फ़ेसबुक ने याद दिलाया कि आज ’फ़ादर्स डे’ है मतलब
पिता को याद करने का दिन. मेरे ७३ साल के पिता को याद करना मुझे कई मौसमों से गुजरने जैसा लगता है. उन्हें याद करना जैस जाडों की नर्म और गर्म धूप को याद करद्ने जैसा है, कई बार उन्हें याद करना जैसे बारिश की पहली फ़ुहार को याद करना है और कई बार उन्हें याद करना जून की भरी दुपहरी की चटखती धूप को सहने जैसा भी है जैसे रेगिस्तान की गर्म रेत पर नंगे पांव चलने और जलने जैसा. एक लम्बा वक्त मैने इसी अहसास के साथ बिताया है उनके साथ. क्योंकि जैसे जैसे मैं बडी होने लगी थी उनके अन्दर का पिता एक अजीब खोल को ओढने लगा था. एक अनजान पुरुष उनके अन्दर अवतरित होने लगा था जिससे मैं कतई परिचित नहीं थी और उनके जीवन दर्शन से मैं टकराने लगी थी. अक्सर उनकी सोच को मैं डरते डराते ही सही चुनौती देने लगी थी. सच कहूं तो पापा के साथ मेरे रिश्ते कभी सामन्य नहीं रहे इसलिये आज जब भी मैं उन्हें सोचती हूं, उनसे मिलती हूं, उन्हें याद करती हूं तो अपनी उमर के सारे रास्तों और गलियारों से गुजर जाती हूं.. दूर खडी हो जब भी उनको देखती हूं मुझे अक्सर एक पुरुष दिखता है जो कई डोरियों से बंधा है. कई बार मैं उन्हें उन डोरियों में तडपता हुआ देखती हूं और कई बार उन सख्त होती डोरियों के बीच तन के खडा होता हुआ एक बेचारा देखती हूं. उनके साथ का कोई पल भूली नहीं हूं मैं. उनके साथ के अच्छे बुरे हर पल मुझे याद हैं. याद क्या जैसे गडे हुए हैं मेरी स्मृतियों में. वो कुछ इस तरह गडे हैं जैसे कल ही की तो बात है..
सोच रही हूं कब से जानती हूं उन्हें मैं? सही कहूं तो सोच रही हूं कि कब से पहचानती हूं उन्हें मैं? मां कहती थी बच्छा तो मां के गर्भ से पिता को पहचानता है....पर मुझे पापा का पहला अक्स याद आता है जब वो मुझे कुछ बनाने के बडे बडे सपने पाले अम्मा से बतिया रहे हैं...... एक अक्स जो आंखों में छपा है जब वो मुझे घुघुआ मन्ना कराते थे.........एक अक्स और है जब वो मुझे कन्धे पर चढा लेते थे...........थोडी देर बाद फ़िर एक चित्र आंखों के सामने घूमता है..फ़िर एक और........फ़िर एक और .............और तब से लेकर अब तक के वो सारे पल मेरी निगाहों में कैद हैं जो पापा और मेरे रिश्ते के बीच है..............मां कहती थी मेरी पैदाइश पर पापा थोडे मायूस थे पर मैने ये मायूसी कभी अपनी यादाश्त में महसूस नहीं की. इसीलिये पापा मेरे लिये गर्म घूप की तरह हैं आज भी. इसीलिये अपने बचपन के पापा को जब भी मैं याद करती हूं तो गुस्सैल पापा कभी याद नहीं आते मुझे.......हां उनकी बडी बडी आंखों ने कभी कभार मुझे डराया जरूर है...............सच कहूं तो बचपन में मां बाप के साथ बच्चों का रिश्ता एक अजीब बन्धन से बंधा होता है, एक अजीब अहसास से सराबोर........
पापा को बहुत कुछ मां के शब्दों से जाना है इसीलिये जब भी पापा को याद करती हूं मां का भी कोने में खडी म्लती है मुझे...बडी सी लाल बिन्दी लगाये लाल बार्डर की सफ़ेद साडी में.........कभी मुस्कुराते हुए ...कभी गुस्से में ......कभी आंखे तरेरते हुए...............कभी पापा से एक अजीब भाषा में बतियाती हुई ...........मां जैसे पिता के रोल को समझाने की काउन्सलर हो............. पापा और मेरे रिश्ते की एक्स्पर्ट........मेरा मानना है कि पिता को बच्चे आधे से अधिक मां के शब्दों से जानते हैं............उसके मनोभाव से समझते हैं.......... और मैने भी पापा को अम्मा के रहते ऐसे ही जाना था............... आज मां नहीं है तो पापा बांध तोड कर हमारे और करीब आ गये हैं जैसे मां ..........जैसे उसका आंचल ........पिछले १६ साल से मां के बाद मेरे लिये पापा जैसे मां अधिक हो गये हैं .......... कई बार एक ऐसे बच्चे जिसे मां ही सम्भालना जानती थी ..... अब तो लगता है जैसे हम मां बाप हैं और वो बच्चा......एक जिद्दी बच्चा...........................पापा आपके होने का बहुत मतलब है जीवन में ..................बहुत बहुत मतलब है ...
Sunday, June 21, 2015
Tuesday, June 16, 2015
जिन्दगी जीते हुए
<मैनें अपनी सगाई तोड दी थी. लडका मुझे किसी हाल में पसन्द नहीं था लेकिन घर वालों के दबाव के आगे मैं कुछ नहीं बोल पायी थी और फ़ैज़ाबाद के एक होटल में घर वालों के पीछे पीछे सगाई करने चली गयी थी. मेरा मन किसी हाल में मेरे हाथ में पडी अंगूठी को स्वीकार नहीं कर पा रहा था. सगाई होने के दूसरे दिन ही मैने अंगूठी उतार कर आलमारी में रख दी थी. घर वालों के चेहरे पर छाई खुशी मुझे अक्सर अपने मन की बात कहने से रोक देती थी और मैं चुप हो जाती थी लेकिन उस लडके से विवाह ना करने की इच्छा इतनी बलवती थी कि मैं उस अन्गूठी को किसी रूप में स्वीकार नहीं कर पा रही थी. बहरहाल मैं चुप चाप घर में चल रही तैयारियों को देखती और विश्वविद्यालय चली जाती लेकिन एक दिन खुद लडके के पिता ने मुझे इस सगाई से ना कहने का मौका दे दिया और मैने फ़ौरन इस विवाह से ना करने में देर नहीं की.
इस सगाई के टूटने के बाद घर का माहौल एक अज़ीब सी खामोशी में तब्दील हो गया. एक ऐसी वीरानी छा गयी थी जिसमें मुझे सांस लेने में घुटन सी होने लगी थी. मां की आन्खों के सूनेपन में कई सवाल और बेचैनी रहने लगी. दो छोटे भाई जो मुझे बेहद प्यार करते थे घर में सबसे कमजोर स्थिति में थे और पिता एक अज़ीब परायी नज़र से देखते जबकि दहेज़ के बेलगाम घोडे की लगाम थाम के ही मैने इस विवाह से ना की थी. अकेली लडकी जरूर थी लेकिन अपने इमानदार पिता की आर्थिक हदें जानती थी सो पूरे परिवार को गड्ढे में ढकेलने से बेहतर मैने इस लाव लश्कर वाले विवाह को ना करना ही बेहतर समझा. मैं नहीं जानती थी कि परिवार के सदस्यों के मन में क्या क्या चल रहा था लेकिन मुझे अपने घर में वह नही मिल रहा था जो इससे पहले तक मिलता आया था. मां ने तो जैसे खाट ही पकड ली थी और कोई सात महीने बाद इस दुनिया को छोड भी चलीं लेकिन मैं इस घर की घुटन से निकलना चाहती थी और मैने अपने बडे भाई के पास भोपाल जाने का फ़ैसला लिया.
भोपाल भारत का एक खूबसूरत शहर. एक ऐसा शहर जहां रहने का अहसास आपको प्रकृति के करीब रखता है लेकिन मैं अपनी जिन्दगी में आये इस दौर से अन्दर तक आहत थी. समझ में नहीं आता था कि क्या करूं. मन इतना अशान्त था कि कई बार आत्महत्या करने को जी करता. कई बार मन होता अम्मा की गोद से लिपट लिपट कर खूब रोऊ. पर मां ने जैसे अपने को अपने अन्दर समेट लिया था. कई बार सोचती जो पापा इतना प्यार करते थे वो इस तरह क्यों हो गये. अपने इन मनोभाओं के साथ मैं अपने भाई और भावज़ के घर गयी थी. उन्होंने इसी साल की ३ फ़रवरी को शादी की थी. इस तरह की मनोदशा में लिये गये फ़ैसले शायद अक्सर गलत होते हैं मेरा यह फ़ैसला भी गलत था इसका अहसास मुझे भाई के घर में घुसते ही होने लगा था फ़िर भी उन लोगों ने मुझे एक महीने किसी तरह बर्दाश्त किया. इन एक महीनों में मैने रिश्तों के बदतले तेवर को महसूस किया. वह भाई जो साल भर पैसे जुटाता था कि मुझे राखी पर कोई उपहार दे सके एक अज़ीब कशमकश में रहता. मुझसे बात करने के लिये शब्द उसके गले तक आकर अटक जाते थे. मुझे बडी मरणांतक पीडा होती. मै समझने लगी थी कि यह जगह मेरी नहीं है अभी यह ठीक से समझकर मैं कोई फ़ैसला कर पाती एक दिन उसने मुझे अपने आफ़िस के एक एक वर्कर के साथ मुझे एक ऐसी जगह भेज दिया जहां के जीवन की मैने कभी कल्पना नहीं की थी.
मैं उत्तर प्रदेश के एक ठीक ठाक मध्यम वर्गीय परिवार की तीन भाइयों के बीच की अकेली लडकी थी. तीन भाईयों के बीच होने के कारण थोडी दुलारी नकचढी और बेहतर जिन्दगी के सपने देखने वाली और अचानक यह बेतूल जिले के चिखली ब्लाक के जन्गलों के बीच के एक गांव में फ़ील्ड के अनुभव के नाम पर काम करने लिये भेज दिया जाना................ मैं भाई के इस फ़ैसले को कई दिनों तक समझ नहीं पाई थी. मेरे लिये बेतूल जिला एक अनजान और बहुत अज़ीब सा जिला था. अपनों से दूर वीरान में सांप बिच्छुओं के बीच एक ऐसी झोपडी में जीना जहां अगल बगल सांप और चूहों के चलने की आवजें आती हों बेहद डरावना था लेकिन अपने जीवन की इन परिस्थितियों में मैने इसे अपना भाग्य मान लिया था ..........मां अक्सर बहुत याद आती. उसका लाड और दुलार याद आता.......ठोडा सा बुखार होने पर उसका चादर ओढाना, सिर में तेल लगाना .....सिरहाने बैठे रहना सब याद आता ...........पापा का संरक्षण और गुस्सा याद आता ......मेरे दोनों छोटे भाई याद आते ...पर जिन्दगी कुछ ऐसे जाल में उलझ गयी थी कि मैं उनकी आवज सुनने को तरस गयी थी .................एक रात जब पेशाब करने के लिये बाहर जाते वक्त जब एक मोटा सांप दरवाजे पर था तो जिन्दगी जैसे खत्म सी लगी ..........उस रात के बाद जितने दिन मैं वहां रही रात में सोयी नहीं ....धीरे धीरे मैने अपने को काम में रमाना शुरू किया लेकिन अक्सर मेरे दिमाग में आता भाई तो जानता था मुझे फ़िर उसने मुझे यहां क्यों भेजा ??? अक्सर इन्हीं सवालों में उलझकर मैं एक गां से दूसरे गांव के रास्ते नापती. कभी रोती, कभी अपने से सवाल करती और कभी छोटे छोटे टीलों पर बसे गां वों में रहने वालों को देखकर अपने जीवन से उनकी तुलना करती. धीरे धीरे मैने उस पूरी जमात के दुख दर्द और रहन सहन को जानना शुरू किया जो इन्हीं परिस्थितियों में पैदा होते हैं और जीते हैं ...जो इससे इतर जीवन जानते ही नहीं.......अक्सर मैं अपने जीवन से उनकी तुलना करती और मेरी पीडा धीरे धीरे कम होने लगती. ...........
इस सगाई के टूटने के बाद घर का माहौल एक अज़ीब सी खामोशी में तब्दील हो गया. एक ऐसी वीरानी छा गयी थी जिसमें मुझे सांस लेने में घुटन सी होने लगी थी. मां की आन्खों के सूनेपन में कई सवाल और बेचैनी रहने लगी. दो छोटे भाई जो मुझे बेहद प्यार करते थे घर में सबसे कमजोर स्थिति में थे और पिता एक अज़ीब परायी नज़र से देखते जबकि दहेज़ के बेलगाम घोडे की लगाम थाम के ही मैने इस विवाह से ना की थी. अकेली लडकी जरूर थी लेकिन अपने इमानदार पिता की आर्थिक हदें जानती थी सो पूरे परिवार को गड्ढे में ढकेलने से बेहतर मैने इस लाव लश्कर वाले विवाह को ना करना ही बेहतर समझा. मैं नहीं जानती थी कि परिवार के सदस्यों के मन में क्या क्या चल रहा था लेकिन मुझे अपने घर में वह नही मिल रहा था जो इससे पहले तक मिलता आया था. मां ने तो जैसे खाट ही पकड ली थी और कोई सात महीने बाद इस दुनिया को छोड भी चलीं लेकिन मैं इस घर की घुटन से निकलना चाहती थी और मैने अपने बडे भाई के पास भोपाल जाने का फ़ैसला लिया.
भोपाल भारत का एक खूबसूरत शहर. एक ऐसा शहर जहां रहने का अहसास आपको प्रकृति के करीब रखता है लेकिन मैं अपनी जिन्दगी में आये इस दौर से अन्दर तक आहत थी. समझ में नहीं आता था कि क्या करूं. मन इतना अशान्त था कि कई बार आत्महत्या करने को जी करता. कई बार मन होता अम्मा की गोद से लिपट लिपट कर खूब रोऊ. पर मां ने जैसे अपने को अपने अन्दर समेट लिया था. कई बार सोचती जो पापा इतना प्यार करते थे वो इस तरह क्यों हो गये. अपने इन मनोभाओं के साथ मैं अपने भाई और भावज़ के घर गयी थी. उन्होंने इसी साल की ३ फ़रवरी को शादी की थी. इस तरह की मनोदशा में लिये गये फ़ैसले शायद अक्सर गलत होते हैं मेरा यह फ़ैसला भी गलत था इसका अहसास मुझे भाई के घर में घुसते ही होने लगा था फ़िर भी उन लोगों ने मुझे एक महीने किसी तरह बर्दाश्त किया. इन एक महीनों में मैने रिश्तों के बदतले तेवर को महसूस किया. वह भाई जो साल भर पैसे जुटाता था कि मुझे राखी पर कोई उपहार दे सके एक अज़ीब कशमकश में रहता. मुझसे बात करने के लिये शब्द उसके गले तक आकर अटक जाते थे. मुझे बडी मरणांतक पीडा होती. मै समझने लगी थी कि यह जगह मेरी नहीं है अभी यह ठीक से समझकर मैं कोई फ़ैसला कर पाती एक दिन उसने मुझे अपने आफ़िस के एक एक वर्कर के साथ मुझे एक ऐसी जगह भेज दिया जहां के जीवन की मैने कभी कल्पना नहीं की थी.
मैं उत्तर प्रदेश के एक ठीक ठाक मध्यम वर्गीय परिवार की तीन भाइयों के बीच की अकेली लडकी थी. तीन भाईयों के बीच होने के कारण थोडी दुलारी नकचढी और बेहतर जिन्दगी के सपने देखने वाली और अचानक यह बेतूल जिले के चिखली ब्लाक के जन्गलों के बीच के एक गांव में फ़ील्ड के अनुभव के नाम पर काम करने लिये भेज दिया जाना................ मैं भाई के इस फ़ैसले को कई दिनों तक समझ नहीं पाई थी. मेरे लिये बेतूल जिला एक अनजान और बहुत अज़ीब सा जिला था. अपनों से दूर वीरान में सांप बिच्छुओं के बीच एक ऐसी झोपडी में जीना जहां अगल बगल सांप और चूहों के चलने की आवजें आती हों बेहद डरावना था लेकिन अपने जीवन की इन परिस्थितियों में मैने इसे अपना भाग्य मान लिया था ..........मां अक्सर बहुत याद आती. उसका लाड और दुलार याद आता.......ठोडा सा बुखार होने पर उसका चादर ओढाना, सिर में तेल लगाना .....सिरहाने बैठे रहना सब याद आता ...........पापा का संरक्षण और गुस्सा याद आता ......मेरे दोनों छोटे भाई याद आते ...पर जिन्दगी कुछ ऐसे जाल में उलझ गयी थी कि मैं उनकी आवज सुनने को तरस गयी थी .................एक रात जब पेशाब करने के लिये बाहर जाते वक्त जब एक मोटा सांप दरवाजे पर था तो जिन्दगी जैसे खत्म सी लगी ..........उस रात के बाद जितने दिन मैं वहां रही रात में सोयी नहीं ....धीरे धीरे मैने अपने को काम में रमाना शुरू किया लेकिन अक्सर मेरे दिमाग में आता भाई तो जानता था मुझे फ़िर उसने मुझे यहां क्यों भेजा ??? अक्सर इन्हीं सवालों में उलझकर मैं एक गां से दूसरे गांव के रास्ते नापती. कभी रोती, कभी अपने से सवाल करती और कभी छोटे छोटे टीलों पर बसे गां वों में रहने वालों को देखकर अपने जीवन से उनकी तुलना करती. धीरे धीरे मैने उस पूरी जमात के दुख दर्द और रहन सहन को जानना शुरू किया जो इन्हीं परिस्थितियों में पैदा होते हैं और जीते हैं ...जो इससे इतर जीवन जानते ही नहीं.......अक्सर मैं अपने जीवन से उनकी तुलना करती और मेरी पीडा धीरे धीरे कम होने लगती. ...........
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