Saturday, March 3, 2012

प्रेम चंद गांधी की 'नास्तिको की भाषा' का मतलब

प्रेम चन्द गान्धी से मेरा परिचय फेसबुक पर हुआ हलांकि फेसबुक पर मैने उनकी कोई कविता इससे पहले नहीं पढी थी. यह पहली कविता थी उनकी जिसे फेसबुक के माध्यम् से मेरे द्वारा समालोचन पर पढी गयी. इस कविता को सामालोचन के सम्पादक अरुण देव ने फेसबुक पर शेयर किया था. प्रेमचन्द गान्धी की कविता एक बार फिर भाषा पर ही बात करती हुई? रोचक विषय था. रोचक इसलिये भी कि पहली बार एक ऐसी भाषा की व्याख्या पढ रही थी जिसे मैनें आस्थाओं के इस देश में टुकडे –टुकडे में कभी कभार ही सुना होगा. दरअसल आज तक नास्तिक होने का मतलब आस्तिकों की जमात के सामने विरोध का परचम लिये खडे किसी एक आध व्यक्ति को ही देखा और समझा था और यह कविता उसे एक जमात के रूप में चित्रित कर उसकी भाषा पर बात कर रही थी इसलिये इसकी रोचकता निरंतर बनी हुई थी इसलिये इसे पढने और इसपर लिखने से खुद को रोक नहीं पायी. वैसे भी यह कविता एक ऐसे दौर में लिखी गयी है जिसमें व्यक्ति के नास्तिक होने और उसकी अपनी भाषा का अपना ही मतलब है. प्रेम चन्द गाँघी की कविता ‘ ‘नास्तिकों की भाषा’ को समझने का प्रयास इस समीक्षा के माध्यम से कर रही हूँ. प्रेम चन्द गांघी का नाम हिन्दी जगत में जाना पहचाना है फिर भी यहा एक औपचारिक परिचय देना आवश्यक है: .


प्रेमचंद गांधी

जन्म : २६ मार्च, १९६७,जयपुर
कविता संग्रह : इस सिंफनी में
निबंध संग्रह : संस्कृरति का समकाल
कविता के लिए लक्ष्म ण प्रसाद मण्डंलोई और राजेंद्र बोहरा सम्माून
कुछ नाटक लिखे, टीवी और सिनेमा के लिए भी काम
दो बार पाकिस्ताखन की सांस्कृ तिक यात्रा.
विभिन्नप सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी.
ई पता : prempoet@gmail.com


बहरहाल ‘नास्तिकों की भाषा’ को पढ्कर तो मेरी पेशानी पर जैसे बल पड गये. थोडी देर के लिये दिमाग जैसे एक कोने में बैठ्कर आराम से सोचने की मांग करने लगा ताकि नास्तिकों की दुनिया और उनके शब्द और सम्प्रेषण को समझा जा सके. कविता ने नास्तिकों के दुनिया और उनकी भाषा को लेकर जो वक्तव्य सामने रखे उसे आसानी से समझ पाना बेहद कठिन था क्योंकि इतनी सरल और छोटी है नास्तिकों की भाषा ? जितनी बार इसपर नज़र गयी कुछ गूढ प्रश्न एक एक करके सामने आने लगे. कविता एक ही साथ दर्शन, मानव विकास और मनोविज्ञान जैसे विषयों के पायों पर खडी नज़र आ रही थी. एक संकट था मेरे सामने कि मैं कविता के दर्शन पर बात करूं या फिर कविता के मनोविज्ञान पर बात करूँ? या फिर कविता के साथ मानव विकास , भाषा के विकास और के कालखन्ड जिसमें यह कविता लिखी जा रही है उस परिवेश की बात करूँ या फिर इससे जुडे कुछ अन्य विषयों पर बात करूं? इस तरह एक घनीभूत सोच के साथ एक लम्बी खामोशी की स्थिति थी दिमागी स्तर पर. वहीं दूसरी तरफ प्रश्नो की एक श्रृंखला भी इस कविता ने सामने रखी थी. जो पहला मूल प्रश्न खडा किया वो था कि आस्था क्या है ? दूसरा जो बडा सवाल था वो था नास्तिक होने का मतलब क्या है ? और इन सबसे जुडे कई सवाल जैसे विकास और आस्था का रिश्ता क्या ? भाषा की उत्पत्ति के पीछे का सच क्या है ? और यह भी कि मौन की भाषा ही क्यों बची रह गयी है एक नास्तिक के पास ? पर मेरे सामने सबसे बडा सवाल था कि कवि क्यों इस मनोदशा में है कि उसे इस दौर में अपने नास्तिक होने का सबूत भी देना पड रहा है और बताना भी पड रहा है कि हमारी भी एक भाषा है जिसमें शब्द जाल नहीं हैं. इस कविता को लेकर यह भी बडा कठिन है कि बात कहां से शुरु की जाये पर बात कहीं ना कहीं से तो शुरू करनी ही होगी. बात की शुरुआत से पहले प्रेमचन्द गान्धी की ‘नास्तिकों की भाषा’को पढ लेते हैं :




हमारी भाषा में बहुत कम हैं
सांत्वना के शब्द
किसी भी दिवंगत के परिजनों को
हम सिर्फ मौन से ही बंधाते हैं ढाढ़स
शोकसभा के मौनकाल में हम
नहीं बुदबुदाते किसी ईश्वर का नाम.

::

दुनिया की तमाम
ताकतवर चीजों से
लड़ती आई है हमारी भाषा
जैसे हिंसक पशुओं से जंगलों में
शताब्दियों से कुलांचे भर-भर कर
जिंदा बचते आए हैं
शक्तिशाली हिरणों के वंशज

खून से लथपथ होकर भी
हार नहीं मानी जिस भाषा ने
जिसने नहीं डाले हथियार
किसी अंतिम सत्ता के सामने
हम उसी भाषा में गाते हैं

हम उस जुबान के गायक हैं
जो इंसान और कायनात की जुगलबंदी में
हर वक्त
हवा-सी सरपट दौड़ी जाती है.

::

प्रार्थना जैसा कोई शब्द
हमारी भाषा में नहीं समा सका
मौन ही हमारा ध्येय वाक्य रहा

दुनिया की सबसे सरल सभ्यताओं की तरह
हमारे पास भी थे सबसे कम शब्द
मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
ईजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी
जहां कुछ ही शब्दों की ज़रूरत थी
जैसे ‘संघर्ष’.

::

सबसे बुरे दिनों में भी
नहीं लड़खड़ाई हमारी जुबान

विशाल पर्वतमाला हो या
चौड़े पाट वाली नदियां
रेत का समंदर हो या
पानी का महासागर

किसी को पार करते हुए
हमने नहीं बुदबुदाया
किसी अलौकिक सत्ता का नाम

पीढि़यों से जानते हैं हम
जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी ईश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा.

::

झूठ जैसा शब्द
नहीं है हमारे पास
सहस्रों दिशाएं हैं
सत्य की राह में जाने वाली
सारी की सारी शुभ
अपशकुन जैसी कोई धारणा
नहीं रही हमारे यहां
अशुभ और अपशकुन तो हमें माना गया.

::

हमने नहीं किया अपना प्रचार
बस खामोश रहे
इसीलिए गैलीलियो और कॉपरनिकस की तरह
मारे जाते रहे हैं सदा ही

हमने नहीं दिए उपदेश
नहीं जमा की भक्तों की भीड़
क्योंकि हमारे पास नहीं है
धार्मिक नौटंकी वाली शब्दावली.

::

क्या मिश्र क्या यूनान
क्या फारस क्या चीन
क्या भारत क्या माया
क्या अरब क्या अफ्रीका

सहस्रों बरसों में सब जगह
मर गए हजारों देवता सैंकड़ों धर्म
नहीं रहा कोई नामलेवा

हमारे पास नहीं है
मजहब और देवता जैसे लफ्ज
इसीलिए बचे हुए हैं हम और हमारी जुबान.

::

याचना और प्रार्थना के गीत
नहीं संभव हमारे यहां
हम नहीं रच सकते
जीवन से विरक्ति के गीत

इसलिए हमारे कवियों ने रचे
उत्कट और उद्दाम आकांक्षाओं के गीत
जैसे सृष्टि ने रचा
समुद्र का अट्टहास
हवा का संगीत.

::

भले ही नहीं हों हमारे पास
पूजा और प्रार्थना जैसे शब्द
इनकी जगह हमने रखे
प्रेम और सम्मान जैसे शब्द

इस सृष्टि में
पृथ्वी और मनुष्य को बचाने के लिए
बहुत जरूरी हैं ये दो शब्द.

::

हमें कभी जरूरत नहीं हुई
दूसरी जुबानों से शब्द उधार लेने की
औरों ने हमारे ही शब्दों से बना लिए
नए-नए शब्द और पद

दुनिया की सबसे छोटी और पुरानी
हमारी भाषा
और क्या दे सकती थी इस दुनिया को
सिवाय कुछ शब्दों के
जैसे सत्य, मानवता और परिवर्तन.

( कोई भी कवि जब कविता लिखकर लोगों को समर्पित कर देता है तो वह कविता कवि के साथ उन सबकी हो जाती है जो इस कविता से किसी भी तरह खुद को जोडते हैं किंतु फिर भी इस कविता पर कोई बात करने से पहले कवि के बारे में यह बात स्पष्ट कर दूँ कि प्रेम चन्द गान्धी अपने को नास्तिक कहते है और इस तरह यह कविता एक नास्तिक व्यक्ति का वक्तव्य है किंतु बकौल प्रेम चंद गांघी नास्तिको की भी कुछ आस्था होती है .....) बहर हाल अब बात कविता की.
कुछ मूलभूत सवालों से पहले हमें इस कविता के कवि , उसके काल खंड और उस परिवेश पर बात करनी होगी /चाहिये जिसमें यह कविता लिखी गयी है. यह कविता, कवि और इस कविता के पीछे के भाव के साथ न्याय करना होगा जिस सन्दर्भ को ध्यान में रखकर यह कविता लिखी गयी लगती है. हालांकि कविता ने जो मूल और गूढ प्रश्न छोडे हैं उसपर बात किये बिना कविता पर बात अधूरी ही रहेगी.
दरअसल जब मैं इस कविता को एक पाठक की तरह पढती हूँ सवालों के कीडे कुलबुलाने लगते हैं. मन कविता के हर वक्तव्य पर पहले सोचने और सवाल करने को मजबूर हो जाता है यही कारण है कि मैं इस कविता के उस नास्तिक की जगह खुद को रख कर देखती हूँ ताकि उस् मन:स्थिति और इस कविता की उपज को उसी स्तर पर समझा जा सके. यह जाना जा सके कि एक व्यक्ति की मन:स्थिति क्या और क्यों होती है जब वह ‘नास्तिक’ जैसे खयालों के इर्द गिर्द अपने को पाता है. ऐसा करते ही मेरे सामने कई बिम्ब अचानक उभर आते हैं. पहला चित्र जो उभरता है वह कविता के आरभ से बनता है. आप देखें जब बात शुरु होती है कि .
’हमारी भाषा में बहुत कम हैं
सांत्वना के शब्द
किसी भी दिवंगत के परिजनों को
हम सिर्फ मौन से ही बंधाते हैं ढाढ़स
शोकसभा के मौनकाल में हम
नहीं बुदबुदाते किसी ईश्वर का नाम.’’
इस वक्तव्य की शुरुआत से ऐसा लगता है कि जैसे किसी शोक सभा से लौट रही जमात में किसी ने उस चुप रहने वाले व्यक्ति जो पूरी शोक सभा में उस समय मौन था जब सारे लोग दिवंगत के परिजनों को सांतवना दे रहे थे से जैसे पूछा हो कि, ‘’मित्र तुमने उन्हें ढाढ्स नहीं बधाया परिजनों को? तुम नहीं गये उनके पास जब सब ढाढ्स बधा रहे थे उन्हें? ...............और ऐसे में व्यक्ति एक साथ कई मन:स्थितियों से गुजरता है. यह कविता उन्हीं मन:स्थितियों से गुजरते हुए एक व्यक्ति की उस पूछने वाले व्यक्ति को दी गयी सफाई सी लगती है कि वह क्यों मौन रहा जब सब अपने अपने ईश्वर के खाने में खडे हो सांत्वना दे रहे थे जैसे कि अब ईश्वर को यही मंजूर था’’ ‘हम तुम तो माटी के पुतले हैं’ ‘अब चुप हो जाओ वह लौट कर नहीं आयेगा’ ‘भगवान ने उसे भेजा था और वह भगवान् के पास चला गया’ ..........आदि आदि जैसा कि अमूमन समझाया जाता है और होता है. ऐसे समय में जब कोई चुप हो कोने में खडा मौन हो तो लोगों की नज़र म्में आता ही है और बहुतों की नज़र में सवाल होते हैं .........कई चुप रहते हैं किंतु कुछ यह सवाल कर ही बैठते हैं.....

वहीं इस कविता को यदि व्यक्तिगत स्तर पर महसूस करते हुए देखा जाये तो यह एक अत्मसम्वाद भी करती सी लगती है. जैसे अकेले में एक व्यक्ति खुद से सम्वाद कर रहा हो और कह रहा हो यह सोचते हुए कि उस दिवंगत के परिजन को सांत्वना देने वाले सभी के पास एक ईश्वर था किंतु मेरे पास नहीं........ और तब वह गहरी सम्वेदना में विचार करता है इसीलिये यह खुद से सवाल पूछते व्यक्ति का वक्तव्य सी भी लगती है क्योंकि पूरी कविता खुद को एक अलग खाने में पाते हुए एक खोज सी है.

उपरोक्त दोनो चित्रो के अलावा भी एक चित्र है जो इस कविता को इस दौर की समाजिक स्थिति में फंसे एक सम्वेदंशील व्यक्ति की आत्म्ध्वनि को सामने रखती है. देखा जाये तो यह कविता एक ऐसे दौर में लिखी गयी है जब आस्था और धर्म के घाल मेल से बने छोटे छोटे टापुओं ने दुनिया में सिर्फ मनुष्य ही नहीं बल्कि प्रकृति या यूँ कहें कि इस पृथ्वी के हर जीव को परेशानी में ही डाला है. जहाँ तक इंसान का सवाल है उसका जीवन तो कई बार ना केवल दूभर सा होता रहा है बल्कि मनुष्य होने और उसके जीवन के कुछ मूल प्रश्नो पर सोचने को बार मजबूर किया है. 1984 के दंगो, गुजरात के दंगे और इन दंगों में ईश्वर के खाने में बंटे उनके अनुयाइयों ने जो दृश्य प्रस्तुत किये है उसने एक सम्वेदंशील मनुष्य को इस सोच में प्रतिदिन डाला है कि यदि ईश्वर और उसकी सत्ता है तो फिर यह क्या है ? क्यों आस्थओं में बटा मनुष्य मनुष्य के लिये सबसे घातक हथियार सा हो गया है? इस तरह के प्रश्न में फंसे व्यक्ति के ऐलान की तरह लगती है ये कविता और इसी कारण कवि उस पूरी जमात के लिये जो ईश्वर की सत्ता पर सवाल करता है के लिये एक भाषा की भी बात करती है ताकि अपनी सम्वेदना के साथ अपनी भाषा भी ना केवल गढी जाये किंतु उसे बताया भी जाये. कविता के अंत की कुछ लाईने इस बात का समर्थन करती हैं कि:

हमें कभी जरूरत नहीं हुई
दूसरी जुबानों से शब्द उधार लेने की
औरों ने हमारे ही शब्दों से बना लिए
नए-नए शब्द और पद




जैसे जैसे कविता आगे बढती है वह अपने जमात की खासियत का विस्तार करती जाती है. धर्म, आस्था और भाषा के विकास के बरक्स अपने शब्दों की खोज करती आगे बढती है इस कविता में इसी कारण एक संकट भी नज़र आता है वह है नास्तिक की परिभाषा का संकट और नास्तिक की भाषा के दायरे का संकट. आप कविता के विस्तार में कुछ प्रमुख अंशों को देखें-


‘प्रार्थना जैसा कोई शब्द
हमारी भाषा में नहीं समा सका
मौन ही हमारा ध्येय वाक्य रहा( हमेशा) ‘’

दुनिया की सबसे सरल सभ्यताओं की तरह
हमारे पास भी थे सबसे कम शब्द
मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
ईजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी
जहां कुछ ही शब्दों की ज़रूरत थी
जैसे ‘संघर्ष’.


मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
ईजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी



पीढि़यों से जानते हैं हम
जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी ईश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा.


हमारे पास नहीं है
मजहब और देवता जैसे लफ्ज
इसीलिए बचे हुए हैं हम और हमारी जुबान.

::

याचना और प्रार्थना के गीत
नहीं संभव हमारे यहां
हम नहीं रच सकते
जीवन से विरक्ति के गीत

.................
पूरी कविता मनुष्य की आस्था से गढे गये समाज और उसके तरीकों के विरोध में खडी है जैसे नास्तिक की दुनिया में प्रार्थना जैसे शब्द नहीं हैं याचना नहीं है मजहब और देवता नहीं हैं लम्बी चौडी शब्दावली नहीं है इसीलिये वह और उनकी जुबान बचे हुए हैं और वो जानते हैं कि :

‘’जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी ईश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा.’’

कविता के रूप में यह रचना जरूर आपका ध्यान खींचती है किंतु जो सवाल सामने रखती है और सोचने के लिये बाध्य करती है वह भी उतने ही महत्व्पूर्ण हैं जैसे कि मनुष्य के इतने बडे समूह ने आस्था जैसे शब्द क्यों बनाये? ईश्वर की सत्ता को क्योंकर बनाया? मजहब और देवता क्यों बनाये? कैसे बनते बनते गये मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे और गिरिजाघर ? क्या मानव और मानव का विकास जो हम्मारे सामने है वह मानव के पक्ष में है? इसके साथ ही कुछ मूल सवाल भाषा के विकास , उसके कारण और भाषा की परिधि पर भी हैं क्योंकि मनुष्य के विकास और भाषा का बहुत गहरा नाता है. मानव ने एक ही साथ दोनो काम शुरु किये. जिस समय वो पत्थर से पत्थर रगड कर आग जला रहा था , जमीन से ताम्र लोहा खोद कर युग बना रहा था ठीक उसी के साथ अक्षर, शब्द और वाक्य भी बना रहा था. तो क्या वास्तव में आस्थायें भी गढ रहा था ? अगर गढ रहा था तो किस तरह की आस्था ? और किसके प्रति ? क्या ईश्वर का अस्तित्व विकास की निरंतर प्रक्रिया का परिणाम्म है ? ऐसे कई सवाल हैं जो उपजते हैं.

कविता में बात उन सब बिन्दुओं पर की गयी है जिससे आज मनुष्य परेशान है. वह परेशान है झूठ से , ईश्वर से, मजहब से , आस्था से और आज की भाषा से. और यदि वह इस सब्से परेशान है तो वह आज की सामाजिक आर्थिक और राजनितिक स्थितियों से परेशान है. झूठ को यदि भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में देखें, ईश्वर मजहब और आस्था को राजनिति के एक सब्से कुत्सित रूप में दें और भाषा को को उसके सम्प्रेष्ण के रूप में देखें और परिभाषित करें तो पूरी दुनिया का हर इंसान इसकी सजा भुगत रहा है ............... औए ऐसे में वो जो समाधान देखता है उसमें मौन उसकी भाषा से अधिक उसकी मजबूरी है और वह चुप रहना ही श्रेयष्कर समझता है. और सोचने को मजबूर होता है कि मनुष्य भी तो दुनिया के आम जीव की तरह एक जीव है तो क्या सभी संकटों से निपटने के लिये वह बिना ईश्वर की याचना के नहीं जी सकता ?


कुलमिलाकर देखा जाये तो यह कविता आज की सामाजिक स्थिति में फंसे आदमी की कविता है. आज के आदमी का मनसिक द्वन्द कविता और उसके विस्तार में खूब उभर कर आता है. इसीलिये यह् मनुष्य के जटिल दर्शन , जटिल जीवन , विकास और इन सबसे उपजने वाले द्वन्द और मारकाट के बीच एक सम्वेदंशील मनुष्य की कविता है. जो एक अलग परिभाषा और शब्दावली खोज रहा है ताकि दुनिया को बचाया जा सके किंतु फिर भी आस्था की दुनिया के बरक्स खडा अपनी परिभाषा में अभी उलझा हुआ सा है .....................आने वाले समय में इस दौर के आदमी की उलझन और उसका दर्शन जब भी समझने की कोशिश की जायेगी .यह कविता उसमें मदद अवश्य करेगी


...............................................डा. अल्का सिन्ह

3 comments:

  1. वास्तव में ये पढकर विचारों को नया आयाम मिला है.परन्तु अभिव्यक्ति के लिए शब्द उपलब्ध नहीं हो रहे हैं .

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  2. वास्तव में एक सार्थक प्रस्तुति है यह
    आपके इस प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 05-03-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ

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  3. अलका जी कविता तो है ही अति उत्तम और उसकी जिस तरह आपने समीक्षा की है एक सटीक दृष्टिकोण प्रदान किया है उसकी जितनी तारीफ़ की जाये कम है।

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