Saturday, April 6, 2013

एक महल की दास्तान ---------मेरे बचपन के दिन

मैं चुप , नि:शब्द सब् देख रही थी ........ ये हवेली , उसका निर्जन हो जाना, जर्जर हो जाना और इतना बदसूरत हो जाना एक गहरे अवसाद में दाल रहा था और दूसरी तरफ एक खूबसूरत जवान महिला से एक जर्जर काया में तब्दील उस महिला और उसकी आवाज़ मुझे यह सोचने को मज्बूर कर रही थी कि सच मुच यह संसार म्रर्त्यलोक है ............
वहां पहुंचने पर खबर लगते ही धीरे धीरे कई चेहरे घेर लेते हैं मुझे मैं उन चेहरों में से कुछ को ही बडी मुश्किल से पहचान पाती हूं पर वो सभी बुलबुल्ल बबुनी को खूब पहचान लेते हैं. इन चेहरों में से कई आईस पाईस खेल के खिलादी थे. उनकी स्मृतियों में भी मैं कहीं बसी हुई थी इसलिये यादों की पर्तों के साथ हमारे चेहरे पर हल्की मुस्कान दौडी और हवेली के घास के मैदान में ही बैठ गये कुछ देर के लिये ......
मेरे अन्दर इस हवेली में जाकर उसे देखने का साहस अभी नहीं जुट पा रहा, बस एक टक मैं उसे देख रही हूं. हर तरफ से जर्जर, टूट चुकी , बेजान उस हवेली का एक ऐसा चेहरा मेरी स्मृतियों में कैद है जो मुझे जीवन देता है, कल्पना देता है, पीछे लौट्कर सोचने उसे लिखने का साहस देता है और उसी हवेली की यह हालत देखकर रो पडना स्वाभाविक था.. मैं जैसे जैसे कदम बडा रही हूं यह दुख बढता जा रहा है. आंसू इस दुख को व्यत ही नहीं कर सकते जिस भाव ने मुझे घेर रखा है. रात इसी खंडहर में गुज़ारनी है यह सूचना सारी व्यवस्थाओं के बाद मुझे यहां की केयर टेकर ने दे दी है लेकिन मैं तो उजाले में इस बुजुर्ग जैसी हवेली का हाल चाल लेने के लिये आगे बढ रही थी. इस हवेली का बडा हिस्सा या यों कहें कि एक अलग मकान सा हिस्सा बहुत लम्बे अरसे तक अस्पताल रहा था मैं अभी उसी घर के सामने खडी हूं और पलट कर 4-5 साल की बुलबुल बन जाती हूं ............
अम्मा तब नौकरी करती थी. आज़मगढ जी जी आई सी में साईंस की अध्यापिका थी..मेरी हर गर्मी की छुट्टी छपरा जिले के इस छोटे से गांव अमनौर में बीतती थी. हम इसे अपना ननिहाल कहते थे जबकि ये मेरी मां का ननिहाल था.. अम्मा के ननिहाल से कब यह हमारा ननिहाल बन गया यह एक लम्बी कहानी है लेकिन हम चारो भाई बहन के ज़हन में यह हवेली, यह देश , यहां के लोग कुछ ऐसे बसे हैं कि उन्हें हटा पाना हमारे लिये कभी सम्भव नहीं रहा.. सच कहूं तो यहां से जुडी हर एक चीज़ हमारी यादों के बडे महत्व्पूर्ण किरदार बनकर् बैठे हैं. सोच रही हूं कहां से शुरू करूं इस हवेली की दास्तान.... किस मोड से , किस किरदार से या फिर वहां से जहां से स्मृतियों के पहली पर्त की शुरूआत होती है. जहां से आंखों ने इसे देखना और समझना शुरू किया..............
मैं हवेली के बाहरी खम्भे को पकड के पुराने दिनों में लौट जाती हूं ...वही 6-7 साल की बुलबुल के रूप में और इसके एक एक कोने की रौनक को रंग देने लगती हूं........... कई किस्से जो इस हवेली के बारे में नानी से सुने थे वो याद आते हैं.....कई कहानियां जो यहां के पवंरिया सुनाते थे वो याद आते हैं ........ और फिर याद आती है हवेली के जीवंत दिन...... जब चारो तरफ लोग ही लोग थे .....जब चारो तरफ .......आवाज़ें ही आवाज़ें ........हमारी आईस – पाईस , एक्कट –दुक्कट , भागना – दौडना, बिना बात खिलखिलाना, धमा चौकडी करना, आम के पाल से आम चुराना, सज़ा के तौर पर भन्डार घर में बन्द कर दिया जाना और फिर नानी की लाल लाल आंखों का घूरना .......सच कहूं तो वो आंखें आज भी डराती हैं मुझे ............

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