे लोगों के खिलाफ एक बडी रणनिति बनाने की योज़ना बना रहा है क्योंकि बकौल पूर्व जनरल ’ कि इस पूरे इलाके में आज तक कोई पेनीट्रेट नहीं कर पाया’’किंतु इन सभी के बीच निर्मला कुछ सवाल रखती हैं और कहती हैं कि –
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
मेरा यह हमेशा से मानना रहा है कि इमानदार कवितायें किसी भी बात , भाव या समस्या को बेहतर तरीके से समझने और उसके तह तक जाने का सबसे अच्छा जरिया होती हैं. सच कहूँ तो एन डी टी वी के कार्यक्रम ने मेरी इस अवधारणा में एक और पहलू जोड दिया कि एक देश , उसकी सत्ता और वहाँ की जनता की समस्या को समझने के लिये इमानदार कवियों , लेखकों के लेखन से गुजरना उतना ही जरूरी है जितना कि किसी इलाके में जाकर कर वहाँ के मुद्दों को जानना है. पर क्या टी.वी पर चर्चा में शाम्मिल होने वाले उतनी ही सवेदना और चश्में से उस समस्या को देख पाते हैं जिस सम्वेदना की जरूरत होती है उस इलाके के लोगों को ? आप देखें कि एक तरफ देश की आंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल, एक तरफ नक्सलवाद जैसी समस्या से निपटने की रणनीति और एक तरफ उस पूरे इलाके के लोगों के मूलभूत सवाल.... सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कवितायें देश का प्रधान नहीं पढता ? सोच रही हूँ कि इस तरह की कवितायें देश का सेनाध्यक्ष नहीं पढता? और यह भी सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कविताओं पर देश की पुलिस की भी नज़र नहीं जाती? अगर इस सभी की नज़र नहीं जाती तो यह इस देश का दुर्भाग्य ही है क्योंकि अगर वह इस तरह के साहित्य से गुजरे होते तो उनकी चर्चाओं में समस्या को समझने का नज़रिया और इस तरह की चर्चाओं में उनके बयान की गम्भीरता कुछ और ही होती. निर्मला की कविता महज़ एक कविता नहीं है. यह कविता देश के उस बडे हिस्से की आवाज़ है जो यह महसूस करता है कि उसकी नाक चिपटी है, वह काला है, उसके पावों में बिवाई है और् इसलिये वह देश के विभिन्न सुविधाओं के लिये लगने वाली कतार में सबसे पीछे खडा होता है. लोग उसके पावों की बिवाई को समझने की जगह फब्ती कसते हैं .जोरदार ठहाका लगाते है ...........निर्मला की इस आवाज़ में एक दर्द है और यह प्रश्न भी कि यदि तुम्हारे साथ ऐसा होता तो तुम क्ता करते?
अगर इस कविता के माध्यम से सिर्फ आदिवासी जमात की ही बात की जाये तो भी कविता कुछ मूल भूत व्यव्हारिक बात को हमारे सामने सरलता से लाती है. देखा जाये तो यह कविता एक ही देश में हो रहे नागरिकों के बीच की भयानक दूरी, कुंठा, क्षोभ और गहरे आक्रोश को व्यक्त करती है किंतु जब इस प्रकरण का जिक्र अभिज्ञान प्रकाष के कार्य्क्रम में एक प्रोफेसर करने की कोशिश करता है जिसने 8 साल सरकार और उन लोगों के बीच सेतु बनने का काम किया जो आज सरकार के लिये समस्या बन गये हैं .....तो उसे एक नेता द्वारा यह कहकर चुप रहने के लिये कहा जाता है कि ‘’ प्रोफेसर साहब उपदेश ना दें’’ म्मतलब यह कि इस देश की राजनिति यह समझने के लिये तैयार नहीं है कि इस देश के गरीब और आदिवासी जीवन की मूल्भूत आवश्यकताओं के लिये जूझ रहे हैं. वह यह समझने के लिये तैयार नहीं है इस समस्या के पीछे के कारण से निपट्ने के लिये उन लोगों की बात को भी सुनना जरूरी है जो इस समस्या पर अपने महत्व्पूर्ण विचार संजीदगी से रख सकते हैं..
दुर्भाग्य से मैं अभिज्ञान प्रकाश के कार्यक्रम को पूरा नहीं देख पायी लेकिन जहाँ से देखा उसने मेरे अन्दर कई स्वाल पैदा किये. वह कुछ ऐसे मूल भूत सवाल हैं जिसे हर उस नागरिक का पूछने का हक बनता है जो इस देश में इस देश के सम्विधान के मतलब को समझता है. किंतु बात जब आदिवासी जन की आती है तो वह हमारी दोहरी नीति, दोहरे आचरण और सामंत्वादी तौर तरीकों की तरफ इशारा करता है. हमारे विकास, विकास की अवधारणा और इस विकास के खांचे से दूर लोगों की आकंक्षाओं की टकराट की भी बात उठती है. इसीलिये जब निर्मला कहती है कि -
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?
सच कहूँ तो अभिज्ञान के कार्यक्रम में नक्सल वाद, आदिवासी जीवन , उनकी समस्या और मुख्य धारा में उनके ना होने की त्रासदी को जिस तरह से समझा और रखा गया उसने मुझे झकझोर कर रख दिया....
इसीलिये मैं गहरी सोच में हूँ. एक तरह की नारज़गी में. बार बार यह समझने की कोशिश में हूँ कि देश का मतलब क्या होता है? नागरिक का मतलब क्या होता है? और यह भी समझने की लगातार कोशिश कर रही हूँ कि क्या एक देश के नागरिक और उसके प्रश्न क्या होने चाहिये? यह भी कि नागरिक सुरक्षा का मतलब क्या है? सालों से यह सवाल मुझे बेतरह परेशान करते रहे हैं किंतु जबसे मैनें आदिवासी जीवन को करीब से देखा है उसे जाना है ये सवाल हर वक्त मेरे जेहन में किसी कीडे की तरह रेंगते रहते हैं कि इस देश में आदिवासी होना क्या आपको पूरी सुरक्षा देता है ? क्या आपके सवालों को दिल्ली दरबार तक पहुंचाता है ? ..........और सच कहूँ तो जब एक आदिवासी के घर में खडे होकर मन में यह सवाल उठते हैं तो मन बडी शिद्द्त से जवाब मांगता है क्योंकि मध्यप्रदेश से लेकर अन्ध्रा तक उत्तर प्रदेश से लेकर उडीसा तक आदिवासी जीवन की त्रासदी एक सी है और सवाल , मांगें और उम्मीदें भी एक सी हैं.......लेकिन इस देश में उस आदिवासी की बात सुनना तो दूर उसकी तरफ ध्यान से देखा नहीं जाता जिसकी परम्परा में कभी भीख नहीं मांगना जैसे एक मिशन है, जिसकी परम्परा में मेहनत एक इबादत है .......और अपने आस पास की प्रकृति की रखवाली करना एक पूजा है..............लेकिन आज़ादी के 65 सालों बाद एक एक कर उनकी संस्कृति को तोडा है, उनके मिशन को तोडा है और उनकी इबादत गाह को नष्ट किया है .तो ऐसे में क्या सरकारों , नेताओं, पार्टियों को उन सवालों पर सोचना नहीं चाहिये जहाम वह कह रहे हैं कि -.
“जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?”
मैने इस कविता को पहले कई बार पढा है और जब भी पहले इसे पढा तो सोचती रही कि निर्मला के सारे सवाल आखिर किससे हैं? क्या गैर आदिवासियों से ? या फिर सत्ता और उसके आस पास बैठे उनसे जो कल चर्चा का हिस्स थे ? या देश के उस प्रधान से जो आज भषण दे रहा था ? या प्फिर देश के उन नागरिकों से जो देश के बडे शहरों में बडी सुविधाओं का लाभ उठाते हुए कहते हैं कि ‘ जो जाति देश की मुख्य धारा में शामिल नहीं हो सकती वह तो इसी स्थिति में ही रहे गी ना ? या फिर उन कुछ बेहद स्वार्थ से भरे लोगों से जो कहते हैं कि देश के विकास के लिये बाक्साईट जैसे खनिज़ के लिये उनकी जमीन पर सरकार पर कब्ज़ा तो करना ही पडेगा ? किससे ? या फिर सभी से ? सीधे तौर पर देखा जाये तो यह सवाल पुतुल सबसे करती हैं कि जो देश अपनी जीडीपी को 8 प्रतिशत दिखाने का दावा कर वाह्वाही पा रहा है उस देश में आज़ादी के 65 साल बाद भी अगर एक तबके का जीवन इस हाल में है तो अगर यह जीवन आप जी रहे होते तो क्या करते? हाँलाकि देखा जाये तो इस देश में यह सवाल एक शास्वत सवाल है किंतु यह सवाल जब अपनी जमात की तरफ से पुतुल करती हैं तो इन सवालों की त्रासदी दोगुनी हो जाती है क्योंकि वह इन सवालों के साथ साथ हालात का भी बयान करती हैं -
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
------------------------और देखा जाये तो जो हालात पुतुल ने अपनी कविता के माध्यम्म से रखे हैं वह आज भी ज्यों के त्यों हैं ..................चाहे रांची का नम्कुम हो, मध्यप्रदेश का बेतुल और छोन्दवादा हो, छत्तीसगढ का दंतेवाडा हो या उत्तर प्रदेश का शंकरगढ हर जगह सवाल यही हैं पर समाधान कुछ नहीं, हर जगह उनके जनजीवन की मांसलता को ही नापा जा रहा है और देखे जा रहे हैं छाती के उभार . चाहे वो बाम्क्साईड के रूप में हों , चाहे जंगल के रूप में -
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.
किंतु अब वह बेखबर नहीं रह गया है क्योंकि वह सवाल करने लगा है कि ‘’अगर तुम मेरी जगह होते’’ सोचो क्या करते
.............................डा. अलका सिह
Friday, April 13, 2012
क्या निर्मला पुतुल के सवाल आदिवासी जीवन के मूल भूत सवाल हैं
(यह लेख एन डी टी वी पर अभिज्ञान प्रकाश के कार्यक्रम, उससे उपजे मंथन और एक तरह की गहरी खीझ जिसे मैं नाराज़गी कह रही हूँ से उपजा है. सच कहूँ तो अभिज्ञान के इस कार्यक्रम में नक्सल वाद, आदिवासी जीवन , उनकी समस्या और मुख्य धारा में उनके ना होने की त्रासदी को जिस तरह से समझा और रखा गया उसने मुझे इस बीमारी की हालत में भी अपने लैपटाप पर बैठने को मजबूर कर दिया. दुर्भाग्य से मैं अभिज्ञान प्रकाश के इस कार्यक्रम को पूरा नहीं देख पायी लेकिन जहाँ से देखा उसने मेरे अन्दर सवालों की जैसे झडी लगा दी. उसने इस देश की कई त्रासदियों को ही नही बल्कि यह भी समझने में मेरी मदद की कि देश की सेना, पुलिस और नेता जनता की समस्या और मांग को कैसे देखते हैं इस पूरी चर्चा ने मुझे निर्मला पुतुल की कई कविताओं की याद दिला दी. खासकर उस कविता की जिसमें वह आदिवासी जमात की तरफ से कुछ सवाल करती हैं और कहती हैं कि : अगर तुम मेरी जगह होते ? )
मित्रों ,
आज मैं गहरी सोच में हूँ. एक तरह की नारज़गी में. बार बार यह समझने की कोशिश में हूँ कि देश का मतलब क्या होता है? नागरिक का मतलब क्या होता है? और यह भी समझने की लगातार कोशिश कर रही हूँ कि क्या एक देश के नागरिक और उसके प्रश्न क्या होने चाहिये? यह भी कि नागरिक सुरक्षा का मतलब क्या है? सालों से यह सवाल मुझे बेतरह परेशान करते रहे हैं किंतु जबसे मैनें आदिवासी जीवन को करीब से देखा है उसे जाना है ये सवाल हर वक्त मेरे जेहन में किसी कीडे की तरह रेंगते रहते हैं कि इस देश में आदिवासी होना क्या आपको पूरी सुरक्षा देता है ? क्या आपके सवालों को दिल्ली दरबार तक पहुंचाता है ? ..........और सच कहूँ तो जब एक आदिवासी के घर में खडे होकर मन में यह सवाल उठते हैं तो मन बडी शिद्द्त से जवाब मांगता है क्योंकि मध्यप्रदेश से लेकर अन्ध्रा तक उत्तर प्रदेश से लेकर उडीसा तक आदिवासी जीवन की त्रासदी एक सी है और सवाल , मांगें और उम्मीदें भी एक सी हैं.......आदिवासी कभी भीख नहीं मांगता, वह मेह्नत करता है और अपने आस पास की प्रकृति का रखवाला है .............ऐसा आदिवासियों का अपने बारे में विचार है किंतु आज़ादी के बाद के 65 साल में इस देश की पूरी जनजाति के जीवन उसकी संस्कृति और सभ्यता के साथ जो कुछ हुआ है उसने आदिवासी जन के मन में मनो सवाल लादे हैं.............. यही वज़ह है कि आदिवासी जन की बात करते हुए मुझे पुतुल की कवितायें बेतरह याद आती हैं............. खासकर तब जब वह सवाल करते हुए कहती हैं कि:
“जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?”
मेरा यह हमेशा से मानना रहा है कि इमानदार कवितायें किसी भी बात , भाव या समस्या को बेहतर तरीके से समझने और उसके तह तक जाने का सबसे अच्छा जरिया होती हैं. सच कहूँ तो एन डी टी वी के कल के कार्यक्रम ने मेरी इस अवधारणा में एक और पहलू जोड दिया कि एक देश , उसकी सत्ता और वहाँ की जनता की समस्या को समझने के लिये इमानदार कवियों , लेखकों के लेखन से गुजरना उतना ही जरूरी है जितना कि किसी इलाके में जाकर कर वहाँ के मुद्दों को जानना है. इसी लिये आज मैं निर्मला पुतुल और उनकी एक कविता की बात करूंगी. यह इसलिये नहीं कि मैं उनकी कविता की कोई बहुत महान समीक्षा करूँगी या फिर इसलिये नहीं कि निर्मला पुतुल को एक बहुत महान कवियत्री साबित करने का इरादा है यहाँ मैं उनकी कविता और उसमें उठाये गये मुद्दे को इसलिये रख् रही हूँ क्योंकि कल देश के कुछ ख्यातनाम लोगों ने टी वी के एक् कार्यक्रम में बैठ्कर देश के एक बहुत बडे हिस्से में रहने वाले लोगों की समस्या पर अपनी राय व्यक्त की जिसमें जिसमें इस देश के एक पूर्व सेनाध्यक्ष आदिवासी बहुल इलाके के सम्बन्ध में अपनी राय व्यक्त करते हुए कहते है कि ‘इस पूरे इलाके में आज तक कोई भी पेनीट्रेट नहीं कर पाया है’ मैं संजय निरुपम जो कि एक राष्ट्रीय पार्टी के सदस्य है की भाषा को समझने के प्रयास में हूँ जब वो प्रो. गोपाल को चुप कराने के लहज़े में कहते हैं कि प्रोफेसर साहेब इस तरह के उपदेश ना दें और इसके साथ ही मैं देश की दूसरी बडी पार्टी भाजपा का भी मंतव्य समझने का प्रयास कर रही हूँ क्योंकि इस चर्चा में उनका सुर कांगेस के सुर से अलग नहीं था जबकि वो पार्टी वनवासी आश्रम चलाकर आदिवासी जीवन के बहुत करीब होने का लगातार दावा करती रही है.
देखा जाये तो इस पूरी चर्चा में प्रो. हरगोपाल को छोड्कर चर्चा में भाग लेने वाला कोई भी दिग्गज़ उस बडे हिस्से में रहने वाले लोगों के सवालों का कोई भी जवाब देने में ना केवल अक्षम था बल्कि उन सीधे साधे सवालों के पास भी नहीं पहुंच पाया था . मैं निर्मला की कविता को यहाँ इसलिये रख रही हू क्योंकि आज भी आम आदिवासी के वही सवाल हैं जो निर्मला उठा रही हैं और इन्हीं कुछ मूल प्रश्नो को भी इस चर्चा में रखने का प्रयास किया गया था जिसे एक नेता ने कुछ इस तरह दबाने का प्रयास किया जैसे उस प्रोफेसर ने उन मूल सवालों को उठाकर गुनाह कर दिया हो? पढिये निर्म्मला की कलम से आदिवासी जमात के कुछ मूल सवाल ---------
अगर तुम मेरी जगह होते
जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को.
जरा सोचो न, कैसा लगता?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगो के बीच
और तुम सामने हाथ बाँधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
................... निर्मला पुतुल
निर्मला की इस कविता पर बात कहाँ से शुरु करूँ समझ नहीं पा रही. सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कवितायें देश का प्रधान नहीं पढता ? सोच रही हूँ कि इस तरह की कवितायें देश का सेनाध्यक्ष नहीं पढता? और यह भी सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कविताओं पर देश की पुलिस की भी नज़र नहीं जाती? अगर नहीं जाती तो यह इस देश का दुर्भाग्य ही है क्योंकि अगर वह इस तरह के साहित्य से गुजरे होते इस तरह की चर्चाओं में उनके बयान की गम्भीरता कुछ और ही होती
मैने इस कविता को पहले कई बार पढा है और जब भी पहले इसे पढा तो सोचती रही कि निर्मला के सारे सवाल आखिर किससे हैं? क्या गैर आदिवासियों से ? या फिर सत्ता और उसके आस पास बैठे उनसे जो कल चर्चा का हिस्स थे ? किससे ?क्योंकि जब भी इस कविता को ध्यान से पढा है और समझने की कोशिश की है तो लगा है जैसे कि यह सवाल तो इस देश का अधिकांश नागरिक पूछ रहा है. जरा गौर से पढिये पुतुल को ............क्या यह सवाल उत्तर प्रदेश के उस गाँव के किसानों के नहीं हैं जिसके खेत का सरकार अधिग्रह्ण कर बिल्डर्स को देती है ? क्या यह सवाल सुदूर हिमांचल में रहने वाले लोगों के नहीं हैं? क्या यह सवाल गवाँर सम्मझे जाने वाले लोगों के नहीं हैं? क्या यह सवाल गरीब हरिजन के नहीं हैं ? हाँलाकि देखा जाये तो यह सभी सवाल पुतुल अपनी जमात की तरफ से कर रही हैं किंतु यह सवाल एक शास्वत सवाल है
अगर इस कविता के माध्यम से सिर्फ आदिवासी जमात की ही बात की जाये तो भी कविता कुछ मूल भूत व्यव्हारिक बात को हमारे सामने सरलता से लाती है. देखा जाये तो यह कविता एक ही देश में हो रहे नागरिकों के बीच की भयानक दूरी, कुंठा, क्षोभ और गहरे आक्रोश को व्यक्त करती है . आप इस कविता की निम्न पंक्तियों को पढे कई बातें और उसकी परतें साफ साफ खुलती जातीं हैं -
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
पर यहाँ मैं इस कविता को सिर्फ और सिर्फ आदिवासी जीवन, उसके सवाल और उसके आक्रोश से जोडकर ही देखने की कोशिश करूंगी ताकि हम आदिवासी सवाल से उसके आक्रोश और फिर नक्सल वाद तक के उनके सफर और साथ ही साथ दिल्ली दरबार , उसकी फितरत और वहा बैठे साझ्दारों की समझ के भी सफर की झलक देख सकने की कोशिश कर सकें...... यह इसलिये भी कि यह आलेख कल की चर्चा के आलोक में लिख रही हूँ
............... शेष अगले भाग मे^
.
मित्रों ,
आज मैं गहरी सोच में हूँ. एक तरह की नारज़गी में. बार बार यह समझने की कोशिश में हूँ कि देश का मतलब क्या होता है? नागरिक का मतलब क्या होता है? और यह भी समझने की लगातार कोशिश कर रही हूँ कि क्या एक देश के नागरिक और उसके प्रश्न क्या होने चाहिये? यह भी कि नागरिक सुरक्षा का मतलब क्या है? सालों से यह सवाल मुझे बेतरह परेशान करते रहे हैं किंतु जबसे मैनें आदिवासी जीवन को करीब से देखा है उसे जाना है ये सवाल हर वक्त मेरे जेहन में किसी कीडे की तरह रेंगते रहते हैं कि इस देश में आदिवासी होना क्या आपको पूरी सुरक्षा देता है ? क्या आपके सवालों को दिल्ली दरबार तक पहुंचाता है ? ..........और सच कहूँ तो जब एक आदिवासी के घर में खडे होकर मन में यह सवाल उठते हैं तो मन बडी शिद्द्त से जवाब मांगता है क्योंकि मध्यप्रदेश से लेकर अन्ध्रा तक उत्तर प्रदेश से लेकर उडीसा तक आदिवासी जीवन की त्रासदी एक सी है और सवाल , मांगें और उम्मीदें भी एक सी हैं.......आदिवासी कभी भीख नहीं मांगता, वह मेह्नत करता है और अपने आस पास की प्रकृति का रखवाला है .............ऐसा आदिवासियों का अपने बारे में विचार है किंतु आज़ादी के बाद के 65 साल में इस देश की पूरी जनजाति के जीवन उसकी संस्कृति और सभ्यता के साथ जो कुछ हुआ है उसने आदिवासी जन के मन में मनो सवाल लादे हैं.............. यही वज़ह है कि आदिवासी जन की बात करते हुए मुझे पुतुल की कवितायें बेतरह याद आती हैं............. खासकर तब जब वह सवाल करते हुए कहती हैं कि:
“जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?”
मेरा यह हमेशा से मानना रहा है कि इमानदार कवितायें किसी भी बात , भाव या समस्या को बेहतर तरीके से समझने और उसके तह तक जाने का सबसे अच्छा जरिया होती हैं. सच कहूँ तो एन डी टी वी के कल के कार्यक्रम ने मेरी इस अवधारणा में एक और पहलू जोड दिया कि एक देश , उसकी सत्ता और वहाँ की जनता की समस्या को समझने के लिये इमानदार कवियों , लेखकों के लेखन से गुजरना उतना ही जरूरी है जितना कि किसी इलाके में जाकर कर वहाँ के मुद्दों को जानना है. इसी लिये आज मैं निर्मला पुतुल और उनकी एक कविता की बात करूंगी. यह इसलिये नहीं कि मैं उनकी कविता की कोई बहुत महान समीक्षा करूँगी या फिर इसलिये नहीं कि निर्मला पुतुल को एक बहुत महान कवियत्री साबित करने का इरादा है यहाँ मैं उनकी कविता और उसमें उठाये गये मुद्दे को इसलिये रख् रही हूँ क्योंकि कल देश के कुछ ख्यातनाम लोगों ने टी वी के एक् कार्यक्रम में बैठ्कर देश के एक बहुत बडे हिस्से में रहने वाले लोगों की समस्या पर अपनी राय व्यक्त की जिसमें जिसमें इस देश के एक पूर्व सेनाध्यक्ष आदिवासी बहुल इलाके के सम्बन्ध में अपनी राय व्यक्त करते हुए कहते है कि ‘इस पूरे इलाके में आज तक कोई भी पेनीट्रेट नहीं कर पाया है’ मैं संजय निरुपम जो कि एक राष्ट्रीय पार्टी के सदस्य है की भाषा को समझने के प्रयास में हूँ जब वो प्रो. गोपाल को चुप कराने के लहज़े में कहते हैं कि प्रोफेसर साहेब इस तरह के उपदेश ना दें और इसके साथ ही मैं देश की दूसरी बडी पार्टी भाजपा का भी मंतव्य समझने का प्रयास कर रही हूँ क्योंकि इस चर्चा में उनका सुर कांगेस के सुर से अलग नहीं था जबकि वो पार्टी वनवासी आश्रम चलाकर आदिवासी जीवन के बहुत करीब होने का लगातार दावा करती रही है.
देखा जाये तो इस पूरी चर्चा में प्रो. हरगोपाल को छोड्कर चर्चा में भाग लेने वाला कोई भी दिग्गज़ उस बडे हिस्से में रहने वाले लोगों के सवालों का कोई भी जवाब देने में ना केवल अक्षम था बल्कि उन सीधे साधे सवालों के पास भी नहीं पहुंच पाया था . मैं निर्मला की कविता को यहाँ इसलिये रख रही हू क्योंकि आज भी आम आदिवासी के वही सवाल हैं जो निर्मला उठा रही हैं और इन्हीं कुछ मूल प्रश्नो को भी इस चर्चा में रखने का प्रयास किया गया था जिसे एक नेता ने कुछ इस तरह दबाने का प्रयास किया जैसे उस प्रोफेसर ने उन मूल सवालों को उठाकर गुनाह कर दिया हो? पढिये निर्म्मला की कलम से आदिवासी जमात के कुछ मूल सवाल ---------
अगर तुम मेरी जगह होते
जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को.
जरा सोचो न, कैसा लगता?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगो के बीच
और तुम सामने हाथ बाँधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
................... निर्मला पुतुल
निर्मला की इस कविता पर बात कहाँ से शुरु करूँ समझ नहीं पा रही. सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कवितायें देश का प्रधान नहीं पढता ? सोच रही हूँ कि इस तरह की कवितायें देश का सेनाध्यक्ष नहीं पढता? और यह भी सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कविताओं पर देश की पुलिस की भी नज़र नहीं जाती? अगर नहीं जाती तो यह इस देश का दुर्भाग्य ही है क्योंकि अगर वह इस तरह के साहित्य से गुजरे होते इस तरह की चर्चाओं में उनके बयान की गम्भीरता कुछ और ही होती
मैने इस कविता को पहले कई बार पढा है और जब भी पहले इसे पढा तो सोचती रही कि निर्मला के सारे सवाल आखिर किससे हैं? क्या गैर आदिवासियों से ? या फिर सत्ता और उसके आस पास बैठे उनसे जो कल चर्चा का हिस्स थे ? किससे ?क्योंकि जब भी इस कविता को ध्यान से पढा है और समझने की कोशिश की है तो लगा है जैसे कि यह सवाल तो इस देश का अधिकांश नागरिक पूछ रहा है. जरा गौर से पढिये पुतुल को ............क्या यह सवाल उत्तर प्रदेश के उस गाँव के किसानों के नहीं हैं जिसके खेत का सरकार अधिग्रह्ण कर बिल्डर्स को देती है ? क्या यह सवाल सुदूर हिमांचल में रहने वाले लोगों के नहीं हैं? क्या यह सवाल गवाँर सम्मझे जाने वाले लोगों के नहीं हैं? क्या यह सवाल गरीब हरिजन के नहीं हैं ? हाँलाकि देखा जाये तो यह सभी सवाल पुतुल अपनी जमात की तरफ से कर रही हैं किंतु यह सवाल एक शास्वत सवाल है
अगर इस कविता के माध्यम से सिर्फ आदिवासी जमात की ही बात की जाये तो भी कविता कुछ मूल भूत व्यव्हारिक बात को हमारे सामने सरलता से लाती है. देखा जाये तो यह कविता एक ही देश में हो रहे नागरिकों के बीच की भयानक दूरी, कुंठा, क्षोभ और गहरे आक्रोश को व्यक्त करती है . आप इस कविता की निम्न पंक्तियों को पढे कई बातें और उसकी परतें साफ साफ खुलती जातीं हैं -
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
पर यहाँ मैं इस कविता को सिर्फ और सिर्फ आदिवासी जीवन, उसके सवाल और उसके आक्रोश से जोडकर ही देखने की कोशिश करूंगी ताकि हम आदिवासी सवाल से उसके आक्रोश और फिर नक्सल वाद तक के उनके सफर और साथ ही साथ दिल्ली दरबार , उसकी फितरत और वहा बैठे साझ्दारों की समझ के भी सफर की झलक देख सकने की कोशिश कर सकें...... यह इसलिये भी कि यह आलेख कल की चर्चा के आलोक में लिख रही हूँ
............... शेष अगले भाग मे^
.
Thursday, April 5, 2012
मेरी कलम भी बोलती है निरंतर
मैं उससे कहना चाह रहा था कि -
‘’हम किसी विषय पर बोल देंगे
बुलाओ तो सही
हम किसी विषय पर लिख देंगे
छापो तो सही
सिलसिला बस यूँ ही चलते रहना चाहिये
ताकि जिन्दा रहें हम
सिलसिला बस यूँ ही बने रहना चाहिये
ताकि मिलते रहें हम
आगे बढना अब मवाकों का तकाज़ा है
यह इंतज़ार करने का वक्त बचा नहीं
कि कोई आमंत्रित करेगा मेरी बात सुनेगा और वाह वाह कर
सम्मानित करेगा .....’’
वह आवाक, अपलक मुझे ऐसे निहार रहा था
जैसे जमाने से आदमजात को देखा ही ना हो
ना ही देखा हो मेरे जैसे लालची को
जिसे छपने की इतनी ललक थी
जिसे बोलने की इतनी इच्छा ?
मैने उससे फिर कहा
तुम सोच रहे हो ना कि यह कैसा लेखक है सोच रहे हो ना कि यह कैसी ललक है
बिना रीढ का नहीं हूँ मैं
किंतु शराफत के साथ इस इंतज़ार में
लिखता रहा कि
कभी तो किसी की नज़र पडेगी
कोई बुलायेगा एक मौका देगा
पर
अब बिना कहे नहीं रहना चाहता
और ना ही
बिना छपे क्योंकि
अपनी कलम भी
बोलती है , कुछ कहती है
उसे पहुंचाने के लिये
सब तक
लेना चाहता हूँ एक रिस्क
क्योंकि
मेरी कलम भी बोलती है निरंतर
शब्द शब्द तोडती है किला
और हर गुजरते साल के साथ
मजबूत हो कमर कस लेती है
बहुत कुछ कहने को
बहुत कुछ लिखने को
.........................................एक लम्बी कविता का अंश
‘’हम किसी विषय पर बोल देंगे
बुलाओ तो सही
हम किसी विषय पर लिख देंगे
छापो तो सही
सिलसिला बस यूँ ही चलते रहना चाहिये
ताकि जिन्दा रहें हम
सिलसिला बस यूँ ही बने रहना चाहिये
ताकि मिलते रहें हम
आगे बढना अब मवाकों का तकाज़ा है
यह इंतज़ार करने का वक्त बचा नहीं
कि कोई आमंत्रित करेगा मेरी बात सुनेगा और वाह वाह कर
सम्मानित करेगा .....’’
वह आवाक, अपलक मुझे ऐसे निहार रहा था
जैसे जमाने से आदमजात को देखा ही ना हो
ना ही देखा हो मेरे जैसे लालची को
जिसे छपने की इतनी ललक थी
जिसे बोलने की इतनी इच्छा ?
मैने उससे फिर कहा
तुम सोच रहे हो ना कि यह कैसा लेखक है सोच रहे हो ना कि यह कैसी ललक है
बिना रीढ का नहीं हूँ मैं
किंतु शराफत के साथ इस इंतज़ार में
लिखता रहा कि
कभी तो किसी की नज़र पडेगी
कोई बुलायेगा एक मौका देगा
पर
अब बिना कहे नहीं रहना चाहता
और ना ही
बिना छपे क्योंकि
अपनी कलम भी
बोलती है , कुछ कहती है
उसे पहुंचाने के लिये
सब तक
लेना चाहता हूँ एक रिस्क
क्योंकि
मेरी कलम भी बोलती है निरंतर
शब्द शब्द तोडती है किला
और हर गुजरते साल के साथ
मजबूत हो कमर कस लेती है
बहुत कुछ कहने को
बहुत कुछ लिखने को
.........................................एक लम्बी कविता का अंश
Wednesday, March 14, 2012
बेटे ने माँ से पूछा है
आज बेटे ने माँ से पूछा है
ये तुम्हारे चेहरे पर निशान कैसे हैं? कैसी है ये पीठ पर सांठ ? कल तो नहीं थी?
कल तुम्हारी आंखें सूजी भी नहीं थी ? ना ही कल तुम कहीं गिरी थी
फिर ?
रात धुत्त शराब में वह जल्लाध थे यह तो देखा था मैने
थाली पटकते भी देखा था
तुम्हारी कलाईयों को मडोड्ते भी देखा था
पर
ये चेहरे के निशान, ये सांठ , आंखों की ये सूजन? अचम्भे में हूँ
दुखी हूँ , असहनीय पीडा में हूँ
क्रोधित भी
क्या करूँ? तोड दूँ म्रर्यादा ?
तान दूँम भृकुटियाँ उनपर ?
दर्द में सुबकती सन्नाटे को भेदती एक आवाज गरजी
मैन निपट रही हूँ विरासत में दी गयी
अपने हिस्से की त्रासदियों से
बना रही हूँ एक ब्लू प्रिंट अगली पीढी को
टीपनुमा कुछ देने के लिये
अगर चाहता है कि
मेरे चेहरे से ये निशान जायें तो याद रख कि
आने वाली पीढियाँ इस घर में
ऐसा कोई दृश्य ना देखें
किसी माँ से फिर से तेरे जैसे सवाल ना पूछें
सुन
यह अकेले जिम्मेदारी तेरी है ऐसा मैं नहीं कहती
तू इसे गुन यह जरूरी है
तू इसे सुन ये भी जरूरी है
तस्वीर तो बदल ही जायेगी
एक दिन
.......................अलका
ये तुम्हारे चेहरे पर निशान कैसे हैं? कैसी है ये पीठ पर सांठ ? कल तो नहीं थी?
कल तुम्हारी आंखें सूजी भी नहीं थी ? ना ही कल तुम कहीं गिरी थी
फिर ?
रात धुत्त शराब में वह जल्लाध थे यह तो देखा था मैने
थाली पटकते भी देखा था
तुम्हारी कलाईयों को मडोड्ते भी देखा था
पर
ये चेहरे के निशान, ये सांठ , आंखों की ये सूजन? अचम्भे में हूँ
दुखी हूँ , असहनीय पीडा में हूँ
क्रोधित भी
क्या करूँ? तोड दूँ म्रर्यादा ?
तान दूँम भृकुटियाँ उनपर ?
दर्द में सुबकती सन्नाटे को भेदती एक आवाज गरजी
मैन निपट रही हूँ विरासत में दी गयी
अपने हिस्से की त्रासदियों से
बना रही हूँ एक ब्लू प्रिंट अगली पीढी को
टीपनुमा कुछ देने के लिये
अगर चाहता है कि
मेरे चेहरे से ये निशान जायें तो याद रख कि
आने वाली पीढियाँ इस घर में
ऐसा कोई दृश्य ना देखें
किसी माँ से फिर से तेरे जैसे सवाल ना पूछें
सुन
यह अकेले जिम्मेदारी तेरी है ऐसा मैं नहीं कहती
तू इसे गुन यह जरूरी है
तू इसे सुन ये भी जरूरी है
तस्वीर तो बदल ही जायेगी
एक दिन
.......................अलका
Tuesday, March 13, 2012
प्रेम की परिभाषाओं के बीच
एक बहुत पुरानी रचना ..........................आप सबकी नज़र
‘प्रेम’ करती रही थी
हर उस से जो मेरे आस पास था
हर पल जिनके साथ महसूस करती थी
अपनापन, दिल के करीब होने का मतलब
माँ-बाबा, भाई-बहन, चाचा-ताऊ, दादा-दादी और भी बहुत थे
इस प्रेम के दायरे में
अपने नन्हें हांथों से बडी हो गयी इन हथेलियों तक
सालों उनके आस पास बनी रही
बिना यह जाने कि इस परिधि के परे भी
प्रेम की परिभाषायें हैं
बिना यह जाने कि उस प्रेम का पडाव
हर किसी के जीवन में आता है
हौले से .
बिना यह जाने कि एक दिन
बडे हो गये इन हाथों से लिपटा वो प्रेम
मेरे विरोध में खडा हो जायेगा
जब अनुभूति बन वह प्रेम
दबे पाँव आयेगा
एक वो राजकुमार आयेगा
घोडे पर चढकर जिसके सपने होंगे राजकुमारी के मन में
वो ले जायेगा उस परी सी राजकुमारी को
ऐसा नानी कई बार सुनाया था
एक कहानी कह बचती रही थी
राजकुमार और राजकुमारी की प्रेम कहानी
सुनाने से
पर इस कहानी ने रोप दिया था
एक राजकुमार मेरे मन में भी
अज़ीब इंतज़ार था उस राजकुमार का
एक अज़ीब कसमसाहट उस प्रेम को जानने की
ना जाने कब
मुझे उसका आस पास होना अच्छा लगने लगा
उसका मुझे देखना अच्छा लगने लगा
प्रेम की नयी अनुभूति की आहट पर मुग्ध
समझने की कोशिश करने लगी थी
तमाम परिभाषा के बीच लिखने की मैं भी कोशिश करने लगी थी
एक अपनी परिभाषा प्रेम के समझ की
मेरे छत की मुडेर, बाहर वाला दरवाज़ा, खिडकियाँ
सब पर मेरी आंखें जैसे बैठ गयी थीं
साथ ही साथ
कुछ सवाल होंठों से चिपक गये थे
कि यही है वह प्रेम ?
एक दिन प्रेम की गहरी अनुभूति के बीच
साहस कर कह बैठी उससे –
अच्छे लगते हो मुझे तुम
बहुत अच्छे
प्यार करती हूँ तुमसे,,,,,,,,बहुत
यह एक उल्टा पहल थी एक स्त्री के मुँह से
प्रेम का कबूलनामा
आश्चर्य में डाल गया था उसे
आंखे चौडी कर पहले उसने मुझे पूरी आंखों से देखा
और खडा हो गया जैसे चलने को हो
पर अचानक पलट कर बोला
अच्छी तो तुम भी लगती हो मुझे
लेकिन दोस्त कहते हैं यह कहना तो
मर्द का काम है
लडकियाँ यह कहते अच्छी नहीं लगतीं
उन्हें इस बात का इंतज़ार करना चाहिये
कि कब कोई उसे
आई लव यू . कहता है
जब कोई जो उसे प्यार करता है – कहे कि
आई लव यू..
तो उसके चेहरे पर शर्म की चादर होनी चाहिये
यही तो भारतीय नारी की गरिमा है
प्रेम की इस नयी परिभाषा में
यह पहली गेंद थी
औरत की तरफ फेंकी गयी पहली बात
कि बोलना तुम्हारा काम नहीं
यह मेरे प्रेम की परिभाषा का राज कुमार नहीं था
ना ही यह मेरी परिभाषा के शब्द थे
वो जो मेरी आंखों में आंखे डाल
मेरे शब्दों को अपना कह
हाथ पकड लेगा
उसी के इंतज़ार में हूँ
......................अलका
‘प्रेम’ करती रही थी
हर उस से जो मेरे आस पास था
हर पल जिनके साथ महसूस करती थी
अपनापन, दिल के करीब होने का मतलब
माँ-बाबा, भाई-बहन, चाचा-ताऊ, दादा-दादी और भी बहुत थे
इस प्रेम के दायरे में
अपने नन्हें हांथों से बडी हो गयी इन हथेलियों तक
सालों उनके आस पास बनी रही
बिना यह जाने कि इस परिधि के परे भी
प्रेम की परिभाषायें हैं
बिना यह जाने कि उस प्रेम का पडाव
हर किसी के जीवन में आता है
हौले से .
बिना यह जाने कि एक दिन
बडे हो गये इन हाथों से लिपटा वो प्रेम
मेरे विरोध में खडा हो जायेगा
जब अनुभूति बन वह प्रेम
दबे पाँव आयेगा
एक वो राजकुमार आयेगा
घोडे पर चढकर जिसके सपने होंगे राजकुमारी के मन में
वो ले जायेगा उस परी सी राजकुमारी को
ऐसा नानी कई बार सुनाया था
एक कहानी कह बचती रही थी
राजकुमार और राजकुमारी की प्रेम कहानी
सुनाने से
पर इस कहानी ने रोप दिया था
एक राजकुमार मेरे मन में भी
अज़ीब इंतज़ार था उस राजकुमार का
एक अज़ीब कसमसाहट उस प्रेम को जानने की
ना जाने कब
मुझे उसका आस पास होना अच्छा लगने लगा
उसका मुझे देखना अच्छा लगने लगा
प्रेम की नयी अनुभूति की आहट पर मुग्ध
समझने की कोशिश करने लगी थी
तमाम परिभाषा के बीच लिखने की मैं भी कोशिश करने लगी थी
एक अपनी परिभाषा प्रेम के समझ की
मेरे छत की मुडेर, बाहर वाला दरवाज़ा, खिडकियाँ
सब पर मेरी आंखें जैसे बैठ गयी थीं
साथ ही साथ
कुछ सवाल होंठों से चिपक गये थे
कि यही है वह प्रेम ?
एक दिन प्रेम की गहरी अनुभूति के बीच
साहस कर कह बैठी उससे –
अच्छे लगते हो मुझे तुम
बहुत अच्छे
प्यार करती हूँ तुमसे,,,,,,,,बहुत
यह एक उल्टा पहल थी एक स्त्री के मुँह से
प्रेम का कबूलनामा
आश्चर्य में डाल गया था उसे
आंखे चौडी कर पहले उसने मुझे पूरी आंखों से देखा
और खडा हो गया जैसे चलने को हो
पर अचानक पलट कर बोला
अच्छी तो तुम भी लगती हो मुझे
लेकिन दोस्त कहते हैं यह कहना तो
मर्द का काम है
लडकियाँ यह कहते अच्छी नहीं लगतीं
उन्हें इस बात का इंतज़ार करना चाहिये
कि कब कोई उसे
आई लव यू . कहता है
जब कोई जो उसे प्यार करता है – कहे कि
आई लव यू..
तो उसके चेहरे पर शर्म की चादर होनी चाहिये
यही तो भारतीय नारी की गरिमा है
प्रेम की इस नयी परिभाषा में
यह पहली गेंद थी
औरत की तरफ फेंकी गयी पहली बात
कि बोलना तुम्हारा काम नहीं
यह मेरे प्रेम की परिभाषा का राज कुमार नहीं था
ना ही यह मेरी परिभाषा के शब्द थे
वो जो मेरी आंखों में आंखे डाल
मेरे शब्दों को अपना कह
हाथ पकड लेगा
उसी के इंतज़ार में हूँ
......................अलका
Saturday, March 3, 2012
प्रेम चंद गांधी की 'नास्तिको की भाषा' का मतलब
प्रेम चन्द गान्धी से मेरा परिचय फेसबुक पर हुआ हलांकि फेसबुक पर मैने उनकी कोई कविता इससे पहले नहीं पढी थी. यह पहली कविता थी उनकी जिसे फेसबुक के माध्यम् से मेरे द्वारा समालोचन पर पढी गयी. इस कविता को सामालोचन के सम्पादक अरुण देव ने फेसबुक पर शेयर किया था. प्रेमचन्द गान्धी की कविता एक बार फिर भाषा पर ही बात करती हुई? रोचक विषय था. रोचक इसलिये भी कि पहली बार एक ऐसी भाषा की व्याख्या पढ रही थी जिसे मैनें आस्थाओं के इस देश में टुकडे –टुकडे में कभी कभार ही सुना होगा. दरअसल आज तक नास्तिक होने का मतलब आस्तिकों की जमात के सामने विरोध का परचम लिये खडे किसी एक आध व्यक्ति को ही देखा और समझा था और यह कविता उसे एक जमात के रूप में चित्रित कर उसकी भाषा पर बात कर रही थी इसलिये इसकी रोचकता निरंतर बनी हुई थी इसलिये इसे पढने और इसपर लिखने से खुद को रोक नहीं पायी. वैसे भी यह कविता एक ऐसे दौर में लिखी गयी है जिसमें व्यक्ति के नास्तिक होने और उसकी अपनी भाषा का अपना ही मतलब है. प्रेम चन्द गाँघी की कविता ‘ ‘नास्तिकों की भाषा’ को समझने का प्रयास इस समीक्षा के माध्यम से कर रही हूँ. प्रेम चन्द गांघी का नाम हिन्दी जगत में जाना पहचाना है फिर भी यहा एक औपचारिक परिचय देना आवश्यक है: .
प्रेमचंद गांधी
जन्म : २६ मार्च, १९६७,जयपुर
कविता संग्रह : इस सिंफनी में
निबंध संग्रह : संस्कृरति का समकाल
कविता के लिए लक्ष्म ण प्रसाद मण्डंलोई और राजेंद्र बोहरा सम्माून
कुछ नाटक लिखे, टीवी और सिनेमा के लिए भी काम
दो बार पाकिस्ताखन की सांस्कृ तिक यात्रा.
विभिन्नप सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी.
ई पता : prempoet@gmail.com
बहरहाल ‘नास्तिकों की भाषा’ को पढ्कर तो मेरी पेशानी पर जैसे बल पड गये. थोडी देर के लिये दिमाग जैसे एक कोने में बैठ्कर आराम से सोचने की मांग करने लगा ताकि नास्तिकों की दुनिया और उनके शब्द और सम्प्रेषण को समझा जा सके. कविता ने नास्तिकों के दुनिया और उनकी भाषा को लेकर जो वक्तव्य सामने रखे उसे आसानी से समझ पाना बेहद कठिन था क्योंकि इतनी सरल और छोटी है नास्तिकों की भाषा ? जितनी बार इसपर नज़र गयी कुछ गूढ प्रश्न एक एक करके सामने आने लगे. कविता एक ही साथ दर्शन, मानव विकास और मनोविज्ञान जैसे विषयों के पायों पर खडी नज़र आ रही थी. एक संकट था मेरे सामने कि मैं कविता के दर्शन पर बात करूं या फिर कविता के मनोविज्ञान पर बात करूँ? या फिर कविता के साथ मानव विकास , भाषा के विकास और के कालखन्ड जिसमें यह कविता लिखी जा रही है उस परिवेश की बात करूँ या फिर इससे जुडे कुछ अन्य विषयों पर बात करूं? इस तरह एक घनीभूत सोच के साथ एक लम्बी खामोशी की स्थिति थी दिमागी स्तर पर. वहीं दूसरी तरफ प्रश्नो की एक श्रृंखला भी इस कविता ने सामने रखी थी. जो पहला मूल प्रश्न खडा किया वो था कि आस्था क्या है ? दूसरा जो बडा सवाल था वो था नास्तिक होने का मतलब क्या है ? और इन सबसे जुडे कई सवाल जैसे विकास और आस्था का रिश्ता क्या ? भाषा की उत्पत्ति के पीछे का सच क्या है ? और यह भी कि मौन की भाषा ही क्यों बची रह गयी है एक नास्तिक के पास ? पर मेरे सामने सबसे बडा सवाल था कि कवि क्यों इस मनोदशा में है कि उसे इस दौर में अपने नास्तिक होने का सबूत भी देना पड रहा है और बताना भी पड रहा है कि हमारी भी एक भाषा है जिसमें शब्द जाल नहीं हैं. इस कविता को लेकर यह भी बडा कठिन है कि बात कहां से शुरु की जाये पर बात कहीं ना कहीं से तो शुरू करनी ही होगी. बात की शुरुआत से पहले प्रेमचन्द गान्धी की ‘नास्तिकों की भाषा’को पढ लेते हैं :
हमारी भाषा में बहुत कम हैं
सांत्वना के शब्द
किसी भी दिवंगत के परिजनों को
हम सिर्फ मौन से ही बंधाते हैं ढाढ़स
शोकसभा के मौनकाल में हम
नहीं बुदबुदाते किसी ईश्वर का नाम.
::
दुनिया की तमाम
ताकतवर चीजों से
लड़ती आई है हमारी भाषा
जैसे हिंसक पशुओं से जंगलों में
शताब्दियों से कुलांचे भर-भर कर
जिंदा बचते आए हैं
शक्तिशाली हिरणों के वंशज
खून से लथपथ होकर भी
हार नहीं मानी जिस भाषा ने
जिसने नहीं डाले हथियार
किसी अंतिम सत्ता के सामने
हम उसी भाषा में गाते हैं
हम उस जुबान के गायक हैं
जो इंसान और कायनात की जुगलबंदी में
हर वक्त
हवा-सी सरपट दौड़ी जाती है.
::
प्रार्थना जैसा कोई शब्द
हमारी भाषा में नहीं समा सका
मौन ही हमारा ध्येय वाक्य रहा
दुनिया की सबसे सरल सभ्यताओं की तरह
हमारे पास भी थे सबसे कम शब्द
मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
ईजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी
जहां कुछ ही शब्दों की ज़रूरत थी
जैसे ‘संघर्ष’.
::
सबसे बुरे दिनों में भी
नहीं लड़खड़ाई हमारी जुबान
विशाल पर्वतमाला हो या
चौड़े पाट वाली नदियां
रेत का समंदर हो या
पानी का महासागर
किसी को पार करते हुए
हमने नहीं बुदबुदाया
किसी अलौकिक सत्ता का नाम
पीढि़यों से जानते हैं हम
जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी ईश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा.
::
झूठ जैसा शब्द
नहीं है हमारे पास
सहस्रों दिशाएं हैं
सत्य की राह में जाने वाली
सारी की सारी शुभ
अपशकुन जैसी कोई धारणा
नहीं रही हमारे यहां
अशुभ और अपशकुन तो हमें माना गया.
::
हमने नहीं किया अपना प्रचार
बस खामोश रहे
इसीलिए गैलीलियो और कॉपरनिकस की तरह
मारे जाते रहे हैं सदा ही
हमने नहीं दिए उपदेश
नहीं जमा की भक्तों की भीड़
क्योंकि हमारे पास नहीं है
धार्मिक नौटंकी वाली शब्दावली.
::
क्या मिश्र क्या यूनान
क्या फारस क्या चीन
क्या भारत क्या माया
क्या अरब क्या अफ्रीका
सहस्रों बरसों में सब जगह
मर गए हजारों देवता सैंकड़ों धर्म
नहीं रहा कोई नामलेवा
हमारे पास नहीं है
मजहब और देवता जैसे लफ्ज
इसीलिए बचे हुए हैं हम और हमारी जुबान.
::
याचना और प्रार्थना के गीत
नहीं संभव हमारे यहां
हम नहीं रच सकते
जीवन से विरक्ति के गीत
इसलिए हमारे कवियों ने रचे
उत्कट और उद्दाम आकांक्षाओं के गीत
जैसे सृष्टि ने रचा
समुद्र का अट्टहास
हवा का संगीत.
::
भले ही नहीं हों हमारे पास
पूजा और प्रार्थना जैसे शब्द
इनकी जगह हमने रखे
प्रेम और सम्मान जैसे शब्द
इस सृष्टि में
पृथ्वी और मनुष्य को बचाने के लिए
बहुत जरूरी हैं ये दो शब्द.
::
हमें कभी जरूरत नहीं हुई
दूसरी जुबानों से शब्द उधार लेने की
औरों ने हमारे ही शब्दों से बना लिए
नए-नए शब्द और पद
दुनिया की सबसे छोटी और पुरानी
हमारी भाषा
और क्या दे सकती थी इस दुनिया को
सिवाय कुछ शब्दों के
जैसे सत्य, मानवता और परिवर्तन.
( कोई भी कवि जब कविता लिखकर लोगों को समर्पित कर देता है तो वह कविता कवि के साथ उन सबकी हो जाती है जो इस कविता से किसी भी तरह खुद को जोडते हैं किंतु फिर भी इस कविता पर कोई बात करने से पहले कवि के बारे में यह बात स्पष्ट कर दूँ कि प्रेम चन्द गान्धी अपने को नास्तिक कहते है और इस तरह यह कविता एक नास्तिक व्यक्ति का वक्तव्य है किंतु बकौल प्रेम चंद गांघी नास्तिको की भी कुछ आस्था होती है .....) बहर हाल अब बात कविता की.
कुछ मूलभूत सवालों से पहले हमें इस कविता के कवि , उसके काल खंड और उस परिवेश पर बात करनी होगी /चाहिये जिसमें यह कविता लिखी गयी है. यह कविता, कवि और इस कविता के पीछे के भाव के साथ न्याय करना होगा जिस सन्दर्भ को ध्यान में रखकर यह कविता लिखी गयी लगती है. हालांकि कविता ने जो मूल और गूढ प्रश्न छोडे हैं उसपर बात किये बिना कविता पर बात अधूरी ही रहेगी.
दरअसल जब मैं इस कविता को एक पाठक की तरह पढती हूँ सवालों के कीडे कुलबुलाने लगते हैं. मन कविता के हर वक्तव्य पर पहले सोचने और सवाल करने को मजबूर हो जाता है यही कारण है कि मैं इस कविता के उस नास्तिक की जगह खुद को रख कर देखती हूँ ताकि उस् मन:स्थिति और इस कविता की उपज को उसी स्तर पर समझा जा सके. यह जाना जा सके कि एक व्यक्ति की मन:स्थिति क्या और क्यों होती है जब वह ‘नास्तिक’ जैसे खयालों के इर्द गिर्द अपने को पाता है. ऐसा करते ही मेरे सामने कई बिम्ब अचानक उभर आते हैं. पहला चित्र जो उभरता है वह कविता के आरभ से बनता है. आप देखें जब बात शुरु होती है कि .
’हमारी भाषा में बहुत कम हैं
सांत्वना के शब्द
किसी भी दिवंगत के परिजनों को
हम सिर्फ मौन से ही बंधाते हैं ढाढ़स
शोकसभा के मौनकाल में हम
नहीं बुदबुदाते किसी ईश्वर का नाम.’’
इस वक्तव्य की शुरुआत से ऐसा लगता है कि जैसे किसी शोक सभा से लौट रही जमात में किसी ने उस चुप रहने वाले व्यक्ति जो पूरी शोक सभा में उस समय मौन था जब सारे लोग दिवंगत के परिजनों को सांतवना दे रहे थे से जैसे पूछा हो कि, ‘’मित्र तुमने उन्हें ढाढ्स नहीं बधाया परिजनों को? तुम नहीं गये उनके पास जब सब ढाढ्स बधा रहे थे उन्हें? ...............और ऐसे में व्यक्ति एक साथ कई मन:स्थितियों से गुजरता है. यह कविता उन्हीं मन:स्थितियों से गुजरते हुए एक व्यक्ति की उस पूछने वाले व्यक्ति को दी गयी सफाई सी लगती है कि वह क्यों मौन रहा जब सब अपने अपने ईश्वर के खाने में खडे हो सांत्वना दे रहे थे जैसे कि अब ईश्वर को यही मंजूर था’’ ‘हम तुम तो माटी के पुतले हैं’ ‘अब चुप हो जाओ वह लौट कर नहीं आयेगा’ ‘भगवान ने उसे भेजा था और वह भगवान् के पास चला गया’ ..........आदि आदि जैसा कि अमूमन समझाया जाता है और होता है. ऐसे समय में जब कोई चुप हो कोने में खडा मौन हो तो लोगों की नज़र म्में आता ही है और बहुतों की नज़र में सवाल होते हैं .........कई चुप रहते हैं किंतु कुछ यह सवाल कर ही बैठते हैं.....
वहीं इस कविता को यदि व्यक्तिगत स्तर पर महसूस करते हुए देखा जाये तो यह एक अत्मसम्वाद भी करती सी लगती है. जैसे अकेले में एक व्यक्ति खुद से सम्वाद कर रहा हो और कह रहा हो यह सोचते हुए कि उस दिवंगत के परिजन को सांत्वना देने वाले सभी के पास एक ईश्वर था किंतु मेरे पास नहीं........ और तब वह गहरी सम्वेदना में विचार करता है इसीलिये यह खुद से सवाल पूछते व्यक्ति का वक्तव्य सी भी लगती है क्योंकि पूरी कविता खुद को एक अलग खाने में पाते हुए एक खोज सी है.
उपरोक्त दोनो चित्रो के अलावा भी एक चित्र है जो इस कविता को इस दौर की समाजिक स्थिति में फंसे एक सम्वेदंशील व्यक्ति की आत्म्ध्वनि को सामने रखती है. देखा जाये तो यह कविता एक ऐसे दौर में लिखी गयी है जब आस्था और धर्म के घाल मेल से बने छोटे छोटे टापुओं ने दुनिया में सिर्फ मनुष्य ही नहीं बल्कि प्रकृति या यूँ कहें कि इस पृथ्वी के हर जीव को परेशानी में ही डाला है. जहाँ तक इंसान का सवाल है उसका जीवन तो कई बार ना केवल दूभर सा होता रहा है बल्कि मनुष्य होने और उसके जीवन के कुछ मूल प्रश्नो पर सोचने को बार मजबूर किया है. 1984 के दंगो, गुजरात के दंगे और इन दंगों में ईश्वर के खाने में बंटे उनके अनुयाइयों ने जो दृश्य प्रस्तुत किये है उसने एक सम्वेदंशील मनुष्य को इस सोच में प्रतिदिन डाला है कि यदि ईश्वर और उसकी सत्ता है तो फिर यह क्या है ? क्यों आस्थओं में बटा मनुष्य मनुष्य के लिये सबसे घातक हथियार सा हो गया है? इस तरह के प्रश्न में फंसे व्यक्ति के ऐलान की तरह लगती है ये कविता और इसी कारण कवि उस पूरी जमात के लिये जो ईश्वर की सत्ता पर सवाल करता है के लिये एक भाषा की भी बात करती है ताकि अपनी सम्वेदना के साथ अपनी भाषा भी ना केवल गढी जाये किंतु उसे बताया भी जाये. कविता के अंत की कुछ लाईने इस बात का समर्थन करती हैं कि:
हमें कभी जरूरत नहीं हुई
दूसरी जुबानों से शब्द उधार लेने की
औरों ने हमारे ही शब्दों से बना लिए
नए-नए शब्द और पद
जैसे जैसे कविता आगे बढती है वह अपने जमात की खासियत का विस्तार करती जाती है. धर्म, आस्था और भाषा के विकास के बरक्स अपने शब्दों की खोज करती आगे बढती है इस कविता में इसी कारण एक संकट भी नज़र आता है वह है नास्तिक की परिभाषा का संकट और नास्तिक की भाषा के दायरे का संकट. आप कविता के विस्तार में कुछ प्रमुख अंशों को देखें-
‘प्रार्थना जैसा कोई शब्द
हमारी भाषा में नहीं समा सका
मौन ही हमारा ध्येय वाक्य रहा( हमेशा) ‘’
दुनिया की सबसे सरल सभ्यताओं की तरह
हमारे पास भी थे सबसे कम शब्द
मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
ईजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी
जहां कुछ ही शब्दों की ज़रूरत थी
जैसे ‘संघर्ष’.
मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
ईजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी
पीढि़यों से जानते हैं हम
जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी ईश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा.
हमारे पास नहीं है
मजहब और देवता जैसे लफ्ज
इसीलिए बचे हुए हैं हम और हमारी जुबान.
::
याचना और प्रार्थना के गीत
नहीं संभव हमारे यहां
हम नहीं रच सकते
जीवन से विरक्ति के गीत
.................
पूरी कविता मनुष्य की आस्था से गढे गये समाज और उसके तरीकों के विरोध में खडी है जैसे नास्तिक की दुनिया में प्रार्थना जैसे शब्द नहीं हैं याचना नहीं है मजहब और देवता नहीं हैं लम्बी चौडी शब्दावली नहीं है इसीलिये वह और उनकी जुबान बचे हुए हैं और वो जानते हैं कि :
‘’जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी ईश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा.’’
कविता के रूप में यह रचना जरूर आपका ध्यान खींचती है किंतु जो सवाल सामने रखती है और सोचने के लिये बाध्य करती है वह भी उतने ही महत्व्पूर्ण हैं जैसे कि मनुष्य के इतने बडे समूह ने आस्था जैसे शब्द क्यों बनाये? ईश्वर की सत्ता को क्योंकर बनाया? मजहब और देवता क्यों बनाये? कैसे बनते बनते गये मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे और गिरिजाघर ? क्या मानव और मानव का विकास जो हम्मारे सामने है वह मानव के पक्ष में है? इसके साथ ही कुछ मूल सवाल भाषा के विकास , उसके कारण और भाषा की परिधि पर भी हैं क्योंकि मनुष्य के विकास और भाषा का बहुत गहरा नाता है. मानव ने एक ही साथ दोनो काम शुरु किये. जिस समय वो पत्थर से पत्थर रगड कर आग जला रहा था , जमीन से ताम्र लोहा खोद कर युग बना रहा था ठीक उसी के साथ अक्षर, शब्द और वाक्य भी बना रहा था. तो क्या वास्तव में आस्थायें भी गढ रहा था ? अगर गढ रहा था तो किस तरह की आस्था ? और किसके प्रति ? क्या ईश्वर का अस्तित्व विकास की निरंतर प्रक्रिया का परिणाम्म है ? ऐसे कई सवाल हैं जो उपजते हैं.
कविता में बात उन सब बिन्दुओं पर की गयी है जिससे आज मनुष्य परेशान है. वह परेशान है झूठ से , ईश्वर से, मजहब से , आस्था से और आज की भाषा से. और यदि वह इस सब्से परेशान है तो वह आज की सामाजिक आर्थिक और राजनितिक स्थितियों से परेशान है. झूठ को यदि भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में देखें, ईश्वर मजहब और आस्था को राजनिति के एक सब्से कुत्सित रूप में दें और भाषा को को उसके सम्प्रेष्ण के रूप में देखें और परिभाषित करें तो पूरी दुनिया का हर इंसान इसकी सजा भुगत रहा है ............... औए ऐसे में वो जो समाधान देखता है उसमें मौन उसकी भाषा से अधिक उसकी मजबूरी है और वह चुप रहना ही श्रेयष्कर समझता है. और सोचने को मजबूर होता है कि मनुष्य भी तो दुनिया के आम जीव की तरह एक जीव है तो क्या सभी संकटों से निपटने के लिये वह बिना ईश्वर की याचना के नहीं जी सकता ?
कुलमिलाकर देखा जाये तो यह कविता आज की सामाजिक स्थिति में फंसे आदमी की कविता है. आज के आदमी का मनसिक द्वन्द कविता और उसके विस्तार में खूब उभर कर आता है. इसीलिये यह् मनुष्य के जटिल दर्शन , जटिल जीवन , विकास और इन सबसे उपजने वाले द्वन्द और मारकाट के बीच एक सम्वेदंशील मनुष्य की कविता है. जो एक अलग परिभाषा और शब्दावली खोज रहा है ताकि दुनिया को बचाया जा सके किंतु फिर भी आस्था की दुनिया के बरक्स खडा अपनी परिभाषा में अभी उलझा हुआ सा है .....................आने वाले समय में इस दौर के आदमी की उलझन और उसका दर्शन जब भी समझने की कोशिश की जायेगी .यह कविता उसमें मदद अवश्य करेगी
...............................................डा. अल्का सिन्ह
प्रेमचंद गांधी
जन्म : २६ मार्च, १९६७,जयपुर
कविता संग्रह : इस सिंफनी में
निबंध संग्रह : संस्कृरति का समकाल
कविता के लिए लक्ष्म ण प्रसाद मण्डंलोई और राजेंद्र बोहरा सम्माून
कुछ नाटक लिखे, टीवी और सिनेमा के लिए भी काम
दो बार पाकिस्ताखन की सांस्कृ तिक यात्रा.
विभिन्नप सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी.
ई पता : prempoet@gmail.com
बहरहाल ‘नास्तिकों की भाषा’ को पढ्कर तो मेरी पेशानी पर जैसे बल पड गये. थोडी देर के लिये दिमाग जैसे एक कोने में बैठ्कर आराम से सोचने की मांग करने लगा ताकि नास्तिकों की दुनिया और उनके शब्द और सम्प्रेषण को समझा जा सके. कविता ने नास्तिकों के दुनिया और उनकी भाषा को लेकर जो वक्तव्य सामने रखे उसे आसानी से समझ पाना बेहद कठिन था क्योंकि इतनी सरल और छोटी है नास्तिकों की भाषा ? जितनी बार इसपर नज़र गयी कुछ गूढ प्रश्न एक एक करके सामने आने लगे. कविता एक ही साथ दर्शन, मानव विकास और मनोविज्ञान जैसे विषयों के पायों पर खडी नज़र आ रही थी. एक संकट था मेरे सामने कि मैं कविता के दर्शन पर बात करूं या फिर कविता के मनोविज्ञान पर बात करूँ? या फिर कविता के साथ मानव विकास , भाषा के विकास और के कालखन्ड जिसमें यह कविता लिखी जा रही है उस परिवेश की बात करूँ या फिर इससे जुडे कुछ अन्य विषयों पर बात करूं? इस तरह एक घनीभूत सोच के साथ एक लम्बी खामोशी की स्थिति थी दिमागी स्तर पर. वहीं दूसरी तरफ प्रश्नो की एक श्रृंखला भी इस कविता ने सामने रखी थी. जो पहला मूल प्रश्न खडा किया वो था कि आस्था क्या है ? दूसरा जो बडा सवाल था वो था नास्तिक होने का मतलब क्या है ? और इन सबसे जुडे कई सवाल जैसे विकास और आस्था का रिश्ता क्या ? भाषा की उत्पत्ति के पीछे का सच क्या है ? और यह भी कि मौन की भाषा ही क्यों बची रह गयी है एक नास्तिक के पास ? पर मेरे सामने सबसे बडा सवाल था कि कवि क्यों इस मनोदशा में है कि उसे इस दौर में अपने नास्तिक होने का सबूत भी देना पड रहा है और बताना भी पड रहा है कि हमारी भी एक भाषा है जिसमें शब्द जाल नहीं हैं. इस कविता को लेकर यह भी बडा कठिन है कि बात कहां से शुरु की जाये पर बात कहीं ना कहीं से तो शुरू करनी ही होगी. बात की शुरुआत से पहले प्रेमचन्द गान्धी की ‘नास्तिकों की भाषा’को पढ लेते हैं :
हमारी भाषा में बहुत कम हैं
सांत्वना के शब्द
किसी भी दिवंगत के परिजनों को
हम सिर्फ मौन से ही बंधाते हैं ढाढ़स
शोकसभा के मौनकाल में हम
नहीं बुदबुदाते किसी ईश्वर का नाम.
::
दुनिया की तमाम
ताकतवर चीजों से
लड़ती आई है हमारी भाषा
जैसे हिंसक पशुओं से जंगलों में
शताब्दियों से कुलांचे भर-भर कर
जिंदा बचते आए हैं
शक्तिशाली हिरणों के वंशज
खून से लथपथ होकर भी
हार नहीं मानी जिस भाषा ने
जिसने नहीं डाले हथियार
किसी अंतिम सत्ता के सामने
हम उसी भाषा में गाते हैं
हम उस जुबान के गायक हैं
जो इंसान और कायनात की जुगलबंदी में
हर वक्त
हवा-सी सरपट दौड़ी जाती है.
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प्रार्थना जैसा कोई शब्द
हमारी भाषा में नहीं समा सका
मौन ही हमारा ध्येय वाक्य रहा
दुनिया की सबसे सरल सभ्यताओं की तरह
हमारे पास भी थे सबसे कम शब्द
मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
ईजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी
जहां कुछ ही शब्दों की ज़रूरत थी
जैसे ‘संघर्ष’.
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सबसे बुरे दिनों में भी
नहीं लड़खड़ाई हमारी जुबान
विशाल पर्वतमाला हो या
चौड़े पाट वाली नदियां
रेत का समंदर हो या
पानी का महासागर
किसी को पार करते हुए
हमने नहीं बुदबुदाया
किसी अलौकिक सत्ता का नाम
पीढि़यों से जानते हैं हम
जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी ईश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा.
::
झूठ जैसा शब्द
नहीं है हमारे पास
सहस्रों दिशाएं हैं
सत्य की राह में जाने वाली
सारी की सारी शुभ
अपशकुन जैसी कोई धारणा
नहीं रही हमारे यहां
अशुभ और अपशकुन तो हमें माना गया.
::
हमने नहीं किया अपना प्रचार
बस खामोश रहे
इसीलिए गैलीलियो और कॉपरनिकस की तरह
मारे जाते रहे हैं सदा ही
हमने नहीं दिए उपदेश
नहीं जमा की भक्तों की भीड़
क्योंकि हमारे पास नहीं है
धार्मिक नौटंकी वाली शब्दावली.
::
क्या मिश्र क्या यूनान
क्या फारस क्या चीन
क्या भारत क्या माया
क्या अरब क्या अफ्रीका
सहस्रों बरसों में सब जगह
मर गए हजारों देवता सैंकड़ों धर्म
नहीं रहा कोई नामलेवा
हमारे पास नहीं है
मजहब और देवता जैसे लफ्ज
इसीलिए बचे हुए हैं हम और हमारी जुबान.
::
याचना और प्रार्थना के गीत
नहीं संभव हमारे यहां
हम नहीं रच सकते
जीवन से विरक्ति के गीत
इसलिए हमारे कवियों ने रचे
उत्कट और उद्दाम आकांक्षाओं के गीत
जैसे सृष्टि ने रचा
समुद्र का अट्टहास
हवा का संगीत.
::
भले ही नहीं हों हमारे पास
पूजा और प्रार्थना जैसे शब्द
इनकी जगह हमने रखे
प्रेम और सम्मान जैसे शब्द
इस सृष्टि में
पृथ्वी और मनुष्य को बचाने के लिए
बहुत जरूरी हैं ये दो शब्द.
::
हमें कभी जरूरत नहीं हुई
दूसरी जुबानों से शब्द उधार लेने की
औरों ने हमारे ही शब्दों से बना लिए
नए-नए शब्द और पद
दुनिया की सबसे छोटी और पुरानी
हमारी भाषा
और क्या दे सकती थी इस दुनिया को
सिवाय कुछ शब्दों के
जैसे सत्य, मानवता और परिवर्तन.
( कोई भी कवि जब कविता लिखकर लोगों को समर्पित कर देता है तो वह कविता कवि के साथ उन सबकी हो जाती है जो इस कविता से किसी भी तरह खुद को जोडते हैं किंतु फिर भी इस कविता पर कोई बात करने से पहले कवि के बारे में यह बात स्पष्ट कर दूँ कि प्रेम चन्द गान्धी अपने को नास्तिक कहते है और इस तरह यह कविता एक नास्तिक व्यक्ति का वक्तव्य है किंतु बकौल प्रेम चंद गांघी नास्तिको की भी कुछ आस्था होती है .....) बहर हाल अब बात कविता की.
कुछ मूलभूत सवालों से पहले हमें इस कविता के कवि , उसके काल खंड और उस परिवेश पर बात करनी होगी /चाहिये जिसमें यह कविता लिखी गयी है. यह कविता, कवि और इस कविता के पीछे के भाव के साथ न्याय करना होगा जिस सन्दर्भ को ध्यान में रखकर यह कविता लिखी गयी लगती है. हालांकि कविता ने जो मूल और गूढ प्रश्न छोडे हैं उसपर बात किये बिना कविता पर बात अधूरी ही रहेगी.
दरअसल जब मैं इस कविता को एक पाठक की तरह पढती हूँ सवालों के कीडे कुलबुलाने लगते हैं. मन कविता के हर वक्तव्य पर पहले सोचने और सवाल करने को मजबूर हो जाता है यही कारण है कि मैं इस कविता के उस नास्तिक की जगह खुद को रख कर देखती हूँ ताकि उस् मन:स्थिति और इस कविता की उपज को उसी स्तर पर समझा जा सके. यह जाना जा सके कि एक व्यक्ति की मन:स्थिति क्या और क्यों होती है जब वह ‘नास्तिक’ जैसे खयालों के इर्द गिर्द अपने को पाता है. ऐसा करते ही मेरे सामने कई बिम्ब अचानक उभर आते हैं. पहला चित्र जो उभरता है वह कविता के आरभ से बनता है. आप देखें जब बात शुरु होती है कि .
’हमारी भाषा में बहुत कम हैं
सांत्वना के शब्द
किसी भी दिवंगत के परिजनों को
हम सिर्फ मौन से ही बंधाते हैं ढाढ़स
शोकसभा के मौनकाल में हम
नहीं बुदबुदाते किसी ईश्वर का नाम.’’
इस वक्तव्य की शुरुआत से ऐसा लगता है कि जैसे किसी शोक सभा से लौट रही जमात में किसी ने उस चुप रहने वाले व्यक्ति जो पूरी शोक सभा में उस समय मौन था जब सारे लोग दिवंगत के परिजनों को सांतवना दे रहे थे से जैसे पूछा हो कि, ‘’मित्र तुमने उन्हें ढाढ्स नहीं बधाया परिजनों को? तुम नहीं गये उनके पास जब सब ढाढ्स बधा रहे थे उन्हें? ...............और ऐसे में व्यक्ति एक साथ कई मन:स्थितियों से गुजरता है. यह कविता उन्हीं मन:स्थितियों से गुजरते हुए एक व्यक्ति की उस पूछने वाले व्यक्ति को दी गयी सफाई सी लगती है कि वह क्यों मौन रहा जब सब अपने अपने ईश्वर के खाने में खडे हो सांत्वना दे रहे थे जैसे कि अब ईश्वर को यही मंजूर था’’ ‘हम तुम तो माटी के पुतले हैं’ ‘अब चुप हो जाओ वह लौट कर नहीं आयेगा’ ‘भगवान ने उसे भेजा था और वह भगवान् के पास चला गया’ ..........आदि आदि जैसा कि अमूमन समझाया जाता है और होता है. ऐसे समय में जब कोई चुप हो कोने में खडा मौन हो तो लोगों की नज़र म्में आता ही है और बहुतों की नज़र में सवाल होते हैं .........कई चुप रहते हैं किंतु कुछ यह सवाल कर ही बैठते हैं.....
वहीं इस कविता को यदि व्यक्तिगत स्तर पर महसूस करते हुए देखा जाये तो यह एक अत्मसम्वाद भी करती सी लगती है. जैसे अकेले में एक व्यक्ति खुद से सम्वाद कर रहा हो और कह रहा हो यह सोचते हुए कि उस दिवंगत के परिजन को सांत्वना देने वाले सभी के पास एक ईश्वर था किंतु मेरे पास नहीं........ और तब वह गहरी सम्वेदना में विचार करता है इसीलिये यह खुद से सवाल पूछते व्यक्ति का वक्तव्य सी भी लगती है क्योंकि पूरी कविता खुद को एक अलग खाने में पाते हुए एक खोज सी है.
उपरोक्त दोनो चित्रो के अलावा भी एक चित्र है जो इस कविता को इस दौर की समाजिक स्थिति में फंसे एक सम्वेदंशील व्यक्ति की आत्म्ध्वनि को सामने रखती है. देखा जाये तो यह कविता एक ऐसे दौर में लिखी गयी है जब आस्था और धर्म के घाल मेल से बने छोटे छोटे टापुओं ने दुनिया में सिर्फ मनुष्य ही नहीं बल्कि प्रकृति या यूँ कहें कि इस पृथ्वी के हर जीव को परेशानी में ही डाला है. जहाँ तक इंसान का सवाल है उसका जीवन तो कई बार ना केवल दूभर सा होता रहा है बल्कि मनुष्य होने और उसके जीवन के कुछ मूल प्रश्नो पर सोचने को बार मजबूर किया है. 1984 के दंगो, गुजरात के दंगे और इन दंगों में ईश्वर के खाने में बंटे उनके अनुयाइयों ने जो दृश्य प्रस्तुत किये है उसने एक सम्वेदंशील मनुष्य को इस सोच में प्रतिदिन डाला है कि यदि ईश्वर और उसकी सत्ता है तो फिर यह क्या है ? क्यों आस्थओं में बटा मनुष्य मनुष्य के लिये सबसे घातक हथियार सा हो गया है? इस तरह के प्रश्न में फंसे व्यक्ति के ऐलान की तरह लगती है ये कविता और इसी कारण कवि उस पूरी जमात के लिये जो ईश्वर की सत्ता पर सवाल करता है के लिये एक भाषा की भी बात करती है ताकि अपनी सम्वेदना के साथ अपनी भाषा भी ना केवल गढी जाये किंतु उसे बताया भी जाये. कविता के अंत की कुछ लाईने इस बात का समर्थन करती हैं कि:
हमें कभी जरूरत नहीं हुई
दूसरी जुबानों से शब्द उधार लेने की
औरों ने हमारे ही शब्दों से बना लिए
नए-नए शब्द और पद
जैसे जैसे कविता आगे बढती है वह अपने जमात की खासियत का विस्तार करती जाती है. धर्म, आस्था और भाषा के विकास के बरक्स अपने शब्दों की खोज करती आगे बढती है इस कविता में इसी कारण एक संकट भी नज़र आता है वह है नास्तिक की परिभाषा का संकट और नास्तिक की भाषा के दायरे का संकट. आप कविता के विस्तार में कुछ प्रमुख अंशों को देखें-
‘प्रार्थना जैसा कोई शब्द
हमारी भाषा में नहीं समा सका
मौन ही हमारा ध्येय वाक्य रहा( हमेशा) ‘’
दुनिया की सबसे सरल सभ्यताओं की तरह
हमारे पास भी थे सबसे कम शब्द
मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
ईजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी
जहां कुछ ही शब्दों की ज़रूरत थी
जैसे ‘संघर्ष’.
मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
ईजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी
पीढि़यों से जानते हैं हम
जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी ईश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा.
हमारे पास नहीं है
मजहब और देवता जैसे लफ्ज
इसीलिए बचे हुए हैं हम और हमारी जुबान.
::
याचना और प्रार्थना के गीत
नहीं संभव हमारे यहां
हम नहीं रच सकते
जीवन से विरक्ति के गीत
.................
पूरी कविता मनुष्य की आस्था से गढे गये समाज और उसके तरीकों के विरोध में खडी है जैसे नास्तिक की दुनिया में प्रार्थना जैसे शब्द नहीं हैं याचना नहीं है मजहब और देवता नहीं हैं लम्बी चौडी शब्दावली नहीं है इसीलिये वह और उनकी जुबान बचे हुए हैं और वो जानते हैं कि :
‘’जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी ईश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा.’’
कविता के रूप में यह रचना जरूर आपका ध्यान खींचती है किंतु जो सवाल सामने रखती है और सोचने के लिये बाध्य करती है वह भी उतने ही महत्व्पूर्ण हैं जैसे कि मनुष्य के इतने बडे समूह ने आस्था जैसे शब्द क्यों बनाये? ईश्वर की सत्ता को क्योंकर बनाया? मजहब और देवता क्यों बनाये? कैसे बनते बनते गये मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे और गिरिजाघर ? क्या मानव और मानव का विकास जो हम्मारे सामने है वह मानव के पक्ष में है? इसके साथ ही कुछ मूल सवाल भाषा के विकास , उसके कारण और भाषा की परिधि पर भी हैं क्योंकि मनुष्य के विकास और भाषा का बहुत गहरा नाता है. मानव ने एक ही साथ दोनो काम शुरु किये. जिस समय वो पत्थर से पत्थर रगड कर आग जला रहा था , जमीन से ताम्र लोहा खोद कर युग बना रहा था ठीक उसी के साथ अक्षर, शब्द और वाक्य भी बना रहा था. तो क्या वास्तव में आस्थायें भी गढ रहा था ? अगर गढ रहा था तो किस तरह की आस्था ? और किसके प्रति ? क्या ईश्वर का अस्तित्व विकास की निरंतर प्रक्रिया का परिणाम्म है ? ऐसे कई सवाल हैं जो उपजते हैं.
कविता में बात उन सब बिन्दुओं पर की गयी है जिससे आज मनुष्य परेशान है. वह परेशान है झूठ से , ईश्वर से, मजहब से , आस्था से और आज की भाषा से. और यदि वह इस सब्से परेशान है तो वह आज की सामाजिक आर्थिक और राजनितिक स्थितियों से परेशान है. झूठ को यदि भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में देखें, ईश्वर मजहब और आस्था को राजनिति के एक सब्से कुत्सित रूप में दें और भाषा को को उसके सम्प्रेष्ण के रूप में देखें और परिभाषित करें तो पूरी दुनिया का हर इंसान इसकी सजा भुगत रहा है ............... औए ऐसे में वो जो समाधान देखता है उसमें मौन उसकी भाषा से अधिक उसकी मजबूरी है और वह चुप रहना ही श्रेयष्कर समझता है. और सोचने को मजबूर होता है कि मनुष्य भी तो दुनिया के आम जीव की तरह एक जीव है तो क्या सभी संकटों से निपटने के लिये वह बिना ईश्वर की याचना के नहीं जी सकता ?
कुलमिलाकर देखा जाये तो यह कविता आज की सामाजिक स्थिति में फंसे आदमी की कविता है. आज के आदमी का मनसिक द्वन्द कविता और उसके विस्तार में खूब उभर कर आता है. इसीलिये यह् मनुष्य के जटिल दर्शन , जटिल जीवन , विकास और इन सबसे उपजने वाले द्वन्द और मारकाट के बीच एक सम्वेदंशील मनुष्य की कविता है. जो एक अलग परिभाषा और शब्दावली खोज रहा है ताकि दुनिया को बचाया जा सके किंतु फिर भी आस्था की दुनिया के बरक्स खडा अपनी परिभाषा में अभी उलझा हुआ सा है .....................आने वाले समय में इस दौर के आदमी की उलझन और उसका दर्शन जब भी समझने की कोशिश की जायेगी .यह कविता उसमें मदद अवश्य करेगी
...............................................डा. अल्का सिन्ह
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