tag:blogger.com,1999:blog-2655484424015460707.post3764238430384342531..comments2023-10-20T05:11:52.415-07:00Comments on हसरतें: चंद्रकांत देवताले कविता और स्त्री विमर्शDr. Alka Singhhttp://www.blogger.com/profile/04764806969123253333noreply@blogger.comBlogger4125tag:blogger.com,1999:blog-2655484424015460707.post-83151173706730739012011-12-08T02:15:08.594-08:002011-12-08T02:15:08.594-08:00no words to sayno words to sayamreshhttps://www.blogger.com/profile/15285243372605875949noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2655484424015460707.post-152204483788475422011-12-08T02:13:58.366-08:002011-12-08T02:13:58.366-08:00speech lessssspeech lessssamreshhttps://www.blogger.com/profile/15285243372605875949noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2655484424015460707.post-89433177823018731482011-12-06T01:02:57.371-08:002011-12-06T01:02:57.371-08:00अलका जी, आपने एक नए नज़रिए से पुरुषों के नारी लेखन ...अलका जी, आपने एक नए नज़रिए से पुरुषों के नारी लेखन पर गौर किया हैं | ज्यादातर लेखकों (पुरुषों) की नज़रों में नारी के सौंदर्य और संवेदना की बातें ही फलित होती हैं... नारी में यह दोनों गुण के साथ बहौत कुछ हैं जो पुरुषों में नहीं | शायद यही कमीं के कारण नर-नारी का मानसिक अंतर भी हैं...<br />आपने दोनों के सन्दर्भ में काफी नए विचार और चिंतन दिया हैं... बधाईAnonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2655484424015460707.post-56686041418037337982011-12-05T22:13:36.575-08:002011-12-05T22:13:36.575-08:00अलका जी ये समीक्षा मैने भी पढी थी और उन मनोभावो को...अलका जी ये समीक्षा मैने भी पढी थी और उन मनोभावो को समझने की कोशिश की थी मगर वहां सिर्फ़ स्त्री का एक ही पक्ष उभर कर आया आपका कहना सही है या कहिये पुरुष की उसी सोच का परिचायक रही कविता…………इसी संदर्भ मे अभी कुछ दिन पहले मायामृग जी ने कुछ पंक्तियाँ स्त्री के ऊपर लिखी थीं जिस पर काफ़ी विमर्श हुआ जिसका लिंक दे रही हूँ वहीं मैने भी अपने उदगार दिये थे जो इस प्रकार हैं…………<br />मगर ओ पुरुष ! तू नहीं अब बच पायेगा <br /><br />दोस्तों इस रचना का जन्म मायामृग जी की फेसबुक पर लिखी चंद पंक्तियों के कारण हुआ जो इस प्रकार थीं ...........<br />........<br />उसने कहा, स्त्री ! तुम्हारी आंखों में मदिरा है...तुम मुस्कुरा दीं। <br /><br />उसने कहा, स्त्री ! तुम्हारे चलने में नागिन का बोध होता है...तुम्हें नाज़ <br /><br />हुआ खुद पर....। <br /><br />अब वह कहता है तुम एक नशीली आदत और ज़हरीली नागिन के सिवा <br /><br />कुछ नहीं....। <br /><br />(ओह..इसका यह भी तो अर्थ होता है)<br /><br />.....तुम्हें पहले सोचना था स्त्री...उसकी तारीफ पर सहमति देने से <br /><br />पहले....<br /><br />ये थे उनके शब्द और अब ये हैं मेरे उदगार ............<br /><br />क्या हुआ जो गर दे दी सहमति<br />क्या हुआ जो गर दे दिया उसके पौरुष को सम्बल<br />जानती हूँ …………उसके जुल्म की इंतेहा <br />और अपने दीर्घ फ़ैले व्यास<br />कहाँ जायेगा और कब तक भोग पायेगा<br />कब तक मोहपाश से बच पायेगा<br />जहाज का पंछी है <br />लौट्कर वापिस जरूर आयेगा<br />तब ना उसका दंभ ठहर पायेगा<br />ना उसका पौरुष कहीं आयाम पायेगा<br />तब ना नागिन कह पायेगा <br />ना मदिरापान कर पायेगा<br />उस दिन उसे नारीशक्ति की अहमियत का<br />स्वयं पता चल जायेगा<br />तब वो ना हँस पायेगा<br />ना रो पायेगा<br />गर है आदत नशीली तो क्या हुआ<br />गर है नागिन ज़हरीली तो क्या हुआ<br />बचकर ओ पुरुष ! तू किधर जाएगा<br />जो भी तूने बनाया ........बन गयी<br />अब बता खुद से नज़र कैसे चुराएगा<br />क्या नारी जैसा धैर्य और साहस <br />फिर कहीं पायेगा<br />जो खुद से खुद को छलवाती है <br />तेरे हर छल को जानते हुए <br />तेरी झूठी तारीफों के पुलों की<br />तेरे हर सब्जबाग की <br />नस - नस पहचानती है <br />ये सब जानते हुए भी <br />जो खुद बन जाये तेरी चाहतों की तस्वीर<br />और फिर इतना करने पर भी <br />ना तू कहीं चैन पाए<br />उसका मुस्कुराता खिलखिलाता चेहरा देख<br />तेरा पौरुष आहत हो जाए<br />आखिर कब तक बेड़ियाँ पहनायेगा<br />देखना एक दिन इस मकडजाल में<br />तू खुद ही फँस जाएगा<br />अपने चक्रव्यूह में तू खुद को ही घिरा पायेगा <br />मगर ओ पुरुष ! तू नहीं अब बच पायेगा<br /><br />अब आप इसे किस संदर्भ मे देखती हैं ये आप पर निर्भर है मगर मेरा ख्याल तो यही है कि हमने इन्हे कुछ ज्यादा ही छूट दी जिसका नतीजा है ये …………हमारे समर्पण को हमारी कमजोरी आंका गया । मगर अब वक्त आ गया है हम उसका मूँहतोड जवाब दें और अपनी अहमियत से वाकिफ़ करवायें ताकि उनकी कविताओ मे उनकी सोच मे बदलाव आये और एक नये आयाम गढे जायें । बाकि अभी इतनी तो नही बदली है पुरुष मानसिकता कहीं ना कहीं आज भी जडें गहरी जमी हैं फिर चाहे रूप बदल कर ही लिखा गया हो ………बस उसे ही बदलना होगा हमें।vandana guptahttps://www.blogger.com/profile/00019337362157598975noreply@blogger.com