Monday, April 16, 2012

पुतुल की कविता अंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल .......... आदिवासी जनजीवन ......उनकी माँग और नक्सलवाद ?

देश की अंतरिक सुरक्षा खतरे में है यही कारण है कि आज इसी मुद्दे पर दिल्ली में सभी मुख्य मंत्रियों की बैठक बुलायी गयी. अब सवाल है कि देश की अंतरिक सुरक्षा को खतरा किस बात से है ? प्राप्त सूचना के अनुसार भारत के अन्दर 19 बडी इंसर्जेंसीज चल रही हैं. यानि कि देश के भीतर ही बडे बडे खतरे पैदा हो गये हैं. आज की इस पूरी मीटिंग में जिन खतरों को गिनाया गया उसमें नक्सालवाद की तरफ इशारा करते हुए उसे आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बडा खतरा बताया गया. अभी कोई दो तीन दिन पहले एन डी टी वी पर अभिज्ञान प्रकाश ने एक कार्यक्रम पेश किया था. इस कार्यक्रम का शीर्षक था ‘’क्या नक्सल्वादियों के आगे झुक गयी सरकार ?’’
आज प्रधान मंत्री और ग़ृहमंत्री चिदबरम के भाषण और दो दिन पहले के अभिज्ञान के कार्यक्रम के बीच मुझे झारखंड की एक आदिवासी कवियत्री निर्मला पुतुल की कवितायें एक एक कर याद आती रहीं. ऐसा इसलिये कि देश की अंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल .......... आदिवासी जनजीवन ......उनकी माँग और नक्सलवाद ? यह प्र्श्नचिन्ह इसलिये क्योंकि अभिज्ञान के कार्यक्रम में आये लोगों ने जो चर्चा की उससे यह बात साफ साफ निकल कर आ रही थी कि नक्सलवाद का सम्बन्ध उन इलाकों से है जिन इलाकों में आदिवासी रहते हैं. क्या आपको यह बात हैरत में नहीं डालती कि इस देश के एक बडे हिस्से के नागरिक हथियार बन्द हो गये हैं? क्या ये सवाल परेशान नहीं करता कि अगर ऐसा है तो क्यों? यए सवाल कई और सवालों के साथ मुझे हर रोज परेशान करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों है कि इस देश के 8 बडे राज्यों का एक बडा हिस्सा हथियार बन्द हो गया है और जवाब में पुतुल की एक कविता अपने पूरे वज़ूद के सामने खडी हो सवालों की झडी लगा देती है . आप भी पढें -
अगर तुम मेरी जगह होते

जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?


कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?


कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!


कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को.


जरा सोचो न, कैसा लगता?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगो के बीच
और तुम सामने हाथ बाँधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए


बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.


सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
................... निर्मला पुतुल




निर्मला की इस कविता पर बात कहाँ से शुरु करूँ समझ नहीं पा रही. मेरे लिये यह जटिल इसलिये हो रहा है क्योंकि देश का प्रधान कहता है कि नक्सलवाद सबसे बडी समस्या है,,,,,,,,,,,, देश का एक पूर्व जनरल कहता है कि नक्सल्वादियों को अब चीन हथियार देने की योज़ना बना रहा है............. और देश अब सभी राज्यों को लेकर आंतरिक सुरक्षा के मद्दे नज़र अब इस नक्सलवाद से जुडे लोगों के खिलाफ एक बडी रणनिति बनाने की योज़ना बना रहा है क्योंकि बकौल पूर्व जनरल ’ कि इस पूरे इलाके में आज तक कोई पेनीट्रेट नहीं कर पाया’’किंतु इन सभी के बीच निर्मला कुछ सवाल रखती हैं और कहती हैं कि –
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?

मेरा यह हमेशा से मानना रहा है कि इमानदार कवितायें किसी भी बात , भाव या समस्या को बेहतर तरीके से समझने और उसके तह तक जाने का सबसे अच्छा जरिया होती हैं. सच कहूँ तो एन डी टी वी के कार्यक्रम ने मेरी इस अवधारणा में एक और पहलू जोड दिया कि एक देश , उसकी सत्ता और वहाँ की जनता की समस्या को समझने के लिये इमानदार कवियों , लेखकों के लेखन से गुजरना उतना ही जरूरी है जितना कि किसी इलाके में जाकर कर वहाँ के मुद्दों को जानना है. पर क्या टी.वी पर चर्चा में शाम्मिल होने वाले उतनी ही सवेदना और चश्में से उस समस्या को देख पाते हैं जिस सम्वेदना की जरूरत होती है उस इलाके के लोगों को ? आप देखें कि एक तरफ देश की आंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल, एक तरफ नक्सलवाद जैसी समस्या से निपटने की रणनीति और एक तरफ उस पूरे इलाके के लोगों के मूलभूत सवाल.... सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कवितायें देश का प्रधान नहीं पढता ? सोच रही हूँ कि इस तरह की कवितायें देश का सेनाध्यक्ष नहीं पढता? और यह भी सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कविताओं पर देश की पुलिस की भी नज़र नहीं जाती? अगर इस सभी की नज़र नहीं जाती तो यह इस देश का दुर्भाग्य ही है क्योंकि अगर वह इस तरह के साहित्य से गुजरे होते तो उनकी चर्चाओं में समस्या को समझने का नज़रिया और इस तरह की चर्चाओं में उनके बयान की गम्भीरता कुछ और ही होती. निर्मला की कविता महज़ एक कविता नहीं है. यह कविता देश के उस बडे हिस्से की आवाज़ है जो यह महसूस करता है कि उसकी नाक चिपटी है, वह काला है, उसके पावों में बिवाई है और् इसलिये वह देश के विभिन्न सुविधाओं के लिये लगने वाली कतार में सबसे पीछे खडा होता है. लोग उसके पावों की बिवाई को समझने की जगह फब्ती कसते हैं .जोरदार ठहाका लगाते है ...........निर्मला की इस आवाज़ में एक दर्द है और यह प्रश्न भी कि यदि तुम्हारे साथ ऐसा होता तो तुम क्ता करते?
अगर इस कविता के माध्यम से सिर्फ आदिवासी जमात की ही बात की जाये तो भी कविता कुछ मूल भूत व्यव्हारिक बात को हमारे सामने सरलता से लाती है. देखा जाये तो यह कविता एक ही देश में हो रहे नागरिकों के बीच की भयानक दूरी, कुंठा, क्षोभ और गहरे आक्रोश को व्यक्त करती है किंतु जब इस प्रकरण का जिक्र अभिज्ञान प्रकाष के कार्य्क्रम में एक प्रोफेसर करने की कोशिश करता है जिसने 8 साल सरकार और उन लोगों के बीच सेतु बनने का काम किया जो आज सरकार के लिये समस्या बन गये हैं .....तो उसे एक नेता द्वारा यह कहकर चुप रहने के लिये कहा जाता है कि ‘’ प्रोफेसर साहब उपदेश ना दें’’ म्मतलब यह कि इस देश की राजनिति यह समझने के लिये तैयार नहीं है कि इस देश के गरीब और आदिवासी जीवन की मूल्भूत आवश्यकताओं के लिये जूझ रहे हैं. वह यह समझने के लिये तैयार नहीं है इस समस्या के पीछे के कारण से निपट्ने के लिये उन लोगों की बात को भी सुनना जरूरी है जो इस समस्या पर अपने महत्व्पूर्ण विचार संजीदगी से रख सकते हैं..
दुर्भाग्य से मैं अभिज्ञान प्रकाश के कार्यक्रम को पूरा नहीं देख पायी लेकिन जहाँ से देखा उसने मेरे अन्दर कई स्वाल पैदा किये. वह कुछ ऐसे मूल भूत सवाल हैं जिसे हर उस नागरिक का पूछने का हक बनता है जो इस देश में इस देश के सम्विधान के मतलब को समझता है. किंतु बात जब आदिवासी जन की आती है तो वह हमारी दोहरी नीति, दोहरे आचरण और सामंत्वादी तौर तरीकों की तरफ इशारा करता है. हमारे विकास, विकास की अवधारणा और इस विकास के खांचे से दूर लोगों की आकंक्षाओं की टकराट की भी बात उठती है. इसीलिये जब निर्मला कहती है कि -
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?


सच कहूँ तो अभिज्ञान के कार्यक्रम में नक्सल वाद, आदिवासी जीवन , उनकी समस्या और मुख्य धारा में उनके ना होने की त्रासदी को जिस तरह से समझा और रखा गया उसने मुझे झकझोर कर रख दिया....
इसीलिये मैं गहरी सोच में हूँ. एक तरह की नारज़गी में. बार बार यह समझने की कोशिश में हूँ कि देश का मतलब क्या होता है? नागरिक का मतलब क्या होता है? और यह भी समझने की लगातार कोशिश कर रही हूँ कि क्या एक देश के नागरिक और उसके प्रश्न क्या होने चाहिये? यह भी कि नागरिक सुरक्षा का मतलब क्या है? सालों से यह सवाल मुझे बेतरह परेशान करते रहे हैं किंतु जबसे मैनें आदिवासी जीवन को करीब से देखा है उसे जाना है ये सवाल हर वक्त मेरे जेहन में किसी कीडे की तरह रेंगते रहते हैं कि इस देश में आदिवासी होना क्या आपको पूरी सुरक्षा देता है ? क्या आपके सवालों को दिल्ली दरबार तक पहुंचाता है ? ..........और सच कहूँ तो जब एक आदिवासी के घर में खडे होकर मन में यह सवाल उठते हैं तो मन बडी शिद्द्त से जवाब मांगता है क्योंकि मध्यप्रदेश से लेकर अन्ध्रा तक उत्तर प्रदेश से लेकर उडीसा तक आदिवासी जीवन की त्रासदी एक सी है और सवाल , मांगें और उम्मीदें भी एक सी हैं.......लेकिन इस देश में उस आदिवासी की बात सुनना तो दूर उसकी तरफ ध्यान से देखा नहीं जाता जिसकी परम्परा में कभी भीख नहीं मांगना जैसे एक मिशन है, जिसकी परम्परा में मेहनत एक इबादत है .......और अपने आस पास की प्रकृति की रखवाली करना एक पूजा है..............लेकिन आज़ादी के 65 सालों बाद एक एक कर उनकी संस्कृति को तोडा है, उनके मिशन को तोडा है और उनकी इबादत गाह को नष्ट किया है .तो ऐसे में क्या सरकारों , नेताओं, पार्टियों को उन सवालों पर सोचना नहीं चाहिये जहाम वह कह रहे हैं कि -.

“जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?”

मैने इस कविता को पहले कई बार पढा है और जब भी पहले इसे पढा तो सोचती रही कि निर्मला के सारे सवाल आखिर किससे हैं? क्या गैर आदिवासियों से ? या फिर सत्ता और उसके आस पास बैठे उनसे जो कल चर्चा का हिस्स थे ? या देश के उस प्रधान से जो आज भषण दे रहा था ? या प्फिर देश के उन नागरिकों से जो देश के बडे शहरों में बडी सुविधाओं का लाभ उठाते हुए कहते हैं कि ‘ जो जाति देश की मुख्य धारा में शामिल नहीं हो सकती वह तो इसी स्थिति में ही रहे गी ना ? या फिर उन कुछ बेहद स्वार्थ से भरे लोगों से जो कहते हैं कि देश के विकास के लिये बाक्साईट जैसे खनिज़ के लिये उनकी जमीन पर सरकार पर कब्ज़ा तो करना ही पडेगा ? किससे ? या फिर सभी से ? सीधे तौर पर देखा जाये तो यह सवाल पुतुल सबसे करती हैं कि जो देश अपनी जीडीपी को 8 प्रतिशत दिखाने का दावा कर वाह्वाही पा रहा है उस देश में आज़ादी के 65 साल बाद भी अगर एक तबके का जीवन इस हाल में है तो अगर यह जीवन आप जी रहे होते तो क्या करते? हाँलाकि देखा जाये तो इस देश में यह सवाल एक शास्वत सवाल है किंतु यह सवाल जब अपनी जमात की तरफ से पुतुल करती हैं तो इन सवालों की त्रासदी दोगुनी हो जाती है क्योंकि वह इन सवालों के साथ साथ हालात का भी बयान करती हैं -

कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!

------------------------और देखा जाये तो जो हालात पुतुल ने अपनी कविता के माध्यम्म से रखे हैं वह आज भी ज्यों के त्यों हैं ..................चाहे रांची का नम्कुम हो, मध्यप्रदेश का बेतुल और छोन्दवादा हो, छत्तीसगढ का दंतेवाडा हो या उत्तर प्रदेश का शंकरगढ हर जगह सवाल यही हैं पर समाधान कुछ नहीं, हर जगह उनके जनजीवन की मांसलता को ही नापा जा रहा है और देखे जा रहे हैं छाती के उभार . चाहे वो बाम्क्साईड के रूप में हों , चाहे जंगल के रूप में -
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.

किंतु अब वह बेखबर नहीं रह गया है क्योंकि वह सवाल करने लगा है कि ‘’अगर तुम मेरी जगह होते’’ सोचो क्या करते


.............................डा. अलका सिह

5 comments:

  1. बहुत ही धारदार सोच का प्रतिफ़ल संवेदना से अतिशय ओत-प्रोत लाजवाब धन्यवाद

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  2. अलका दी...मैं आपके सवालों से हतप्रभ हूं....निर्मला पुतूल बेशक बहुत अच्‍छी कवि‍यत्री हैं.....मगर उनकी कवि‍ता के भावों को आज से जोड़ते हुए जो आपने सवाल उठाया है.....नि:संदेह वह मन को झकझोरता है। आज..आदि‍वासि‍यों की हालत को समझने वाला कोई नहीं...काश आपकी आवाज दि‍ल्‍ली दरबार तक जाए।

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    1. शुक्रिया रश्मि सबसे पहले तो पढने के लिये दूसरे उसपर कमेंट करने के लिये ..............इस आलेख को अब तक बहुत लोगों ने पढा किंतु कमेंट बहुत कम हैं ............

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  3. गंभीर सोच में डाल दिया है इस कविता के सवालों ने, मजबूत राष्ट्र की अवधारणा क्या है , सिर्फ जमीन का एक टुकडा जिसे बन्दूक बचाए रखे या वहां के रहने वालो की हालत जिसे बन्दूक बनाये रखे

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  4. बेहतरीन कविता, हमारे अपने समय के सबसे बड़े सवाल की तह तक पहुंचती हुई। बधाई ।

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