Wednesday, April 24, 2013

क्या मतलब है जब अनुज कहते हैं कि 'धरती उनकी भी है '

‘अनुज कुमार’ इमानदारी से कहूं तो यह मेरे लिये एक ऐसा अनजाना नाम है जिसे मैने इस कविता को पढने से पहले पूरी तरह नहीं जाना था. अनुज मेरे अन्य फेसबुक मित्रों की तरह एक मित्र हैं और इस कविता के साथ उन्होने मेरा नाम टैग किया था. करीब दो दिनो तक काम की व्यस्तता के कारण मेरी नज़र इस कविता पर गयी ही नहीं लेकिन कल जब मैं थोडा फुर्सत से बैठी तो देखा कि एक कविता मेरी वाल पर मेरा इंतज़ार कर रही है. यह सचमुच एक ऐसी कविता थी जो बरबस मेरा ध्यान खींच रही थी. मैने कविता को एक सरसरी निगाह से देखा और चुप चाप सोचने लगी यह अनुज आखिर है कौन ? क्या काम करता है यह ? शिक्षा की किस डोर को कहां तक और कहां से पकडा है इसने. कई बार प्रोफाईल देखने की कोशिश की लेकिन नेटवर्क की खराबी के कारण पूरी प्रोफाईल खुली ही नहीं. बस अनुज का चेहरा और उसका नाम देख पा रही थी. फिर उनको मैं उनको उनकी कविता के माध्यम से समझने की कोशिश करने लगी...... आप भी पढें अनुज की एक बेहद सम्वेदंशील और बडी कविता जो वहां से बोलती है जहां से मानव ने अपना सफर शुरू किया था क्योंकिं यह कविता अपने समय से आगे भी जाती है और बहुत पीछे मिथक से लेकर इतिहास और मानव विकास के पार तक जाती है. बेहद अर्थपूर्ण यह कविता मानव समाज , उसके विकास और उसके इतिहास पर सोचने कोमजबूर करती है. प्रस्तुत है अनुज की कविता धरती उनकी भी है -----------


जिनके सर पर छत हो,
उनके लिए धरती घर होती है,
जिनके हाथ में रोटी हो,
उनके लिए धरती शहद का छत्ता होती है,
जिनके देह पर शॉल हो,
उनके लिए धरती गर्म होती है,
जिनके बगल में माशूक हो,
उनके लिए धरती रूमानी होती है,
जिनके हाथ में प्याला हो,
उनके लिए धरती सपना होती है,

धरती के लाखों रंग उनके भी होते हैं,
जिनके सर शम्बूक के हैं,
हाथ एकलव्य के और दिल कबीर का,
जो बिरसा हैं, जाबली सत्यकाम हैं,
जो मनुष्य से हैं, मनुष्य नहीं,
जिनके ज़मीं का हिस्सा किसी का बकाया है,
जिनने अपने आकाश, चाँद सूरज खातिर बहुत चुकाया है,
जिनके बगल में कोई नहीं,
केवल ये हैं, इनके मवेशी, इनका घर.
जिनकी कोई मांग नहीं, केवल जबरन माँगा है,
जिन्होंने अपना बचपन धरती को जन्नत मानने में गुज़ारा है
और अपनी जवानी आकाश तक चीखें,
और धरती के गर्भ में अपनी आहें पहुंचाने में गुजारी है,
जो आज भी दो बांह धरती के मोह में
सदियों से दधिची की हड्डिया ढूँढ रहे थे. ढूँढ रहे हैं.
__________________अनुज कुमार_____

. जैसा कि मैने पहले कहा मैं अभी तक अनुज के लेखन से बहुत परिचित नहीं हूं. थोडा थोडा याद आ रहा है कि शायद अनुज को अशोक कुमार पांडे के ब्लाग असुविधा पर पढा था. पर पक्का याद नहीं है. लेकिन अनुज की इस कविता ने मेरा अनुज से एक अलग ही परिचय कराया है. परिचय यह कि इस कवि से आगे उम्मीद बध रही है. उम्मीद् यह कि इस कवि को अपने समय को बेहतर तरीके से साहित्य में रखना होगा. मैं इस कविता को इतना महत्व इसलिये भी दे रही हूं क्योंकि इस कविता ने मानव इतिहास , उसके विकास, उसके अर्थशास्त्र का सत्य एक साथ हमारे सामने रखा है. इस कविता ने मानव समाज, उसके भाव, उसके दर्द और उसकी सम्वेदना की कई पर्तें खोली हैं. बडी इमानदारी से बताने की कोशिश की है कि हम असल में हैं क्या? हमने मानव विकास के कैसे कैसे खांचे बनाये हैं. हम्ने कैसी दुनिया गढी है. आप भी देखें उनकी कविता का पहला खण्ड ....
जिनके सर पर छत हो,
उनके लिए धरती घर होती है,
जिनके हाथ में रोटी हो,
उनके लिए धरती शहद का छत्ता होती है,
जिनके देह पर शॉल हो,
उनके लिए धरती गर्म होती है,
जिनके बगल में माशूक हो,
उनके लिए धरती रूमानी होती है,
जिनके हाथ में प्याला हो,
उनके लिए धरती सपना होती है,

सामान्य तौर पर देखा जाये तो कविता का यह खण्ड उन लोगों की बात करता है जिनके पेट भरे हैं. जिनका अपने आस पास के संसाधन पर बेहतर कब्जा है. जो अधिशेष पर अपना जीवन यापन करते हैं. जिन्होने इस दुनिया को वैसा बनाया है जैसा वो चाहते हैं. इस दुनिया को वैसा बनाया है जैसी दुनिया दिखती है.इस दुनिया को वैसा बनाया है जैसा दुनिया को दरासल कई अर्थों में होना नहीं चाहिये था. मैं बार बार अनुज के अर्थ को दुनिया के रूप में शब्द दे रही हूं जबकि अनुज इसे धरती कहते हैं. तो सोच रही हूं कि अनुज ने धरती क्योंकर कहा होगा ? क्योंकर उन्होने कहा होगा कि धरती शहद हा छत्ता है ? क्योंकर कहा होगा धरती गर्म है? और क्योंकर कहा होगा कि धरती रूमानी है ? इतने सारे सवालों का जवाब खोजते खोजते जब मैं कविता के दूसरे खण्ड में प्रवेश करती हूं मुझे धरती शब्द का अर्थ स्प्ष्ट होने लगता है. मैं मनुष्य को वहां से देखने लगती हूं जब वह धरती पर आया. वहां से देखने लगती हूं जब उसने अपने लिये धरती का अर्थ समझा और जब उसने धरती को धारण किया. इसीलिये जैसे ही कविता का दूसरा खंड आरम्भ होता है इस प्रथम खंड का अर्थ अपना विशेष रूप ग्रहण करने लगता है और कविता अपना असली अर्थ पाठकों पर छोडती है .आप देखें भी देखें कविता का दूसरा हिस्सा ...........
धरती के लाखों रंग उनके भी होते हैं,
जिनके सर शम्बूक के हैं,
हाथ एकलव्य के और दिल कबीर का,
जो बिरसा हैं, जाबली सत्यकाम हैं,
जो मनुष्य से हैं, मनुष्य नहीं,
जिनके ज़मीं का हिस्सा किसी का बकाया है,
जिनने अपने आकाश, चाँद सूरज खातिर बहुत चुकाया है,
जिनके बगल में कोई नहीं,
केवल ये हैं, इनके मवेशी, इनका घर.
जिनकी कोई मांग नहीं, केवल जबरन माँगा है,
जिन्होंने अपना बचपन धरती को जन्नत मानने में गुज़ारा है
और अपनी जवानी आकाश तक चीखें,
और धरती के गर्भ में अपनी आहें पहुंचाने में गुजारी है,
जो आज भी दो बांह धरती के मोह में
सदियों से दधिची की हड्डिया ढूँढ रहे थे. ढूँढ रहे हैं.
कविता का दूसरा खंड पढते हुए मुझे अपने वो सारे काम याद आने लगते हैं जो अपनी समाज सेवा के दौरान
मैने किये हैं. वो सारा इतिहास याद आने लगता है जिसे मैने सालों पढा और पढाया है वो सारा अर्थ शास्त्र समझ में आने लगता है जिसने दुनिया को इतना जटिल और गूढ बना दिया है. दर असल कविता का पहला हिस्सा पढते हुए मुझे मानव के विकास काल के इतिहास में मनुष्य का हर पल का संघर्ष दिखता है जहां मनुष्य अपने जीवन को शिकार युग से लेजाकर एक सुगम पठ देता है. कृषि युग में आकर अधिशेष उत्पादन, बाज़ार और फिर शान और शौकत जैसे जीवन को इज़ाद करता है. धीरे धीरे यह विकास एक शक्ल अखित्यार करने लगती है और मनुष्य अपने अपनी जलवायू के हिसाब से जीवन जीने लगता है ..मनुष्य मनुष्य को विजित करने लगता है , हराता है , कुछ विजयी होने का गर्व पालते हैं, और कुछ विजित होने का दुख सहते हैं, इस तरह मनुष्य एक पूरी दुनिया ऐसी बनाता है जिसमें मानव दो भागों में बंट जाता है एक शोषक है जिसने इस धरती के अधिकतम संसाधनों को अपना कहा, अपना बनाया और अपने लिये इस्तेमाल किया. विजयी लोगों का जीवन लिखा, जीया और अपनी आने वाली पीढियों के लिये इन संसाधनों को सहेज़ कर रखने की परम्परा बनायी. भाषा बनायी, साहित्य लिखा , इतिहास बनाया और इतिहास लिखा, इन सबसे बडा उन्होने अपने आस पास के जीवन के तरीके को इतना आकर्षक बनाया कि वही तरीका मान्य और बेहतर माना जाता रहा.
वहीं दूसरी तरफ इसी धरती के मनुष्यों का बडा वर्ग जो इस दुनिया के संसाधनों के 10 प्रतिशत हिस्सेपर अपना गुज़ारा करता आ रहा है कमी उस मानव केलिये पूर्ण मानव नहीं रहा जिसने दुनिया पर अपना एक छत्र राजय बना रखा है .........जब अनुज कहते हैं कि

धरती के लाखों रंग उनके भी होते हैं,
जिनके सर शम्बूक के हैं,
हाथ एकलव्य के और दिल कबीर का,
जो बिरसा हैं, जाबली सत्यकाम हैं,
जो मनुष्य से हैं, मनुष्य नहीं,

..........तो वह इतिहास में पीछे मुड्कर देखने कीबात करते हैं. वो यह बताने की कोशिश करते हैं कि हर इंसान जो धरती पर आया है यह धरती उनकी भी उतनी ही है जितनी अन्य की. मसलन शम्बूक की भी उतनी ही है जितनी राम की, एक्लव्य की भी उतनी ही थी जितनी अर्जुन और कृष्ण. वह राम अराज्य के सत्य की बात करते हैं वह महाभारत और उसके सत्य की बात करते हैं, वह अर्जुन के शूर वीर होने पर प्रश्न भी खडा करते हैं प्रकारांतर से ......और वह द्रोण के माध्यम से शिक्षा व्यवस्था , उसके सच , उसके एक तरफा होने की तरफ इशारा करते हैं , एक्लव्य के माध्यम से वह पूरे महाभारत काल , उसके सच और हमारे मानस में रचे बसे इतिहास को पुन: खनगालने की तरफ इशारा करते हैं .....मतलब यह कि वह दुनिया को इंसानों की उस जमात के लिये सोचने को मजबूर करते हैं जो हाशिये पर रहा है/ रहता है ............. और वह भी इसी धरती की संतान है ............वह भी अपने तरीके से इस दुनिया में जीता है और इसे अपनी अगली पीढी के लिये छोड कर चला जाता है........... इसी के बहाने वो नस्ल और नस्ल भेद की भी बात करते हैं -----.

जिनके ज़मीं का हिस्सा किसी का बकाया है,
जिनने अपने आकाश, चाँद सूरज खातिर बहुत चुकाया है,
जिनके बगल में कोई नहीं,
केवल ये हैं, इनके मवेशी, इनका घर.
जिनकी कोई मांग नहीं, केवल जबरन माँगा है,
जिन्होंने अपना बचपन धरती को जन्नत मानने में गुज़ारा है

जैसे जैसे कविता आगे बढती है वह उस बडी आबादी के जीवन, उसकी मांग और उसके तनाव को रंग देती है. कविता के इस हिस्से ने जिसमें ‘केवल ये हैं, इनके मवेशी, इनका घर.’ का उल्लेख आता है मुझे बेतुल के गोंड और कोरकू आदिवासी याद आ जाते हैं...जिनके घर आज भी ऐसे ही हैं ........ कई बार सोचती हूं कि यदि दुनिया की यह आबादी भी उस समूह की तरह दुनिया के सारे संसाधनों पर बराबरी के हक के साथ सुख भोगती तो दुनिया कैसी होती ? यदि वो भी पेट्रोल की इस दुनिया में इसका उतना ही इस्तेमाल करते जैसे सुखवादी मानव समूह/ देश कर रहा है तो दुनिया कैसी होती ? यहीं पर मुझे निर्मला पुतुल याद आती हैं जब वो प्र्शन करते हैं कि सोचो अगर तुम्हारा घर पहाडी के पार सूदूर होता तो तुम्को कैसा लगता ? तो मैं भी वहीं खडी सोचती हूं कि अगर मानव का यह बडा वर्ग जो धरती को धरती बनाये रखने के लिये जोझ रहा है वो ना होता तो ये दुनिया कैसी होती ?

और अपनी जवानी आकाश तक चीखें,
और धरती के गर्भ में अपनी आहें पहुंचाने में गुजारी है,
जो आज भी दो बांह धरती के मोह में
सदियों से दधिची की हड्डिया ढूँढ रहे थे. ढूँढ रहे हैं.

...............और फिर अनुज की अंतिम चार पंक्तियां लाज़बाब कर देती हैं ............सोचती हूं , सोचती हूं .सोचती हूं निरंतर कि यह धरती और इसपर सुख से जीने वाले ऋणी है उनके जिनके जीवन सुदूर जंगल में हैं , जो दिबरी की रौशनी में अपनी चीखें पृथवी के गर्भ में डालते हैं और जो कभी सवाल करते हैं तो उनको हमारी उन समूहों की सेना , पुलिस मौत के घाट उतारती रहती है ......................एकलव्य याद है ना आपको

Tuesday, April 23, 2013

मेरे बचपन के दिन

यह हवेली जिसे मैं बार बार महल कह रही हूं गांव से हटकर तमाम बस्ती से दूर बनाया गया एक आलीशान मकान था. हलांकि मकान आधा अधूरा ही बना था लेकिन इसकी रौनक , बनावट और शान देखने लायक थी.मेरे बचपन तक इस हवेली को गांव के लोग बडका कोठा या दरबार कहकर बुलाते थे. इस दरबार के अंतिम दिनों की मैं भी साक्षी रही हूं. इस दरबार यानि बडका कोठा की भी अपनी बडी रोचक कहानी है ..... नानी बताती थीं कि इस कोठा से पहले यहां एक दूसरा महल हुआ करता था जो 1934 के भूकम्प में जमीदोज़ हो गया. 1934 का भूकम्प बिहार् के इतिहास की एक बडी घटना है. 8.1 की तीव्रता का यह भूकम्प 15 जनवरी 1934 में आया था. हलांकि इस भूकम्प से नेपाल, मुम्बई आसाम , कोलकाता , मुम्बई यहां तक कि लहासा तक प्रभावित थे. इस भूकम्प की कहानी मैने अपने सभी बुजुर्गों से सुन रखी है. बिहार में मुंगेर और मुजफ्फर पुर पूरी तर्ह तबाह हो गये थे.
इस घटना का गवाह मेरे ननिहाल का यह छोटा सा गांव अमनौर भी था क्योंकि यह मुजफ्फरपुर के बेहद करीब है. नानी गाहे बगाहे इस भूकम्प का आंखो देखा हाल सुना दिया करती थी हम बच्चों को क्योंकि यह उसके जीवन में किशोर वय की घटी सबसे भयानक और दिल दहला देने वाली घटना थी . इस घटना ने उसके जीवन पर खासा असर डाला था. नानी कोई 12 साल की किशोरी थी जब यह भूकम्प आया था. वह बताती थीं कि ‘’ वह जाडे के दिन थे , जनवरी का महीना, कडाके की ठंढ .....अचानक धरती हिलने लगी . कोई समझ ही नहीं पाया कि ये क्या हो रहा है . ऐसा लग रहा था कि सारा गांव झूला झूल रहा हो.......... अचानक्क लोगों ने चिल्लाना शुरू किया ...भूकम आयेल बा , भूकम्प ...........बाहर निकल लोगन ..............जल्दी ............. उस समय नानी अमनौर के जिस आलीशान मकान में रहा करती थीं उसे लाल महल कहते थे. यह महल अचानक हिलने लगा और थोडी ही देर में ढहने लगा......सब तरफ धूल ही धूल ........चिल्लाहट........बचाओ बचाओ की आवाज़ ........... आज़ीब दृष्य था ...........वो कहती थी ............इस भाग दौड में घर के सभी लोग बाहर निकल गये ........... नौकर चाकर सब लेकिन उस महल में एक 6 महीने की बच्ची की रोने की आवाज़ आने लगी ..........अचानक नानी देखा कि उनकी छोटी बहन को तो कोई लेकर ही नहीं आया ........................ इस छोटी बहन का मोह नानी को इतना था कि वो भूकम्प में गिरते ढहते महल में घुस गयीं और अपनी छोटी बहन को लेकर ही लौटीं..........................वो कहती थीं .........जैसे ही मैं लल्ली को लेकर बाहर आयी महल ऐसे गिरा जैसे कभी उसका कोई नामो निशान ही ना रहा हो वहां ......................
जब भी भूकम्प का जिकर होता नानी की आंखों में एक अज़ीब सा भाव देखती मैं. उस भाव में बहुत सी कहानियां होतीं ....एक अज़ीब सा दर्द और ढेर सारे किस्से............ उनके होठ थरथराने लगते थे ..... होठ कांपने लगते थे और आंखों में एक भय भी उभर आता था ............वो कहती थी ...........भूकम्प के जाने के बाद जैसे पूरे गांव में मौत का सन्नाटा पसरा हुआ था. लोग एक दूसरे को खोज रहे थे. कुछ मकान के नीचे दब गये थे. कुछ जमीन की बडी बडी दरारों के बीच दब गये थे ...........जो बच गये थे वो रहने, खाने और अपने को बचाने का ठिकाना खोज रहे थे.............. कितने ही बच्चे , बूढे, महिलायें किसी को मिली ही नहीं .............सब तरफ अज़ीब तरह का मातम पसरा था. बच जाने की खुशी से ज्यादा लोगों को खोने का गम था .................. और मैं अपनी छोटी बहन को गोद में ले सोच रही थी कि अब हम रहेंगे कहां ? खायेंगे क्या ? सोयेंगे कहां ?
अपने बारे में सोचते सोचते जब मैं आस पास देखती तो मुझसे भी बदतर हालत में पडे लोग थे, कोई जखमी था तो किसी बच्चे की मां नहीं थी ...............ऐसा मरघट किसी ने देखा नहीं होगा जैसा उस भूकम्प के बाद लोगों ने देखा था ................

Monday, April 15, 2013

जब जब सोचती हूं तुम्हें

तुम्हें सोचती हूं
जब जब
याद करती हूं
वक्त खुद ही उकेरने लगता है
बीता हुआ कल
एक अक्स ,कुछ शब्द

पीछे मुडकर
जब जब तुम्हे देखती हूं
एक परछाई की पदचाप
उभरने लगती है
मैं सुनने की कोशिश करती हू उसे
ठिठक जाती हूं
बीती हुई आहटों के साथ

जब जब
लिखती हूं तुम्हें
तुम पहाड बन जाते हो
एक किताब
जिसके पन्ने पलटने से
सिहरन होती है
खुशी और भय दोनों
मैने तुम्हें और उस वक्त को
अपनी किताबों में
बन्द कर रखा है
तब से
इतने सावल जो करने हैं तुमसे
पूछना है
अक्षर अक्षर बीता हुआ कल

मन
सुनना चाहता है तुमको
अपने लिये
.......................................अलका








Thursday, April 11, 2013

मेरे बचपन के दिन

सामंती व्यवस्था वाले इस गांव का पन्ना मेरी स्मृतियों में हमेशा कुछ इसी तरह की ही घटनाओं से खुलता है. कभी बचपन के दोस्त, कभी नानी, कभी अन्यों के साथ बनते – बिगडते रिश्तों और उसके अहसासों के पन्ने लिये जहन में तैरता रहता है.., मैं इन पन्नों को इस समय पकड की कवायद कर रही हूं......क्योंकि सामंती व्यवस्था वाले इस गांव , इस घर और यहां के लोगों के साथ मेरा जो आत्मीय रिश्ता था वह करीब होते हुए मेरे मस्तिष्क को सवाल करने के लिये मजबूर करता था ....................जैसे जैसे मेरी समझ विकसित होती गयी मैं इस घर के लोगों के साथ के अलग अलग रिश्तों के अर्थ को समझने के लिये दिमाग पर जोर देने लगी. उसी घर की एक बूडी इस घर को अपने पुरखों का पुरुषार्थ बताते हुए बखान करती और उसी घर से जुडे कई अन्य इस घर और हवेली को अपने लिये रोजगार की जगह बताते. मैं उनके वक्तव्यों, उसके मर्म और उसके अंतर को तब समझने में असमर्थ थी... लेकिन इतनी जरूर था कि मैं इन सभी को रेखांकित कर मां से इसका अर्थ पूछने से बाज नहीं आती थी ......... मां मुझे छोटी बच्ची समझ मेरे सवालों को शायद नज़रन्दाज़ कर देती ...या फिर मेरे छोटे दिमाग में बडी बातों का बोझ डालने से बचती थी.
इस गांव और इस हवेली से जुडे रिश्तों का बखान करते हुए नानी इसका एक गौरवशाली इतिहास बताती थी. उसके अनुसार मिर्जापुर जिले के रहने वाले दो सिपाहियों परस राय और परशुराम राय ने इस गांव को बसाया था. दोनो शिवाजी की सेना के बहुत बहादुर सिपाही थे. इन दोनो में से किसी एक को पूर्व के काला देव की उपाधि दी थी शिवा जी ने. सेना से निवृत्ति के बाद दोनो ने अपना राज्य स्थापित करने की इच्छा से बिहार के इस इलाके की तरफ आये. यहां आकर उनके मन को इतना सुकून मिला कि उन्होने इसका नाम अमन –उर यानि अमनौर् रख दिया और यहीं बस गये.
सही मायनों में देखा जाये तो यह इलाका प्राकृतिक रूप से बेहद खूब सूरत है. आम, लीची, जामुन , ताड और खज़ूर के पेडों और तमाम अन्य वनस्पतियों से लदा यह इलाका मन को बहुत आकर्षित करता है. वैसे भी आप जब उत्तर प्रदेश का बलिया जिला पार कर माझी के पुल पर पहुंचते हैं तो एक अलग ही अह्सास से भर उठते हैं और अमनौर तक पहुंचते पहुंचते यह अह्सास और भी अधिक घनीभूत हो जाता है.
इस राज्य और इसके इतिहास से जुडे कुछ साक्ष्य और किंवदंतियां भी हैं जिसे वहां पर रहने वाली एक खास जाति जिसे पवंरिया कहते हैं उनके पास सुरक्षित है. पवंरिया चारण और भांट टाईप की तरफ की एक जाति है जो कई अवसरों पर इस राज्य का गुङान करती है. जिसे पवांरा कहते हैं. वह इतिहास की इन सारी कथाओं को गा गा कर सुनाते हैं ( अब वह ऐसा करते हैं कि नहीं पता नहीं) मेरे बचपन तक यह परम्परा कायम थी और यह ही उनका रोजगार था. मैने अपने बचपन में अपने छोटे भाई के जन्म पर यह पंवारा देखा और सुना था...... अभी भी इसकी एक लाईन याद है जिसे अक्सर हम परिहास में गाते हैं कि ................महराज घर में बेटा भयेल बा शुभे लगना. ................इस गांव में कई ऐसी जगहें हैं जिसे यहां के राजपूत यहां के इतिहास के साक्षय के रूप में जोड्कर देखते हैं जो इन पवंरिया लोगों की कथाओं में भी सुरक्षित थे.
जैसा कि अक्सर इस तरह की किम्वदंतियों से जुडे गांव में होता है वैसे ही यहां भी गांव की बसाहट में था. गांव में अधिकत्र परिवार कर्मवार क्षत्रियों का है. इनके अनुसार उन्होने अन्य जातियों को प्रजा के रूप में बसाया है. इस तरह गांव की बसाहट में कुर्मी, यादव, ब्रहमन, माझी, दुसाध, मेहतर, लोहार, धोबी, तमोली, तेली, कानू, जायसवाल जैसी जितनी भी जातियां होती हैं सब थीं. मेरे बचपन तक यह सभी जातियां अपने अपने परम्परागत घन्धे के साथ जुडकर काम करती थीं. इन सभी जातियों के लिये यह हवेली दिन भर के रोजगार के लिये एक महतव्पूर्ण जगह थी.

Monday, April 8, 2013

मेरे बचपन के दिन

अब मुझे सज़ा मिलने वाली थी .............सज़ा ......एक कडी सज़ा ......... मेरे अन्दर अज़ीब अज़ीब भाव आ रहे थे. डर भी लग रहा था और समझ में भी नहीं आ रहा था कि घर पर क्या होगा. 5-6 साल के बच्चे का मन दुनिया को समझने की जुगत में लगा रहता है. यह जानने की कोशिश में लगा रहता है कि इस दुनिया में उसके कौन सी हरकत मान्य है और कौन सी अमान्य.


मैं कई तरह के बाल उहा- पोह में थी कि मेरी इस गलती के लिये नानी की सज़ा क्या होगी मेरे लिये ? सच कहूं तो मुझे अपनी ये गलती गलती लग ही नहीं रही थी क्योंकि आज़मगढ में तो अक्सर मैं ऐसा करती थी और मां मुझे कोई सज़ा नहीं देती थी. उल्टे सवाल करती थी, आज क्या क्या खेला? कहां कहां गयी? किस किस दोस्त के साथ खेला? वगैरह वगैरह ...... मैं सोच रही थी जीजी डांटेंगी या फिर् मेरी मां से शिकायत करेंगी, या फिर रात का खाना बन्द करने की धमकी देंगी जैसा कि वो अक्सर करती थीं.......... यही सब सोचते सोचते मैं दुरूखे पर आ गयी थी और उस व्यक्ति ने मेरी बांह जो उपर से पकड र्खी थी छोड्कर अब कलाई पकड ली थी और मेरी तरफ अज़ीब भाव से देखते हुए कहा ...... अब घरे आ गयीनी नूं जाईं अब बबुई जी के दरबार में ..... मैं उसकी बात सुन उसे पलट कर देखते हुए आगे बढ ही रही थी कि मेरी घिग्घी बन्ध गयी.........जैसे शेर के सामने मेमेना ...... रास्ते भर मिलीं सारी की सारी घमकियां एक एक करके आंखों के आगे आ गयीं. नानी से मेरी इतनी अधिक मानसिक दूरी थी कि मैं उनसे कुछ कह पाने में सह्ज़ नहीं थी दूसरे मेरे अन्दर एक तरह का बाल स्वाभिमान (ईगो) भी था. मैं बस आंख नीची किये उनके सामने खडी रही ......कोई पांच मिनट भी नहीं बीते होंगे कि सज़ा सुना दी गयी ..........भंडारी को यह हुक्म दे दिया गया कि मुझे घर के भंडार घर में बन्द कर दिया जाये...........और मैं उस घर में बन्द कर दी गयी. घर के अन्य किसी सदस्य ने इसका कोई विरोध भी नहीं किया. यहां तक की मां ने भी नहीं.
मेरा बच्चा मन जिस लोक राग में रमा लगा बाज़ार तक चला गया था वह मुझ बच्चे को ही नहीं नानी के कानों को भी खूब भाता था. मैने अक्सर उन्हें भगत लोगों को रोककर देवी गीत सुनते देखा था. प्रशंसा करते देखा था तो फिर सज़ा किस बात की थी यह समझ्ने के लिये नानी ने मुझे खासा वक्त दिया था.
मैं भंडार घर में बन्द कर दी गयी थी. भंडार घर का माहौल मेरे जैसे बच्चे को डराने के लिये काफी था. बडे बडे बोलो में भरे मकई, चावल, दाल, चना, तेल , सरसों, तीसी और भी तरह के दूसरे सामान..............कमरे में बन्द होने के बाद मेरा खूराफाती दिमाग यह सोचने में लगा था कि यहां बितने वाला वक्त आखिर कैसे काटूंगी........ यह सोचने में भी लगा था कि आखिर कब तक बन्द रहूंगी.........सारे बच्चे ऐसे ड्अरे सहमें थे कि कोई दरवाजे तक आने की हिम्मत नहीं कर रहा था .................और मैं सोच रही थी कि क्या करूं अब ?
मैने उस कमरे की उंची ऊंची खिडकियों की तरफ देखा और उसी पर जाकर बैठ गयी..इस जुगत में कि अगर चट्खनी खुल गयी तो मैं यहां से ही निकल भागूंगी लेकिन वो इतनी ऊंची थीं कि मेरे बस की नहीं थीं ..........फिर भी मैं कोशिश कर रही थी ............ बीच बीच में चूहों की ची ची से मैं सिहर जाया करती थी .............और मां का इंतजार करने लगती थी .......................... अचानक मेरे गुस्से ने अपना काम करना शूरू किया और फिर मैने हनुमान जी की तरह उस घर में रखे कई बोरों को नुकसान पहुंचाया .........सरसों का तेल गिराया..............उसपर तरह तरह के सामान को गिराया जो भी हाथ में मिला उससे बोरियां फाड डालीं फिर सब्से उंचे बोरे पर चढ कर बैठ गयी ........................ कोई दो तीन घंटे बाद दरवाज़ा खुला ............... और मुझे बाहर निकाला गया .....................
इस घटना ने मुझे कई नसीहतें दी थीं......... इस घर के तौर तरीकों और कानून कायदों का अहसास कराया था .............

Saturday, April 6, 2013

एक महल की दास्तान ..............मेरे बचपन के दिन

सोचती हूं, नानी और अपने रिश्ते की कहानी से ही शुरू करूं इस दास्तान को. उनकी और अपनी वैचारिक लडाई से. इस लडाई की बहुत सी वज़हें थीं. सबसे बडी वज़ह देश काल और परिवेश का था. दरअसल अमनौर छपरा जिले से कोई 25 किलोमीटर पर बसा एक ऐसा गांव है जिसकी अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है. अंग्रेजों के समय में उनकी जमीदारी प्रथा के अंतर्गत यह एक छोटी सी स्टेट थी जो किसानो से ;लगान् वसूल कर अंग्रेजों को देती थी. इसलिये इस गांव की संरचना , जातीय गणित , सोच और जीवन जीने का तरीका बेहद सामंतवादी था. जातियों के बीच के अंतरसम्बन्ध बेहद जटिल और बहुत हद तक शोषण पर आधारित स्त्रियों की सोच समाज में उनकी स्थिति सब बेहद जटिल थे. नानी और मेरे बीच जो वैचारिक मतभेद और अन्तर् विरोध था वह इन्हीं के इर्द गिर्द था. नानी अमनौर के उस बबुआन की महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती थीं जो एक खास तरह के समाज में जीने की आदी थीं और मेरा पालन पोषण शहर के एक ऐसे माता पिता के साथ हो रहा था जो दोनो नौकरी पेशा थे. फिर आज़म गढ के गांव और उसका समाज बिहार के इस गांव से बेहद अलग सोच वाले थे जो रैयत व्यवाडी व्यव्स्था के अंग थे.
आज जब भी नानी का चेहरा आंखों के सामने आता है एक घटना जैसे चिपकी चली आती है जहन में... एक हल्की सी मुस्कान, तैर जाती है होठों पर, अपनी चंचलता , बचपना और शरारत के बीच नानी का वो क्रोध और वो सजा अब बहुत गुदगुदाती है. सोचती हूं कि अब वह पीढी भी खतम हो गयी जो पहले बच्चों में बेहतर संस्कार डालने के लिये ऐसी ऐसी सजायें देती थीं कि अब भी उसे सोचकर रुह कांप जाये. मैने यहां ऐसी कई सजायें काटी हैं......
वह नवरात्र का महीना था. नवदुर्गे के दिन. बिहार में नवरात्र का महीना कुछ अलग ही रौनक वाला होता था तब. मैं कोई 6-7 साल की ही थी. दशहरे की छुटियों में गयी थी नानी के घर. उस दौर में इस हवेली की लडकियां चाहे वो 5 – 6 साल की भी हों तो उनका बाहर जाना एक तरह से प्रतिबन्धित था. हर लडकी और उसको खिलाने वाली को यह सख्ती से सिखाया जाता था कि बेहत्र हो कि वो घर के भीतर ही खेलें. किंतु मैं इस जमात से अलग घर के अन्दर के वातावरण से अलग बाहर खेलना पसन्द करती थी. मुझे बाहर ताड खज़ूर के पेड देखना, सामने की फुल्वाडी में तितली पकडना , आस पास के घरों में चुपके से जाकर बैठ जाना बेहद रास आता था. जबकि इसकी सख्त मनाही होती थी बहां. कई बार जब घर पर लोगों को पता चल जाता था जब वो इस कमेंट के साथ नज़रन्दाज़ कर देते थे कि ‘ उ का जाने इहां के रेवाज़’ औउर उनका कौन हमेशा रहे के बा इहां; पर फिर भी सखत निहरानी रहती थी.
एक दिन मैं बाहर के बरामदे में खडी सामने की फुल्वाडी से तितकी पकडने की सोच ही रही थी कि मुझे दूर से एक बहुत ही मधुर आवाज़ कान में सुनाई दी ....वहां का एक लोकल वाद्य जिसे खडताल कहते हैं उसकी आवाज़ इतना मुग्ध कर रही थी मैं चुपचाप वहां खडी यह ध्यान लगाने में मस्त थी कि यह आवाज़ कहां से आ रही है. कौन गा रहा है ..आवाज़ धीरे धीरे करीब आने लगी थी और स्वर साफ हो रहा था ......... वह एक देवी गीत था जो एक बेहद सुमधुर के साथ मुझे अपने सम्मोहन में ले रहा था ....... निबिया की डाल मईया
लावेली हिलोरवा कि झूमि झूमि
माई मोरा गावेली गीत कि
झूमी झूमी
झुमते झूमत मईया के लागल पियसिया
कि एक छाक मोहि के पनिया
पिया द कि एक छाक

अचानक मैने देखा कि एक बूढा व्यक्ति हाथ में खडताल लिये कुछ और लोगों के साथ दरवाजे पर आ खडा हुआ है. वह अपने हाथ की खडताल को इतने सधे तरीके से बज़ा रहा था कि कान वहीं जमें थे अब तक. मैं पूरे सम्मोहन में थी. ऐसे सम्मोहन में जो अपनी आगोश में ले चुका था. यह भगत लोगों की टोली थी. जो नवरात्रों में देवीगीत गाते थे , जो अपनी भिक्षा मांगते थे और अपना गुजारा करते थे. बहरहाल .......भगत को जैसे ही अन्दर से आकर किसी ने भिक्षा दी वह अगले घर की तरफ बढने लगा. उसके गाने में और स्वर में जो सम्मोहन था मैं उससे अभी उबर नहीं पायी थी . इसी सम्मोहन में मैं उसके पीछे पीछे जहां जहां वह जाता चलती गयी. मुझे इस बात का पता नहीं चला कि मैं गांव के किस किस घर के सामने भीख मांगने वाले इस भगत के साथ घूमती रही. मुझे इस बात का भी आभास नहीं हुआ कि मैं उस भगत के स्वर में स्वर मिलाके गाती रही. और इस बात का भी आभास नहीं हुआ कि किसने मुझे उसके साथ देखा , किसने नहीं देखा. मैं बस उस भगत के पीछे देवीगीत गाते – गुनगुनाते और उस बूढे भगत का स्वर सुनते गांव के बाज़ार तक पहुंच गयी थी. इधर घर में सब तरफ मेरी खोज मच गयी थी. सबने सारा घर छान मारा मैं जब कहीं नहीं मिली. घर पर अफरा तफरी मची हुई थी ....आस पास के हर घर में पूछा जा रहा था कि किसी ने मुझे देखा ? तभी नानी को किसी ने सूचना दी कि मैं बाज़ार में हूं...
बाज़ार इस हवेली के लोगों के लिये सर्वथा वर्जित जगह थी. लडकियां तो दूर की बात घर के लड्के भी वहां नहीं जाते थे और ऐसे में मैं दरबार की नातिन बाज़ार पहुंच गयी थी. यह घूर गुस्ताखी थी मेरी . एक ऐसा अपराध जिसपर बहुत सख्त सज़ा का प्रावधान था. जहां माफी बिल्कुल नहीं थी. जहां नानी की निगाहों , उनके जज्मेंट से बच पाना बेहद मुश्किल था.
थोडी देर बाद मैं पकड कर घर लायी गयी. जो व्यक्ति मुझे बाज़ार से पकड कर ला रहा था उसने मुझे कुछ इस तरह से धमकियां दी थीं कि मैं रास्ते में ही अंज़ाम से परिचित हो गयी थी. वह कह रहा था : भला बतायीं त दरबार के लईकी और ए तरह बज़ार में घूमतानी? र उ आ तनिको डर ना लागल कि बबुई जी राउर का हाल करम ?
चलीं ..अब पता लागी.....मज़ा आयी भागे के मतलब समझ में आयी .......... मेरे अन्दर अज़ीब अज़ीब भाव आ रहे थे. डर भी लग रहा था. पर इस बात का अन्दाज़ा नहीं था कि घर के लोग इस कदर गुस्सा करेंगे ....







एक महल की दास्तान ---------मेरे बचपन के दिन

मैं चुप , नि:शब्द सब् देख रही थी ........ ये हवेली , उसका निर्जन हो जाना, जर्जर हो जाना और इतना बदसूरत हो जाना एक गहरे अवसाद में दाल रहा था और दूसरी तरफ एक खूबसूरत जवान महिला से एक जर्जर काया में तब्दील उस महिला और उसकी आवाज़ मुझे यह सोचने को मज्बूर कर रही थी कि सच मुच यह संसार म्रर्त्यलोक है ............
वहां पहुंचने पर खबर लगते ही धीरे धीरे कई चेहरे घेर लेते हैं मुझे मैं उन चेहरों में से कुछ को ही बडी मुश्किल से पहचान पाती हूं पर वो सभी बुलबुल्ल बबुनी को खूब पहचान लेते हैं. इन चेहरों में से कई आईस पाईस खेल के खिलादी थे. उनकी स्मृतियों में भी मैं कहीं बसी हुई थी इसलिये यादों की पर्तों के साथ हमारे चेहरे पर हल्की मुस्कान दौडी और हवेली के घास के मैदान में ही बैठ गये कुछ देर के लिये ......
मेरे अन्दर इस हवेली में जाकर उसे देखने का साहस अभी नहीं जुट पा रहा, बस एक टक मैं उसे देख रही हूं. हर तरफ से जर्जर, टूट चुकी , बेजान उस हवेली का एक ऐसा चेहरा मेरी स्मृतियों में कैद है जो मुझे जीवन देता है, कल्पना देता है, पीछे लौट्कर सोचने उसे लिखने का साहस देता है और उसी हवेली की यह हालत देखकर रो पडना स्वाभाविक था.. मैं जैसे जैसे कदम बडा रही हूं यह दुख बढता जा रहा है. आंसू इस दुख को व्यत ही नहीं कर सकते जिस भाव ने मुझे घेर रखा है. रात इसी खंडहर में गुज़ारनी है यह सूचना सारी व्यवस्थाओं के बाद मुझे यहां की केयर टेकर ने दे दी है लेकिन मैं तो उजाले में इस बुजुर्ग जैसी हवेली का हाल चाल लेने के लिये आगे बढ रही थी. इस हवेली का बडा हिस्सा या यों कहें कि एक अलग मकान सा हिस्सा बहुत लम्बे अरसे तक अस्पताल रहा था मैं अभी उसी घर के सामने खडी हूं और पलट कर 4-5 साल की बुलबुल बन जाती हूं ............
अम्मा तब नौकरी करती थी. आज़मगढ जी जी आई सी में साईंस की अध्यापिका थी..मेरी हर गर्मी की छुट्टी छपरा जिले के इस छोटे से गांव अमनौर में बीतती थी. हम इसे अपना ननिहाल कहते थे जबकि ये मेरी मां का ननिहाल था.. अम्मा के ननिहाल से कब यह हमारा ननिहाल बन गया यह एक लम्बी कहानी है लेकिन हम चारो भाई बहन के ज़हन में यह हवेली, यह देश , यहां के लोग कुछ ऐसे बसे हैं कि उन्हें हटा पाना हमारे लिये कभी सम्भव नहीं रहा.. सच कहूं तो यहां से जुडी हर एक चीज़ हमारी यादों के बडे महत्व्पूर्ण किरदार बनकर् बैठे हैं. सोच रही हूं कहां से शुरू करूं इस हवेली की दास्तान.... किस मोड से , किस किरदार से या फिर वहां से जहां से स्मृतियों के पहली पर्त की शुरूआत होती है. जहां से आंखों ने इसे देखना और समझना शुरू किया..............
मैं हवेली के बाहरी खम्भे को पकड के पुराने दिनों में लौट जाती हूं ...वही 6-7 साल की बुलबुल के रूप में और इसके एक एक कोने की रौनक को रंग देने लगती हूं........... कई किस्से जो इस हवेली के बारे में नानी से सुने थे वो याद आते हैं.....कई कहानियां जो यहां के पवंरिया सुनाते थे वो याद आते हैं ........ और फिर याद आती है हवेली के जीवंत दिन...... जब चारो तरफ लोग ही लोग थे .....जब चारो तरफ .......आवाज़ें ही आवाज़ें ........हमारी आईस – पाईस , एक्कट –दुक्कट , भागना – दौडना, बिना बात खिलखिलाना, धमा चौकडी करना, आम के पाल से आम चुराना, सज़ा के तौर पर भन्डार घर में बन्द कर दिया जाना और फिर नानी की लाल लाल आंखों का घूरना .......सच कहूं तो वो आंखें आज भी डराती हैं मुझे ............

Friday, April 5, 2013

एक महल की दास्तान ---- मेरे बचपन के दिन

‘बुलबुल’ इसी नाम से मेरे मा – बाप और बडे- बुजुर्ग मुझे घर में पुकारते थे. पापा को छोडकर अब इस नाम से बुलाने वाले इक्का- दुक्का बचे हैं. कई बार कान तरस जाते हैं यह नाम किसी के मुंह से सुनने को. पर आज इस हवेली के हर कोने आवाज आ रही है जैसे कितने ही लोग बुला रहे है. उपर बालकनी से नानी की आवाज़ सुनाई दे रही है और नीचे दरोखे से भंडारी की आवज़ आ रही है ‘ ए बूलबूल बबुनी आ गयीनी’ . चौका अनगना से ललमतिया की माई कह रही हैं कि ए बुलबुल बबुनी हाल्दी हाल्दी हाथ गोड धो लीं........ बीजे बाद में होई रउआ भूख लागल होई खा लीं तनी त खेलम....... सुनी ना का खायेम .... चना के सतुई और धी चीनी........ मैं जवाब देती हूं जैसे ....इस खंडहर हो गयी हवेली की एक एक ईंट में जैसे मेरी यादों का खज़ाना है सब किसी फिल की रील की तरह चल रही है मेरी आंख के सामने. मैं यहां इस बार 1992 के बाद आयी हूं.... इससे पहले नानी की मृत्यु पर आयी थी तब यह नहीं सोचा था कि अगली बार जब आउंगी तब यह इस कदर खंडहर हो चुकी होगी. नहीं सोचा था कि बचपन के सब चेहरे फिर देखने को नहीं मिलेंगे. ललमतिया, सुमतिया, सुदमवा, देवंतिया, संवरिया किसी से मुलाकात नहीं होगी......सोचा नहीं था कि ललमतिया की माई कभी नहीं दिखेंगी .आज सब याद आ रहे हैं. वो सारे चेहरे जिसने मुझे प्यार दिया , खाना खिलाया, मेरे ननिहाल पहुंचने पर ऐसे न्योछवर हुए जैसे मैं उनकी अपनी औलाद हौउ. मुझे अपने ननिहाल का ये देश, यहां के लोग, उनकी जबान, उनका चरित्र, उनके भाव, ये ताड के पेड, यहां मिट्टी की सुगन्ध, यहां का लोक संगीत , यहां की भाषा कुछ इस कदर प्यारे हैं कि मैं इसे दिल एं लिये फिरती हूं. इसी लिये आज जब यहां आयी हूं अभी तक अपनी हवेली के भीतर नहीं गयी हूं. बस बाहर बाहर घूम रही हूं ......... उन चेहरों को खोज रही हूं जो मेरी स्मृतियों को रंग देते हैं. जो मेरे अनतर में जमें बैठे हैं. जो मुझे शब्द देते हैं , सुर देते हैं राग रागिनियों से परिचय कराते हैं और लिखने का अकूत साहस देते हैं........ मैं उनको ही खोज रही हूं बेचैन होकर .......रधिकवा, उसकी माई, भोलवा, शोभवा याद कर कर के सबसे पूछ रही हूं कि कहीं से कोई धागा मिले तो मैं वो मोती पिरोना शुरू करूं ...........पर उनमें से बस एक दो मिली हैं और मेरे अन्दर जैसे एक हूक उठ रही है ......एक कराह ..... एक ऐसी कराह जिसे मैं किसी को सुना भी नहीं सकती ना ही किसी से साझा कर सकती हूं ...............चुपचाप एक पेड के नीचे खडी हो सोच रही हूं कि क्या समय इतना पीछे चूट गया .इतना पीछे .........सब कुछ इतना बदल गया ? इतना बदल गया ? आखिर इतने दिनों के बीच मैं क्यों नहीं आयी यहां ? खां फंसी रही कि नहीं आ पायी ? खुद से सवाल करती रही घंटों .....कोसती रही अपने आप को तभी लगा जैसे पीछे से किसी ने बुलाया ..............बुलबुल चिरई आ गयीली का ? आरे हमर बाछी .......आ गयीनी रउआ ......... आवाज़ इतनी धीमी थी कि शक्क हुआ अपने आप पर कि ये मैं कैसे सुन सकती हूं ? कई बार सोचा कान बज रहे हैं मेरे इसी उमर में ..........पर तभी एक वृद्ध हाथ मे मुझे छुआ .....जैसे आत्मा तृप्त हो गयी ...........मेरी आंखे और उनकी आंखे मिलीं और ........ काहे एज़वा बईठल् बानी बबुनी ? काहे ?
देवंतिया के माई रउआ हमरा पहचान गयीनी ? कइसे ? एतना दिन बाद ?
ए बाबू भला रउआ के ना पहचानेम ? ए हमर बाछी देखी ना केतना बढियां लागता ..... राउर पाहुन केने बानी ? उंहों के आयेल बानी नूं ?

Tuesday, April 2, 2013

अकेले होने के दर्द

लाडली होने का सुख
अकेले होने के दर्द से
बहुत कमतर होता है
लेकिन दुनिया
मेरे अकेले होने को
मेरे सुखी और सौभाग्यशाली
होने से जोडकर देखती रही है
जबकि मैं
इस अकेलेपन की व्यथा
लिये भटकती रही हूं
इधर – उधर
तीन भाइयों के बीच
मेरे मन का हर कोना
टकटकी लगाये देखता रहा है
उनके खेल, उनका बल, उनका मन
उनके आपस का एका
उनकी खुशी , खुशी की कुलांचे
उनके होने से मनो सौभाग्य का बोझ लिये मैं
चुप चाप गिनती रही हूं
अपना सुख
छिपाती रही हूं
अकेलापन
अपनी व्यथा – कथा
आंखों की नमकीन होती कोर
और एक कमजोर मन

...............................................अल्का