Wednesday, November 30, 2011

एक और बहादुर शाह

एक और बहादुर शाह
गद्दी नशीन है और लिख रहा है देश की तकदीर
उधार में ली गयी कलम से
उस कलम की स्याही भी उधार की ही है
जो अर्थशास्त्र को नये तरीके से परिभाषित करती है
इस परिभाषा के सारे शब्द काले और सारे सफे चमकीले दीखते हैं
उस चमक के दीवाने लोग पढ नही पा रहे काले शब्दों को
क्योंकि इस बार इस बूढे बहादुर शाह के पीछे खडी हैं शक्तियां देश के भीतर भी और बाहर भी
और वो दे रहा है दस्तखतों का तोहफा कभी इसको कभी उसको
इस बार का बहादुर शाह दो गज़ ज़मीन के लिये गुहार नही करेगा
ना ही इधर - उधर देश के बाहर दफ्न होने पर आंसू बहायेगा
क्योंकि उसकी दाढी कई तिनको से भरी है जिसे वो सहेज़ के बान्धता है बार बार
ताकि लोग भटकते रहें कई गुफाओं में
अन्धेरी गलियों में
ठांव ठांव
और वो कलम चलाता रहे देश की गर्दन पर
और लिखता रहे देश की तकदीर हाथ मिला – मिला
...............................................अलका

Thursday, November 17, 2011

सुशीला पुरी की थारू औरतें और एक नज़र मेरी

(मित्रो ! मैं बिहार के एक बहुत छोटे शहर छपरा में हूँ, यहां भी शहर में रहना कम ही हो पाता है दिन - रात भटकती रहती हूँ कभी इस ठांव तो कभी उस ठांव. यही कारण है कि कई मित्र नराज़ भी रहते हैं कि मैं उनसे बात नहीं करती. जब पटना में होती हूँ तो नेट सही रहता है और मैं बहुत आसानी से सबसे मुखातिब हो पाती हूँ. यहां जब भी फेसबुक् पर आती हूँ तो इस लालच में होती हूँ कि मेरे दिमाग को कुछ चारा मिल जाये तकि उर्जा बनी रहे और दिन भर की थकान मिट जाये.)


कल इसी क्रम में फेसबुक पर सुशीला पुरी की 'कथाक्रम' पत्रिका के अक्तूबर-दिसंबर 2011 के विशेषांक में प्रकाशित कविता --- ‘’थारू औरतें’’ ---- पढी. पढकर जैसे मैं ठहर गयी. थारुओं के विषय में मैने अपने अध्य्यन काल में खूब पढा था . जितना उनकी संस्कृती को जाना था उतना ही इतिहास में उनको पढा था. इसलिये इस कविता पर रुकना, रुककर उसपर सोचना, एक बार कविता पर ठहरना जैसे मेरे लिये जरूरी हो गया था. ऐसा इसलिये भी था क्योंकि कई आदिवासी समाजों के साथ रह्कर उनके साथ –साथ काम करने का लम्बा अनुभव था. जहां तक मैने आदिवासी समाजों को पढा और जाना था उन सबकी संस्कृति के तत्व लग्भग एक तरह के थे. यह कविता मेरी नज़र के सामने आज गोंड और कोरकू, कोल और बैगा आदिवासियों के साथ काम करने के मेरे अनुभव के कोई 7 साल बाद आयी है. इसीलिये यह कविता पढते ही मैं जैसे उस पूरे समाज के एक एक दृश्य मेरी आंखों के सामने आ गये,
सच कहूँ तो एक लम्बे अरसे बाद एक ऐसी कविता पढी है जिसने मुझे कई कित्तों में छेड़ दिया. मजबूर किया कि मैं विचरूं अपने इतिहास में, इतिहास में होने वाले युद्ध में, मजबूर किया कि युद्ध काल में औरत की स्थितियों पर भी सोचती चलूँ. साथ ही आदि वासी समाज उसके दर्द और उसकी संस्कृति के तुकडे भी बटोरूँ और आज की राजनीति क़ा शिकार हुई एक पूरी जाति पर भी बात करूँ. क्यों?
कल रात से इस कविता को पढ़कर मैं एक अजीब मानसिक स्थिति में हूँ. एक अजीब उलझन है मन में. मैं कविता को कई बार पढ चुकी हूँ. लग रहा है कि इस कविता से जैसे कोई लाइन गुम हो गयी है. रात बहुत देर तक सोचती रही इस कविता के बारे में. क्यों ? इन सभी सवालों पर विचार करने के पहले सुशीला पुरी की कविता - ‘’थारू औरतें’’-

वे थारू औरतें हैं
जो आती हैं हर साल
रोपती हैं धान
गाती हैं गीत भरी आँखों से
और खेतिहर हो पाने की उनकी आस
बंजर धरती सी
नहीं उगा पाती
दूब का एक तिनका तक

उनकी नियति में धँसी होती हैं
कुछ खानाबदोश पगडंडियाँ
कुछ ज़मीनें
जो छीन ली गईं उनसे
उन्हें भूख की सौगात देकर

वहाँ पल पल छली जा रही
उनकी अस्मिता की चीखें होती हैं
साथ ही साथ
महुवाई गंध में लिपटे उनके पैरहन भी
जो रोज़ रोज़ नोचे जाते हैं
द्रोपदी के लाज की तरह

वे भटकती हैं इस गाँव से उस गाँव
अंजुरी भर जीवन
और अपने दुधमुहों को
पुरानी धोतियों से बांध
पीठ पर लादे

खुददी -चावलों से
वे बनाती हैं जांड (एक नशीला पेय )
और सुबह से रात तक
उसके बजबजाते खमीरी नशे में
उदास चिड़ियों सी खोजती हैं
अपना कुल -गोत्र
इस डाल से उस डाल

वे मन ही मन बुदबुदाती हैं
एक ऐसी प्रार्थना
जिसमें ईश्वर का कोई वजूद नही होता
वहाँ होती है
सियारों की हुक्का-हुआं
और ठिठुरती रातों के सन्नाटे
उनके सपनों की कराहों से
उड़ जाती है पास बहती नदी की नींद
और थरथराते हैं पहाड़...।
-------- सुशीला पुरी

इस कविता को पढ्ते हुए कई बार मेरी नज़र बस एक ही पक्ति पर जैसे अटक जा रही थी ‘वे थारू औरतें हैं’ - इस एक पंक्ति के माध्यम से मैं पूरे ‘थारु’ इतिहास से गुजर भी रही थी और इस कविता को समझने की कोशिश भी कर रही थी. दरअसल कोई भी पाठक जब इस कविता की पहली पंक्त पढेगा रुक कर पूछेगा जरूर कि ये ‘’थारु औरत’’ का मतलब क्या होता है? और जरूर ठहरेगा ‘थारु’ शब्द पर ? और अगर उसे ये कह के संतुष्ट् किया जयेगा कि यह एक आदिवासी जाति है तो फिर सवाल करेगा कि क्या उनके समाज में उनकी औरतों का काम जगह – जगह घूम कर धान रोपना है ? क्या थारू औरत इसी के लिये जानी जाती है? और अगर परम्परागत रूप से उंका यही काम है तो कविता में उन औरतों का इतना दर्द क्यों बिखरा पडा है ? आखिर इस दर्द का करण क्या हो सकता है? क़्या महज़ धान रोपने का अनवरत श्र्म ? उससे उपजी पीडा या फिर कुछ और? क्योंकि जैसे ही कविता का पहला खण्ड आता है सवाल उठने शुरु हो जाते हैं. आप देखें –
वे थारू औरतें हैं
जो आती हैं हर साल
रोपती हैं धान
गाती हैं गीत भरी आँखों से
और खेतिहर हो पाने की उनकी आस
बंजर धरती सी
नहीं उगा पाती
दूब का एक तिनका तक

यहां कुछ भी कहने से पहले जरूरी है पहले जाने कि ‘थारु’ शब्द का मतलब क्या है? तो जवाब जहै कि थारू एक ऐसी जाति है जिसका अपना एक इतिहास है. एक ऐसा इतिहास जो इस जाति की औरतों से ही आरम्भ होता है और बताने की कोशिश करता है कि युद्ध की स्थितियां स्त्री के सामने कैसी कैसी चुनौतियां रखती हैं. इसलिये सबसे पहले थारू जाति के छोटे किंतु रोचक इतिहास को जानते हैं.
थारु जाति भारत के कुछ हिस्सों और नेपाल के पूरे तराई के क्षेत्र में बसी एक जनजाति है किंतु इनका इतिहास अन्य आदिम जातियों की तरह बहुत पुराना नही है. इनकी लोक कथाओं के अनुसार इनकी उत्पत्ति 16 वी शताब्दी में मुगलों के आने के बाद हुई है. इस सम्बन्ध में बडी रोचक कथा भी है कि 16 वीं शतब्दी में जब मुगल भारत में आये तो किसी मुगल बाद्शाह ने राजस्थान के एक राजपूत घराने की कन्या से शादी करने का प्रस्ताव भेजा क्योंकि वह उस कन्या से विवाह का इक्शुक था यह बात राजपूतों को प्सन्द नही आयी और वो युध के लिये कूच कर गये किंतु अपनी औरतों और बच्चों को अपने परिवार के विश्वास पात्र सेवकों की सुरक्शा में घने जंगलों में छिपा दिया. जब महिलओं ने सुना कि सब पुरुष मारे गये और वो नही लौटेंगे ऐसी स्थिति में महिलओं ने अपनी सुरक्शा में रह रहे सेवकों से ही विवाह कर लिया और नेपाल के घने जंगलों में रहने लगीं.
यही वज़ह है कि थारु समाज में वैचरिक रूप से स्त्रियों का एक अलग स्थान है और आज की बदलती स्थितियों से दो चार हो रही थारु औरत बार बार पीछे लौटकर अपने अभिमान वाले युग को याद कर बहुत सारे प्रश्न लेकर हमारे सामने लाती है इसीलिये यह कविता अपना विशद अर्थ लेकर हमरे सामने आती है जो थारु औरतों के साथ साथ इतिहास से लेकर कई और विषयों की अनेक गांठ गिरह खोलने को मजबूर करती है. हलांकि सुशीला ‘की इस कविता से पहली बार गुजरने पर लगता है कि सुशीला ’थारु औरतों’’ की वर्तमान स्थिति का एक सीधा शब्द चित्र खींच रही हैं. वह बता रही है कि आज की थारु औरत क्या है ? उसका दुख क्या है ? उस दुख से कैसे निपटती हैं. किंतु इस कविता को उसके इस सीमित अर्थ तक रखना इस कविता के साथ अन्याय करना होगा क्योंकि इस् कविता के गर्भ में इस दौर और उससे जुडे विषयों के गूढ अर्थ भी हैं इसलिये यह एक दुखद उपन्यास की तरह जैसे एक पूरी गाथा है उसके पूरे इतिहास और भूगोल के साथ सम्झने की जरूरत है.

यही करण है कि इस्की पहली ही लाइन ‘’वे थारू औरतें हैं’’ रुक कर सोचने की स्थिति पैदा करती है.
देखा जाये तो यह कविता जहां एक तरफ थरुओं के पूरे इतिहास के साथ थारु औरत को जानने के लिये बेचैन करती है ठीक वैसे ही उसके आगे की लाइने ‘’जो आती हैं ............................ गाती हैं गीत भरी आंखों से’’ आदिवासी समाजों में काम को लेकर टूट्ते मानदण्डों और उन मानदण्डों को तोडने की विवशता का भी खाका खींचती है साथ उसके टूट्ने से उपजती परिस्थितियों से गुजरती औरतों के दर्शन भी कराती है. (दरअसल आदिवासी समाजों में दूसरे के घरों में औरतों का काम करना या दूसरे के लिये कोई काम करना अच्छी बात नहीं मानी जाती, वो अपनी स्वतंत्रता से सम्झौता नहीं करते, जहां तक थारु समाज का प्रश्न है उनके समाज में महिलाओं के सम्मान का एक कारण् ये भी था कि कथित रूप से उनकी महिलायें बडी जाति की थीं और कभी उनकी माल्किन हुआ करती थीं ) देखा जाये तो बात इतनी सी भी नहीं बल्कि यह कविता की यह पंतियां उस दौर के बीत जाने की कहानी भी कहती है जब वह मल्किन के अभिमान के साथ अपने खेतों में धान बोती थीं (जैसा कि नेपाल की तराई धान की खेती के लिये जानी जाती है और आदिवासी समाज ‘जूम की खेती’ किया करता था’) धान और पूरे जंगल को अपना घर समझता था आज छिन गया है. किंतु जैसे ही कविता अपने अगले हिस्से में पहुंचती है –
उनकी नियति में धँसी होती हैं
कुछ खानाबदोश पगडंडियाँ
कुछ ज़मीनें
जो छीन ली गईं उनसे
उन्हें भूख की सौगात देकर

वहाँ पल पल छली जा रही
उनकी अस्मिता की चीखें होती हैं
साथ ही साथ
महुवाई गंध में लिपटे उनके पैरहन भी
जो रोज़ रोज़ नोचे जाते हैं
द्रोपदी के लाज की तरह


एक कामगार औरत से अधिक एक पूरे पूरे आदिवासी समाज के दर्द, उस समाज की औरत का दर्द और उसकी सघन पीडा को जैसे आपके सामने बिछा देती है. ये पंतियां आदिवासी समजों और उसके बदलते चरित्र का भी एक रेखाचित्र आपके सामने रखती हैं और मजबूर करती हैं बहुत से आयामो पर एक साथ सोचने को. किंतु औरत की पीडा से अधिक कविता का यह पहला हिस्सा एक और चित्र बडी सघनता से हमारे सामने उभारता है वह है पर्यावरण का और घटते और कटते जंगलों का जो आदिवासी समाज की आज़िविका का सबसे बडा श्रोत था. आज दुनिया के लग्भग सभी आदिवासी समाज इस दिक्कत से गुजर रहे हैं और विकास के नाम पर होने वाला प्रकृति के इस् शोषण और इस शोष्ण के समर्थन में रोज रोज बन रहे कानून आदिवासियों को न केवल उनके घर बल्कि उनकी पूरी संस्कृति से दूर कर रहे हैं. इन सभी स्थितियों के साथ औरत की स्थिति और उसके दर्द से लिपटते हुए दूर कहीं जाकर बडे पैमाने पर आज की दुनिया की कई गिरह खोलती है हुई आगे बढती है. देखे -
वे भटकती हैं इस गाँव से उस गाँव
अंजुरी भर जीवन
और अपने दुधमुहों को
पुरानी धोतियों से बांध
पीठ पर लादे

खुददी -चावलों से
वे बनाती हैं जांड (एक नशीला पेय )
और सुबह से रात तक
उसके बजबजाते खमीरी नशे में
उदास चिड़ियों सी खोजती हैं
अपना कुल -गोत्र
इस डाल से उस डाल

उपर का पूरा हिस्सा इस बात का जैसे वक्तव्य है कि आज के दौर में जिन भी समजों को उनकी जडों से काटा जा रहा है उन समाजों की महिलायें इसी तरह भटकने के लिये मजबूर हैं. उदाहरण के रूप में आप नर्मदा बचाओ से लेकर वेदंता तक के तमाम उदाहरणों के चित्र आंखों में समेट सकते हैं. दूसरी बात जो कविता के मध्यम से सोचने के लिये मज्बूर करती है कि भारत और उसके पडोसी देशों के बीच भारत को किस तरह की भूमिका के निर्वहन की आवश्यकता है. आप देखें कैसे बांग्ला देश की सीमा पार से आये लोग भारत में भटक रहे हैं क्योंकि ही देश में जहां जनता को अर्थिक सुरक़्शा मुहैया नही है वो ना केवल खनबदोश हैं बल्कि असहाय भी और ऐसी स्थितियों के दुश्परिणामों का शिकार अक्सर महिलायें और बच्चे ही होते हैं. और इसिलिये थारु औरतें पीठ पर बच्चा ले काम की तलाश में इधर – उधर गांव – गांव भट्कने को मजबूर हैं. नीचे की पंक्तियां बरबस आकर्षित करती हैं इसलिये नहीं कि यहां कविता के ललित्य पर मुग्ध हुआ जाये बल्कि इसलिये कि यह हमारे पढे- लिखे लोगों की ऐसे आदिवासी समाजों की जीवन शैली, भाषा , संस्कृति से दूरी और अज्ञानता को प्रदर्शित करता है, यह यह भी दर्शाता है कि हम उनके बारे में कैसे सोचते हैं और कैसे उन्हें देखते हैं. यह बताता है कि हम उनके ईश्वर से परिचित नहीं हैं, उनकी पूजा शैली से भी अनभिज्ञ हैं. यही वज़ह है कि हम दूर खडे उनके जीवन के सबसे मत्वपूर्न पेय के लिये बज़बज़ाने से बेह्तर शब्द नहीं खोज पाते जबकि वो सारे पेय बज़बज़ाते हैं जो हमारे समाजों के लोग भी पीते हैं.

वे मन ही मन बुदबुदाती हैं
एक ऐसी प्रार्थना
जिसमें ईश्वर का कोई वजूद नही होता
वहाँ होती है
सियारों की हुक्का-हुआं
और ठिठुरती रातों के सन्नाटे
उनके सपनों की कराहों से
उड़ जाती है पास बहती नदी की नींद
और थरथराते हैं पहाड़...।

दरअसल् आदिवासी समाजों में ईश्वर की वैसी कल्पन नहीं है जैसा हमारे समाजों में है. अधिकतर आदिवासियों के देवता कुछ इस तरह से हमारे सामने आते हैं जिनसे हमरा औपचारिक परिचय नहीं होता और ना ही हम उनकी प्रर्थना के तरीके से हमारा कोई परिचय होता है इसलिये उनकी प्रार्थना जो वो बुदबुदाती हैं हमारे पढ़े लिखे समाज के लिये बुदबुदाने जैसा होता है. अब बात करते हैं कविता के सबसे महत्वपूर्न हिस्से की जो औरत के इतने सारे दर्द का चरम है -

वहाँ पल पल छली जा रही
उनकी अस्मिता की चीखें होती हैं
साथ ही साथ
महुवाई गंध में लिपटे उनके पैरहन भी
जो रोज़ रोज़ नोचे जाते हैं
द्रोपदी के लाज की तरह

यह किसी भी समाज से अधिक इन परिस्थितियों से गुजर रही औरत का सबसे बडा दंश है. चाहे वो थारु औरत हो या छ्तीस गढ से आकर बेल्दारी का काम करने वाली बिलासपुरी औरत या फिर मनिपुर से आकर दिल्ली में पढ रही लड्कियां हो अपने कुल गोत्र से दूर जाने पर एक तरह से ये सज़ा औरत के लिये मुकर्र्र है जिसे आप हम सबको किसि न किसि रूप से गुजरना ही होता है. जहां तक थारु औरतों का सम्बन्ध है उसकी अस्मिता की चीख इसीलिये-

‘’ठिठुरती रातों के सन्नाटे
उनके सपनों की कराहों से
उड़ जाती है पास बहती नदी की नींद
और थरथराते हैं पहाड़...।‘’

कुल मिलाकर देखा जाये तो यह कविता आज के विकास, उससे जुडे प्रश्न, उस विकास की भेंट चढ रहे पर्यावरण, मनुष्य और खास कर औरतों और बच्चों पर प्रभाव को बहुत गम्भीरता से सामने लाती है. यह बताती है कि कैसे विकास के नाम पर भेंट चढ रही भूमि से एक पूरी संस्क्रिती अपने कुल गोत्र के साथ न केवल गायब हो रही है बल्कि अपनी अस्मिता के साथ रोज़ रोज़ हो रहे खिलवाड को सह रही है. और हम रोज़ विकास के नये प्रतिमान बना रहे हैं. नदियों, पहडों और तमाम जीव जंतुओं के साथ आदमी के वज़ूद के साथ खिलवाड कर रहे हैं.

सच कह जाये तो यह कविता सिर्फ थारु औरत की कराह के रूप में नहीं बल्कि दुनिया भर के आदिवासी समाजों के साथ हो रही क्रूरता , अत्यचार और उंके जीवन में आये ग्रण के लिये पढी जानी चहिये. इतना ही नही बल्कि इस कविता को दो देशों के राजनयिक् सम्बन्ध के बीच आदिवासी समाजों की समस्या को रखते हुए भी पढा जाना चाहिये. और यह सोचने के लिये पढा जाना चहिये कि हमारे विकास के क्या मानद्ण्ड् होने चाहिये.
मेरे जैसी पाठक के लिये इस पूरी कविता में सिर्फ एक बात की मांग करती है वो है थारू इतिहास का जिक्र का होना. हलांकि कविता उस जिक्र के बिना भी अपनी बात कहने में सक्षम है किंतु उसका थोडा सा जिक्र इस कविता को सिर्फ थारु समाज ही नही बल्कि अन्य समाजों पर कविता लिखने और पढ्ने वालों के भीतर एक रुचि जगाता ना केवल आदिवासी समाज और उसकी समस्या को समझने बल्कि अपने समाज से जोड के देखने और उनका भी इतिहास जानने को. फिर भी यह कविता पूरी तरह एक सफल कविता है
................ डा. अलका सिंह

Tuesday, November 15, 2011

एक दरवाजा खुलना जरूरी है बाप बेटी के बीच

( मित्रों, कुछ लिखने, बहुत से सवाल करने और उसका उत्तर खोजने से पहले अपने विषय में भी मैं पाठकों को बताना मेरा नैतिक दायित्व है और मै इसे जरूरी समझती हूँ. पेशे से मैं एक समाज विज्ञानी हूँ और आधुनिक इतिहास की छात्रा रही हूँ. लोग इस तरह कह सकते हैं के सहित्य और मेरा दूर – दूर तक कोई औपचारिक नाता नहीं है किंतु मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जहां सहित्य ही सहित्य था. अपने बचपन से जाने – माने कहानीकारों, कवियों और शायरों का ऐसा जमवडा घर में देखा कि कभी जाना ही नही कि साहित्य अलग से भी पढने की चीज़ होती है. इसलिये अनौपचारिक रूप से ही सही मैँ सहित्य की ऐसी छात्र रही कि जैसे सहित्य मेरी रगों में बैठ गया सो बैठ गया और उसी समझ और जीवन के अपने अनुभवों (व्यक्तिगत और सामाजिक) और अनुभूति के बल पर ही कलम उठाने की हिमाकत गाहे – बगाहे करती रहती हूं और आज भी कर रही हूँ.)
आज जो कुछ मैं लिखने जा रही हूँ उसका सन्दर्भ मेरी कविता ’पिता पुत्री के बीच एक रिश्ता है’’ पर आयी एक टिप्प्णी से है. यह टिप्प्णी मुरादाबाद के हिन्दू कालेज के एसोसियेट प्रोफेसर श्री धीरेन्द्र पी सिंह जी इस कविता पर हुई चर्चा के दौरान दाली थी. आप पाठ्क मेरी यह कविता मेरे ब्लाग पर देख सकते हैं आप सभी से अनुरोध है कि इस टिप्प्णी को पढने के बाद ही मेरे आलेख पर ध्यान दें. नीचे टिप्पणी है के -

‘’पिता के लिए उसकी संतान (चाहे वह बेटा हो या बेटी) उसकी प्रतिछवि होती है. पालन-पोषण के बीच ख़ुशी और नैराश्य के ऐसे अनेक क्षण आते हैं जब आपसी संवाद में कमी आ सकती है. उसे सुधारा जाता है और अनूठे रिश्ते की डोर दिनों-दिन मजबूत होती जाती है. इसमें कोई जटिल अनुबंध नहीं है. सब कुछ बहुत सरल और आत्मीय होता है. यहाँ कोई सवाल और कोई जवाब अनसुलझा और अबूझ नहीं होता. यह सम्बन्ध नदी या सागर की गहराई पा सकता है, पाता भी है किन्तु इसे पार करने का कोई प्रश्न ही नहीं ! इसे तो साथ साथ जीना होता है......उस वक़्त भी जबकि बेटी किसी विवाह उपरांत किसी और घर चली जाती है. बदलते वक़्त के बदलते पिता अथवा बदलती बेटी जैसे पिता और बेटी के बीच किसी अर्थहीन और लाचार सम्बन्ध की मै कल्पना नहीं कर पाता.
क्या कहूँ मै ? यह कविता सारे विषय का एक ऐसा चित्रण करती दिखती है जिसमे किसी दूषित सम्बन्ध की बू आती है ! एक तरफ गहन आत्मीय तो दूसरी ओर अत्यंत प्रदूषित भी’’ !
............ श्री धीरेन्द्र पी सिंह
एसोसियेट प्रोफेसर, हिन्दू कालेज
मुरादाबाद, उत्तरप्रदेश


मैने पिता पर कई कवितायें लिखी हैं. मेरी कविताओं पर आम सहमति होगी ऐसा मैं कभी नही सोचती किंतु जिन लोगों तक मेरी बात पहुँचती है वो प्रतिक्रिया देते हैं कभी विरोध में कभी पूरे दिल से समर्थन में. पिता पर मेरी एक लम्बी कविता को जब मैने ‘कवियों की पृथ्वी’ पर पोस्ट की तो पहला ही कोमेंट युवा कवि नीलकमल का था कि ‘’ पिता ऐसा निर्मम नहीं हो सकता’’. क्यों? यह सवाल मेरे मन में बार - बार उठा किंतु तब मैनें यह पूछना मुनासिब नहीं समझा. उसका एक कारण था. सहित्य की दुनिया में आज तक जितनी भी रचनायें ‘पिता’ पर प्रकाश में आयी हैं उसमें पिता उसकी भूमिका, संतानों से उसके सम्बन्ध और उस भूमिका पर संतानो की प्रतिक्रिया या विचार पर बहुत गिनिचुनी ही कवितायें आयी हैं. ऐसा क्यों है ? यह अपने आप में एक अलग विशद और गहरा विषय है बात करने के लिये किंतु ’ पिता ऐसा निर्मम नहीं हो सकता’’ यह मेरे लिये सोचने वाला मुद्दा था क्योंकि हर रोज मै पिता की निर्ममता के किस्से अपने आस पास से लेकर अखबारों के पन्ने तक में टंका पाती हूँ इसलिये मुझे बार – बार लगता था कि इस पर बात तो करनी ही होगी. क्योंकि हर पल पिता – पुत्री के सम्बन्ध के बीच समाज के भीतर निर्ममता का भी एक रिश्ता साफ साफ मुझे दिखाई पडता है और मुझे लगता है कि शायद सबको यह दिखता भी है किंतु सब आंख मूद् कर उसे नज़रन्दाज करते हैं. या फिर ऐसा होता रहे वो यह चाहते हैं. मुझे दुख है कि यह रिश्ता बहुत कम लोगों को दीखता है और यह दुख तब और बडा हो जाता है जब अपने काल खण्ड का परिचय देने वाले लेखक कवियों की जमात की कलम भी कभी कुछ भी बोलने से और कभी साफ साफ बोलने से या तो बचती है या परहेज़ करती है.

बहर् हाल, मेरी कविता पर फेसबुक पर यह अकेली टिप्पणी थी जिसने मुझे अन्दर तक झिझोड दिया कि इस सम्बन्ध पर कुछ लिखा जाये. मुझे अचरज बिल्कुल भी नही होता ऐसी कोई टिप्पणी ,आने पर् किंतु अश्चर्य हुआ वो इसलिये क्योंकि यह् टिप्पणी एक कालेज के प्रोफेसर ने लिखी थी और वो भी उस क्षेत्र में रहने वाले जहाँ पिता – पुत्री सम्बन्धों की दस्तान पूरे देश को हिला देती है.जहाँ खाप पंचायतें होती हैं जो अक्सर हमरे देश के अखबारों में सुर्खियाँ बनाती हैं, जहां संतानों में अपने – अपने पिताओं पर इतना क्रोध होता है कि वो जान लेने तक को उतारू हो जाते हैं. अभी कुछ ही साल पहले एक लड्की ने अपने माता पिता दोनो की हत्या कर दी थी. और ऐसे में एक एसोसियेट प्रोफेसर की यह टिप्पणी मुझे मजबूर करती है कि मैं अपनी कविता पर कई बार सोचू. मजबूर् करती है कि पुत्री होने के अर्थ को भी समझूं, और इन सबके साथ - साथ पिता होने के अर्थ को भी न केवल अकेले समझूँ बल्कि साथ साथ साझा करूँ. यह समझना इसलिये भी जरूरी है कि अगर समाज के सभी दोष, नकारत्मक तत्व और सारे विकार पित्रिसत्तात्मक व्यवस्था के नाम है तो आखिर पिता उस नकरात्मक प्रभाव से मुक्त कैसे हो सकता है.? जबकि वह इसी समाज का जीव है. यह इसलिये भी जरूरी है क्योंकि पिता एक व्यक्ति भी है तो वह व्यक्तिगत भवनाओं उसमें लिपटे भावों और अभिव्यक्तियों से मुक्त कैसे हो सकता है? वह हमारा जन्मदाता है उस कारण उसके हमारे बीच एक सश्क्त भवनात्मक ताना भी होता है इसलिये पिता के चरित्र को समझना बेहद जरूरी है.





पिता कौन है ? पिता और परिवार का सम्बन्ध क्या है? पिता और परम्परा का सम्बन्ध क्या है और कैसे है? समाज और स्त्री का रिश्ता क्या है? समाज में पुत्री का चरित्र कैसे परिभषित है? और अंत में कि समाज पिता पुत्री के सम्बन्ध के बीच भी क्या कहीं है ? अगर है तो उसकी भूमिका क्या है ? ये कुछ मूल सवाल हैं जो उठाये जाने चहिये. पर जिन लोगों ने आज तक इन सवालों को कभी भी उठाया है उसे एक खास कोने में खडा कर दिया गया है और उंपर ठप्पा लग दिया गया है महिलावादी होने का. ऐसे सवाल जब पुरुषों ने भी उठाये वो भी महिला वादी ही कहलाये. क्या ये सवाल एक बेह्तर समाज बनाने के लिये नही उठाये जाने चहिये? क़्या सामाज में आज जो पिता की भूमिका है वह पूरे तौर पर एक आदर्श पिता की भूमिका है ? ( मैं ये सवाल बिना पुत्र – पुत्री का भेद किये पिता की भूमिका के सन्दर्भ में पूछ रही हूँ. और चाहती हूँ कि पाठक बिना व्यक्तिगत हुए इन सवालोन से गुजरें और उनपर् बात करें) मुझे लगता है पिता की भूमिका पर थोडा ठहर कर विचार करने की आवश्यकता है.

दरअसल एक व्यक्ति जब पिता बनता है तो वह दो अवस्थाओं से गुजरता है
1. एक व्यक्ति की
2. एक चरित्र की
व्यक्ति के रूप में वह अपनी संतान से ना केवल जुडा होता है बल्कि उसके अन्दर भव्नाओं का एक पुंज होता है और वो उससे ओत – प्रोत होता है किंतु जैसे ही वह चरित्र में प्रवेश करता है एक पूरी की पूरी व्यवस्था जीता है. इसी स्वरूप में वह परिवार का मुखिया होता है, इसी चरित्र के साथ वह परिवार में लोगों का व्यव्हार निर्धारित् करता है, वह समाज का सम्मानित सदस्य होता है.और सम्मान पाता है. यह सारा कार्य व्यापार तब तक ही चलता है जब तक घर की महिलायें खास्कर पुत्रियां घर ने जो नियम निर्धारित किये हैं उसके हिसाब से चलती हैं. घर के मुखिया को यह समाज ने सम्झया होता है कि यदि घर की स्त्री ने समाज के नियम से अलग चलने की कोशिश की वैसे ही सारे नियम कायदे ध्वस्त हो सकते हैं. यह डर पिता के चरित्र में कुछ इस कदर बैठा होता है कि वह अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये पहले तो घर के अन्दर ही वो सब करने के लिये तैयार रहता है जो कभी कभी अम्आंवीय भी होता है और गैरकानूनी भी. देखा जाये तो व्यक्ति समाज और उसके विचार में इतना गुथ जाता है कि उसे अपने किये में कभी कुछ गलत नहीं लगता और ना ही दिखता है. ऐसा इस्लिये भी है कि वह कई सारे भ्रम के बीच बान्ध दिया गया होता है जिसे वह पूरा तोद पाने में असमर्थ होता है. अक्सर घर की महिलयें पुरुश के इस नियम , भ्रम और बहुत सी मज्बूरियोन का शिकार होती हैं. इसीलिये मर्क्स कहता है “ औरत अंतिम उपनिवेश है.’’ औरत के इस उपनिवेश बनने का सबसे बडा करण है दुनिया भर की औरतों का अर्थिक रूप से पिता, पति और पुत्र पर अश्रित होना. आज भी दुनिया की ज्यादातर महिलायें इसी अर्थिक स्थिति में जीती हैं किंतु पिता के साथ पुत्री की एक खास अवस्था होती है. और धीरेन्द्र पी सिंह और बहुत से पिताओं का भ्रम यहीं से शुरु होता है. क्योंकि वो पिता के व्यक्ति रूप और चरित्र रूप को सीधे सीधे विभाजित नहीं कर पाते. यहां मैं कुछ उदाहरण से बात आगे बढाना चाहूंगी.
1. अभी 2 -3 दिन पहले मैनें स्वप्निल जैन की वाल पर एक कविता देखी थी-
‘’उम्रभर लिखता रहा वह
प्रेम-पत्र व प्रेम-कविताएँ,

बेटी ने क़लम उठाई तो
घर में बवाल हो गया ‘’



2. ‘’‘पापा’ और मैं. एक अज़ीब रिश्ता है हमारा. सच कहूँ तो दुनिया में मै माँ के बाद किसी से सबसे अधिक प्यार करती हूँ तो वो हैं पापा. पर हमारे रिश्ते के जैसे दो हिस्से हैं एक दिल के बहुत करीब तो दूसरा अघोषित युद्ध सा दिल से उतना ही दूर. सच कहूँ तो विचारों से हम बहुत दूर हैं
माँ के गुजरने के बाद मेरा और उनका रिश्ता और भी करीब हो गया. कोई ऐसा दिन नहीं होता जब हम आपस में घंटों बैठ अपना दुख दर्द ना बांटा हो. पापा ने अपने दुख, अपना अकेलापन, अपनी जिम्मेदरियों के बोझ का सारा दर्द अगर किसी से सबसे अधिक बांटा है तो वो मुझसे. उनके मजबूत कन्धों पर् मुझे आज भी जब वो 70 की उम्र पार कर चुके हैं, बहुत भरोसा है. वो जब भी बीमार पडते हैं मै 500 किलोमीटर दूर से भी उन तक एक दिन के भीतर पहुंच जाती हूँ. अपना बचपन याद करती हूँ तो बहुत कुछ याद आ जाता है. कितना कुछ गुजर जाता है आंख के साम्ने से. मुझे आज भी याद है कि अपने कन्धों पर बैठा कर दुनिया उन्होने ने ही दिखायी है. जीने के कई हर्फ सिखाये हैं. उसके अलावा भी बहुत कुछ है जहाँ मैं नि:शब्द हूं. कलम भी चुप ही रहना चहती है. किंतु दिल से इतने करीब होते हुए भी हम विचारों से बहुत दूर हैं. सामजिक मन्यतओं को लेकर मेरा और उनका 36 का आँकडा है. पहली कक्शा से लेकर उच्च शिक्शा पाने तक जैसे जैसे मैने चौखटे और दरवाज़े तोडने शुरु किये हमारे बीच खाई बढती चली गयी जो कई स्तरों पर आज भी है. उनको सालों पता ही नही चला कि मैं लिखती भी हूँ. अखबारों में छपने के बाद भी उन्होनें मुझे शायद् ही कभी पढा होगा.सबसे मजे की बात है कि मुझे भाषा की तमीज़, लिखने की तमीज़ और मंच पर चढ्कर बोलने की तमीज़ उन्होने ने ही सिखायी.’’
3. पिता कहता है ‘’बाबुल की दुआयें लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले.’’
4. वही पिता बेटी को नसीहत देता है – मैं पिता हूँ तुम्हरा कभी तुम्हारे लिये गलत नही सोचुंगा, यह लडकियों को शोभा नहीं देता,
उपर दिये गये 4 उदाहरण में पहला उदाहरण दो ऐसी तठ्स्थ आंखों का है जो स्थितियों को सही सही देख पा रहा है और जिसमें कहने का साहस है कि बेटी पिता के लिये क्या है और समाज बेटी और उसमें रिश्ता क्या है? वह यह भी कह पा रहा है कि पुत्र और पुत्री में भेद क्या है और यह भी कि पिता बनने की अवस्था क्य है और परिवार में बेटी की आज़ादी का आकाश क्या है.

दूसरा उदाहरण कुछ कहने की जगह नही देता वहां सब साफ है.
तीसरा उदाहरण पिता के चरित्र, समाज और् पुत्री तीनो की कहनी कहता है

और चौथा भी साफ है.


तो कितना जटिल है ना पिता का रूप? यह रूप मैनें अपने साथ की लड्कियों अपने बाद की पीढी की लड्कियों और आज भी जब मैं लड्कियों के बीच काम करती हूँ उनके पिताओं को कभी कभी शत प्रतिशत और कभी कभी 90 प्रतिशत तक ठीक उसी रूप में पाती हूँ जैसे कि मेरे पिता का चरित्र था उनकी कहानी थी मेरे और मेरे पिता के रिश्ते की कहानी. जैसी ही दिखती है. कभी कभी मैं चौक कर खडी हो जाती हूँ और अचानक मुह से निकल जाता है कि मेरे पिता ऐसे नही थे. और मैं उनकी खूबियाँ गिनने लगती हूँ. इन खूबियों के बीच उनका एक चेहरा और उभरता है जो उस पिता का नही होता या फिर उस पिता के ठीक विप्रीत होता है जो अभी – अभी भाव्नाओं में गोते लगा रहा था. ऐसा नही है कि पुत्र के साथ पिता बहुत सहज़ है किंतु पुत्री के साथ जिन जतिलताओं से गुजरता है उसके कारण थोडे अलग हैं.

भारतीय समाज में पुत्री की स्थिति देखें - तो यह आज भी ग्रमीण समज में बची – खुची परम्पराओं में से एक है कि पिता बेटी की कमाई से अपने को ऐसे अलग रखाता है जैसे उसकी संतान की नही किसी अछूत की कमाई हो. वह बेटी के ससुराल का पानी भी नहीं पीता क्योंकि वह उसे दान कर चुका है. वह ससुराल में उसपर अन्याय होने पर भी चुप रहता है क्योंकि वह बेटी का पिता है. वह चुप चाप अपनी मेहनत की कमाई दामाद के परिवार को देने के लिये विवश है क्योंकि वह बेटी का पिता है. यह सिल सिला यहीन खत्म नही होता.
वह बेटी की इच्छा के खिलाफ से आगे पदहने से रोकता है क्योंकि वह बेटी का पिता है. वह उसे उसके मन का नहीं करने देता क्योंकि वह बेटी का पिता है. वह उसे चुप चाप उस व्यक्ति से वइवाह करने के लिये विवश करता है क्योंकि यह ही होना सही है. क्या एक पिता इन सारी परिस्थितियों से नही गुजरता? या वह कुछ कम कुछ ज्यदा ऐसा नही करता? मुझे लगता है कि बहुत कम पिता होंगे जो 100 प्रतिशत इससे अलग होगे.

किंतु वह पिता आपका जन्म्दाता है इसलिये वह कई बार मनवीय सम्वेदनओं के बशीभूत यह सब नही करना चहता. कई पिता अपने चरित्र के ऐसे कई बन्धों को तोड्कर बेटी को एक खिड्की जरूर देते हैं और बेटियां उस जालिदार खिड्की से दुनिया देख बहुत खुश हो पिता पर वारी जाती हैं और पिता के पछ में खडी हो कई सकारत्मक दलील दे रही होती हैं

किंतु अब पुत्री का चरित्र देखें –

एक बेटी अपने पिता को बहुत प्यार करती है क्योंकि वह जाया है, वह पिता का बहुत खयाल रखती है क्योंकि वह जाया है, वह ऐसा बहुत कुछ करती है जो पिता के दिल को छू जाता है और वह संतानों में सबसे प्रिय और विश्वसनीय हो जाती है. वह अपने पिता के दुख से दुखी होती है, पिता की खुशी में सुख खोजती है, पिता का हर कहना मानती है किंतु वही बेटी बाहर की दुनिया में कोई फैसला पिता की इच्छा के अनुसार ही पढ्ती है, पहनती है, बाहर जाती है, कोई फैसला पिता से पूछे लेने से डरती है, उसकी मुहर के बिना एक पत्ता भी नही ख्ड्का पाती.

पिता की इच्छा के खिलाफ प्रेम करने पर खुद् पिता और भाईयों के हाथों कत्ल कर दी जाती है. क्या यह पुत्री के प्रति पिता का प्रेम है? एक बहुत बडा जवाब है नहीं. पुत्री के साथ यह क्रूरता पिता का चरित्र करता है, व्यक्ति और जन्म दाता नहीं. इसीलिये --

पिता और पुत्री का सम्बन्ध
वक्त की रेत पर
भावनाओं में उलझी
इक टेढ़ी मेढ़ी किताब है
इक जटिल अनुबंध
जिसपर अबोध दस्तखत के साथ
पढ़ते - पढ़ते
जवान हो जाती हैं बेटियां
और साफ और सीधी बात के लिये एक नये दरवाजे की जरूरत है जो दोनो को दोनो से सही मायने में मिलाये तब जहिर है तब बेटियों द्वारा लिखी जाने वाली कवितायें कुछ और शक्ल अख्तियार करेंगी.



..................................................................डा. अलका सिंह

Sunday, November 13, 2011

अरुण देव की कविता ‘‘पत्नी के लिए'' पर एक हिमाकत ----

सच कहूँ तो इस कविता क़ा चुनाव मैंने अपने किसी अन्य आलेख के लिए किया था जिसमें कई कवियों की रचनाएँ शामिल थीं किन्तु जब भी इस कविता को उस आलेख के मद्देनज़र उठाती और उसमे शुमार करने की सोचती तो एकबारगी ठहर जाती और लगता के ये कविता किसी और बात की मांग करती है और विचार आता कि इस कविता पर अकेले ही विस्तार से लिखना चाहिए. इसका एक कारण भी था. मैंने अपने पाठकीय जीवन में जितनी भी रचनाएँ '' पत्नी के लिए'' पढी हैं वह आपसी संबंधों के चित्रण, विस्तार और अपनी बेबाक स्वीकृति से अलग ज्यादातर ' घरारी' वाले अंदाज की, या फिर भावों से ओत प्रोत सुन्दर शब्दों के मायाजाल में लिपटी, किसी क्षण पर केन्द्रित रचनाएँ पढी थीं. या फिर विरह के क्षण की पीडा का चित्रण ही जाना था. मेरी आँखों के सामने से यह पहली रचना गुजर रही थी जो कई सन्दर्भ एक साथ लेकर खडी थी. अरुण देव की सीधी साधी दिखने वाली ये कविता अपने अर्थों में उतनी सीधी नहीं थी जितनी की दिखती है. इसलिये यह मेरे लिये एक बहुमुल्य रचना थी.

अरुण देव से मेरा परिचय फेस बुक पर ही हुआ हालाँकि हमारे बीच संवाद शायद ही कभी हुआ हो और यह बात मेरे लिए दुःख व्यक्त करने वाली ही है किन्तु अरुण देव की रचनाओं से मेरा परिचय बहुत पुराना है. जहाँ तक अरुण देव की इस रचना क़ा प्रश्न है तो ये रचना मैंने तब पढी जब एक् कविता पर फेस बुक पर चर्चा बहुत गर्म थी. और वह कविता इसी कविता ‘‘पत्नी के लिए'' से प्रेरित थी. उसी दौरान मांगने पर अरुण ने मुझे लिंक भेजा था ताकि मैं इस रचना को पढ़ सकूं . मेरी उत्सुकता के कई कारण थे ;

१. सबसे पहली जिज्ञासा थी के आखिर उस कविता में क्या ऐसा है जो किसी को एक कविता लिखने को प्रेरित करता है ?
२. ''पत्नी के लिए'' में आखिर अरुण किन संवेदनाओं से गुजरे हैं? क्या संवेदनाएं विशाद के क्षणों की हैं ?
३. स्त्री विषयक, विशेष कर पत्नी विषयक इस रचना में अरुण देव के प्रयोग क्या हैं ? क्या यह महज़ व्यक्तिगत भाव तक सीमित है या फिर बड़े सरोकार से जुडी है ?
४. मैं आज के समय में पति-पत्नि के बीच सम्बन्धों में हो रहे बदलाव के चिन्ह की तलाश भी कर रही थी.

यही वज़हें थी कि मैंने इस कविता की एक - एक लाइन और एक - एक प्रयोग को बहुत बारीकी से पढ़ना आरम्भ किया और आज इस कविता पर लिखने की सोच बैठी.

अरुण की कविता पहली बार पढ्ने पर यह दो व्यक्तियों के अन्तरंग क्षणों की बहुत अन्तरंग अनुभूति सी लगती है किन्तु जैसे ही आप इस कविता को बडे स्तर पर रखकर सामजिक सरोकर से जोड्ते हैं कविता अपने व्यापक अर्थ लेकर आपके सामने खडी हो जाती है. दरअसल अरुण जब इसे कविता के माध्यम से एक वक्तव्य के रूप में सबके सामने रखते हैं और लोंगों को समर्पित करते हैं तो यह कविता, इसके मायने और सरोकार सभी बहुत व्यापक हो ही जाते हैं क्योंकि यही कविता के मायने हैं. यही वज़ह है कि इस कविता पर बात करने से पहले यह स्पष्ट कर दूं कि २०११ में लिखी इस कविता को मैं इसी सदी की कविता के रूप मे ही समझने की कोशिश कर रही हूँ और मुझे लगता है यही इस कविता के साथ करना भी चाहिये.. ऐसा इसलिये भी क्योंकि २० वीं सदी को स्त्री के सम्बन्ध में बदलावों की सदी के रूप में जाना गया है. परिवारों की शक्ल, पति- पत्नि के एक दूसरे को समझने के तरीके और बहुत हद तक भावों को अभिव्यक्त करने के तरीके भी बदले हैं. २० वें सदी के उत्तरार्ध और २१ वीं सदी क़ा ये आरंभ इस दृष्टी से बेहद महत्च्वा पूर्ण काल है. इस दौर में कई मायनों में स्त्री पुरुष संबंधों विशेषकर पति पत्नी संबंधों को नए अर्थों में परिभाषित करने के प्रयास भी हुए हैं और उसके के मानक भी बदले हैं. इक बात यहाँ स्पष्ट रूप से समझने की आवश्यकता है यही दौर है जब प्रभावी रूप से अंतर्राष्ट्रीय राजनितिक मंचों से औरतों की स्थिति पर गहन चरचा हुई है और यू.एन. के हस्तक्शेप ने दुनिया के सभी देशों को इस दिशा में काम करने को मजबूर किया है. यह एक तर्क हो सकता है कि आखिर सरकारें दो व्यक्तियों के बीच के सम्बन्ध को कैसे परिभाषित कर सकती हैं? यह सही भी है किंतु जब एक सोच सीधी रेखा में चलकर एक देश एक क्शेत्र और में जीने वाले लोगों को प्रभावित करे तो उस भाव को रेखांकित करने की अवश्यकता पड्ती ही है.


ऐसे में अरुण की कविता में मैं उस गंध को खोजने की कोशिश करना चाहती हूँ और करुँगी के क्या यह कविता भारत में २१ वी सदी के पति पत्नी की तस्वीर पेश करती है? या फिर यह हमारे घरों के इक आम तस्वीर को ही सबके सामने रखने क़ा प्रयास है? या फिर भारत में पति अब भी उसी मुकाम पर खडा है जहां से औरतों की पीडा का प्रारम्भ होता है और वह जीवन में कई सम्झौते करती है?और भी बहुत कुछ. इन सभी बिन्दुओं को समझने के लिए जरूरी है अरुण की पूरी कविता से इक साक्षात्कार हो. प्रस्तुत है अरुण की पूरी कविता -


वह आंच नहीं हमारे बीच
जो झुलसा देती है
वह आवेग भी नही जो कुछ और नहीं देखता
तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा
तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप

तुम्हारा घर
प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारिओं से बना है
कभी आंटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तहान का रिपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो

तुम्हारे आंचल से कच्चे दूध की गंध आती है
तुम्हारे भरे स्तनों पर तुम्हारे शिशु के गुलाबी होंठ हैं
अगाध तृप्ति से भर गया है उसका चेहरा
मुझे देखता पाकर आंचल से उसे ढँक लेती हो
और कहती हो नज़र लग जाएगी
शायद तुमने पहचान लिया है मेरी ईर्ष्या को

बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज
तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम
कई बार तुम हो जाती हो अदृश्य जब
भटकता हूँ किसी और स्त्री की कामना में
हिस्र पशुओं से भरे वन में

लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती है वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ

तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा

................................... अरुण देव



अब बात कविता पर -
सबसे पहले मैं अरुण को इस बात के लिये धन्यवाद दूंगी कि उन्होनें इस भाव की कविता लिखी और उसे सबके सामने रखा. यह धन्यवाद इसलिये भी जरूरी है इस कविता के माध्यम से पुरुष मन के भाव और स्वीकरोक्तियों से एक ऐसा शब्द चित्र खींचा गया है जो परिवार में महिलओं की स्थिति और उसकी पीडा के करणों को अनयास ही सामने लाता है. कई अवसरों पर औरतों की चुप्पी, कई बातों को नज़रन्दाज़ करना, घर को एक जिम्मेदरी के साथ निभाना, बहुत कुछ जंते हुए उसे अन्देखा करना, कई बातों को हंस कर टाल देना सब महिलाओं के खाते की चीज़ है जो कविता पूरे स्वरूप में बयान करती है. यह कविता यह भी बयान करती चलती है कि पुरुष कैसे पुरुष एक तरफ खडा स्त्री और उसके प्यार की परिभाषा गढ्ता है जहां से वह बहुत चतुराई से अपने को अलग करता चलता है.

यहां मैं इमानदारी से बताती चलूँ कि इस कविता को मैंने ५० से अधिक बार पढ़ा होगा और जितनी बार मैं पढ़ती मेरे सामने मेरे १७ सालों के काम के दौरान मिली हर उस औरत क़ा चेहरा सामने आता जाता जो अपनी परेशानिया लेकर मेरे पास आती रही थीं. अपने पतियों के व्यव्हार उनके सोचने के अन्दाज़ और काम के बोझ का जो वक्तव्य उंक्के मुह से सुना था वो अनयास ही इसे पढ्कर जैसे कानों में गुंजने लगे. इस तरह कविता से गुजरते हुए एकबारगी महत्वपूर्ण रूप से यह सच् मेरे सामने उभरकर आ रहा था के उन सभी महिलाओं मे से ८० प्रतिशत महिलाओं की शिकायतें क्यों थी? इसके कारण क्या थे ? . इसीलिये इस कविता को मैं बडे सामाजिक सन्दर्भ की कविता मानती हूँ. अब बात अरुण की कविता की-

सामन्य रूप से यह कविता एक खुशहाल मध्यम्वर्गीय परिवार के पति पत्नि का चित्रन करती है जहां स्त्री अपने परम्परागत चरित्र के साथ है. इसीलिये अरुण देव की यह कविता स्त्री की स्थितियों के सन्दर्भ को दर्शाते हुए एक व्यापक अर्थ लिये हुए है. पूरी कविता से गुजरते हुए ऐसा लगता है जैसे एक परिवार में किसी पति ने अपनी पत्नि को यह बता दिया है कि -

वह आंच नहीं हमारे बीच
जो झुलसा देती है
वह आवेग भी नही जो कुछ और नहीं देखता

इस कविता की इन तीन लाइनों को सामन्य से अधिक द्रिश्ती से देखने की आव्श्यकता है. सरसरी तौर पर यह एक् सकारत्मक भाव उत्पन्न करती हुई सी लगती है. किंतु इसे अगर व्यपक स्तर पर स्त्री जीवन के सरोकारों से जोड कर देखा जाते तो यह् स्थिति समान्य नहीं है बल्कि इसके उलट यह स्त्री जीवन की जतिलताओं के अरम्भ के दर्शन हैं. और यही वज़ह है कि यह बडे पैमाने पर दिखने वाले स्त्री जीवन के दंश के अरम्भ को भी परिभाषित करते हुए आरम्भ होती है. महिलाओं पर किये गये कई सर्वे इस बात का खुलास करते हैं कि . गृहस्त जीवन के एक दौर तक आते - आते 80 प्रतिशत से भी अधिक विवाहित महिलाओं को अपने वैवाहिक जीवन के किसी ना किसी मोड पर किसी ना किसी मोड रूप में यह शब्द सुनना ही पडता है कि ‘’अब वह आंच और आवेग तुममें नही बचा’’. परिवार और उसके पूरे माया जाल में उलझी महिलाओं के जीवन का यह पहला बडा भवनात्मक और मानसिक आघात होता है जिससे वह गुजरती है. पर सवाल है आवेग क्यों खत्म हुआ? किसकी तरफ से खत्म हुआ? खत्म होने क कारन क्या है ? इसके बाद की कविता इन सभी प्रशनो का अपने तरह से जवाब भी है. आप देखें कितने विल्क़्शण रूप से कविता की अगली पंक़्तियां तुम और तुम्हारे पर आकर टिक जाती है और कहतीं हैं _
तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा
तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप


अब सोचने वाली बात है के आचानक हमारे आवेग की बात करते -करते ये ‘’हमारा’’ सिर्फ ‘’तुम्हारा’’ पर क्यो सिमट् गया? क्या इसलिये कि अब वह आवेग नहीं बचा? या इसलिये कि आवेग के खत्म होते ही पति पत्नि के बीच के सम्बन्ध हम से उतरकर तुम पर आके टिक जाते हैं और पति प्रेम की अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त कहीं और प्रेम तलाशते हुए बस उसके प्रेम की बात कर उसे उलझाता है?
इमानदरी से कहूँ तो पति का यह कहना कि ‘’तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा............ बरसता है.............. और खिली धूप सा’’ पत्नी को लगायी जा रही एक तरह की मस्केबाजी लगती है. शायद उपर की तीन पंतियान कहने के एवज़ में यह एक तरह की भरपायी हो ताकि समजिक और आपसी तौर पर वैवाहिक जीवन की सामाजिक गरिमा और अर्थ बना रहे और साथ में स्त्री के सामने प्रेम के भ्रम की स्थिति भी बनी रहे. क्योंकि अक्सर स्त्रियां शब्दों के इस मायाजाल को तब तक नहीं सम्झ पातीं या समझ्ना नहीं चहतीं जब तक तलवार सर पर ना लटक जाये. बहरहाल गम्भीरता से कहूँ तो यह स्त्री जीवन की सबसे बडी जटिलता है जहां पारस्परिक सम्बन्ध से एक पयदान नीचे उतर कर एक पति अपने भाव न केवल जीता है बल्कि उस अनुभूति से गुजरते हुए पत्नि पर यह प्रभाव छोड्ने की कोशिश करता हैं कि उसके समग्र् विचरों में सिर्फ ‘वह’ ही अवस्थित है ‘उसका’ ही नाम और प्रेम बचा है इसलिये कहता है ‘’तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा, बरसता है और कमाल, खिली धूप सा’’ देखा जाये तो. यह एक पुरुष की स्वीकारोक्ति से अधिक अनुभूति की स्थिति हो सकती है किंतु ध्यान देने वाली बात है कि अब दोनों के आपसी प्रेम में सिर्फ औरत है पुरुष ने इससे अपने को अलग कर लिया है और तुम्हारे पर आकर ठहर गया है. इस सच को इस कविता की अगली पंक्तियां विस्तार देती हैं और कहती हैं -

तुम्हारा घर
प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारिओं से बना है
कभी आंटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तहान का रिपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो

‘’तुम्हारा घर’’, ‘’दुनियावी जिम्मेदारी’’ ‘’कनस्तर’’ और ‘’बिटिया'' रेपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो क़ा प्रयोग निश्चय ही बहुत चकित कर देने वाला है. यह इसलिये क्योकि जो घर हमरा होना चहिये था वह अब ‘’तुम्हारा’’ हो गया. यह स्थिति न केवल दुखद है बल्कि एक औरत के लिये जहां अकेले की जिम्मेदारियों को वहन करते हुए बोझ सा भी है. साथ ही उसकी अनकही पीडा भी है. महिलओं के लिये बहुत कठिन ये भी है के हमेशा ही उन्हें ग्रिहस्ती की जिम्मेदारियों के नाम पर सारे बोझ को ढोने की शिक्षा और सलाह के साथ चुप करा दिया जाता है. यही वज़ह है कि वह इसी में खुशी तलाशने को कई बार विवश भी होती रही हैं और महिलयें आज भी होती हैं. क्या वास्तव में घर की ऐसी शक्ल सही है ? क्या स्त्री पर ये जिम्मेदरियां इसलिये हैं कि वो परिवार में आर्थिक सहयोग नहीं करती? ऐसे बहुत से सवाल हैं जो आज भी भी ज्यों के त्यों खडे हैं और् जवाब में या तो एक बडी चुप्पी है या फिर परम्परा और औरत की जिम्मेदारी का कुछ परम्परागत पहाडा. और ऐसे जवाब सच कहा जाये तो संतुष्ट् तो कतई नहीं करते. इस कविता की सबसे महत्वपूर्ण पंक्तियां जो एक सम्बन्ध की अगली स्थिति को विस्तार देते हुए पति की स्वीकरोक्ति और औरत के चरित्र को भी परिभाषित करते हुए बहुत कुछ कहती हैं.



बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज
तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम
हो सकता है लोग या बहुत से पाठ्क इसे स्त्री की महनता के रूप में देखें कि वह बहुत कुछ देखते हुए नहीं देखती किंतु वास्तव में यदि देखा जाये तो यह स्थिति सोचने वाला विषय है कि अखिर बहुत कुछ देखते हुए वह क्यों नही देखती वह्? क्या उसमें लडने का साह्स नहीं? य फिर वह डरती है ? डरती है तो किससे? पति के हिंसक हो जाने से ? या समाज में उपहास से? या फिर आपसी सम्बन्धों के विकट हो ज़ाने की कल्पना से? यदि गम्भीरता से देखा जाये तो यह स्त्री की एक दयनीय स्थिति की तरफ इशारा करता है. उसकी यह दयनियता हर स्तर पर दिखती है. चाहे वो सामाजिक स्तर पर हो, व्यक्तिगत् स्तर पर हो या फिर किसी भी मोर्चे पर किंतु सबसे बडी दयनीयता आर्थिक स्तर की है. इसीलिये स्त्री चुप रहती है और नही देखती य कहें नही देखना चाहती.
पुरुष अपने व्यव्हार और उसके सच को जानता है और यह भी जानता है के उसके अनदेखा करने और सम्बन्धों की थाती सहेज के रखने से ही यह सब जो दिख रहा है सब सहज़ है. बहुत रूक कर सोचने वाला वक्तव्य जो इस कविता का है वो है कि ‘’ तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम’’. आखिर ऐसा क्यों है कि ‘उसका’ इन्हें प्रेम करने के लायक बनाता है? क्या यह प्रेम करने की विवशता है ? या फिर यह अपनी गलती के अह्सास की स्वीकरोक्ति? वैसे ये कुछ भी हो गलती की स्वीकरोक्ति जैसा नही है क्योंकि अगर ऐसा होता तो यह कतई नही होता कि -
कई बार तुम हो जाती हो अदृश्य जब
भटकता हूँ किसी और स्त्री की कामना में
हिस्र पशुओं से भरे वन में

लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती ही वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ
तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा
मुझे लगता है अब उपरोक्त पंक्तियों को परिभषित करने की अव्यशकता नहीं है. ना ही कुछ कहने की बस इतना कि कुलमिलाकर कहा जाये तो समय के साथ हम 21वीं सदी में जरूर पहुंच गये हैं किंतु समाजिक और अर्थिक रूप से स्त्री के जीवन में, स्त्री पुरुश सम्बन्धों और उसके दयित्वों में बहुत परिवर्तन नही आया है. पुरुष परिवार में घुसकर जीने की जगह दूर खडा हो अपनी विशेष् स्थिति में जीने का आदी है जिससे निकलना या तो वो चहता नहीं या फिर ना निकल पाऊँ इसकी परिस्थितियां उत्त्पन्न करता रहता है तकि स्त्री डर कर वहीं रहे जहां उसके पैरों में हज़ार जंजीरें बन्धी रहे. और वह धर्मपत्नी बनी रहे.

यह कविता पूरे तौर पर 21वीं सदी में भरतीय समाज , उसमें औरत और उसकी स्थिति को चित्रित करती है साथ ही यह व्यपक रूप से एक परिवार, उसमें स्त्री की स्थिति , पुरुष् की परिवार के प्रति सोच, उसका चरित्र सब कुछ परिभाषित करने में सफल रही है यही वज़ह है कि यह कविता जब भी 21वीं सदी के पति के चरित्र को परिभाषित किया जयेगा लोगोन द्वारा जरूर पढी जयेगी.

.................................. डा. अलका सिहं

Thursday, November 10, 2011

वो रथी हो गए हैं

१.
देखिये
चारो दिशाओं में वो रथी हो गए हैं
आजकल
और हम विरथी
कैसी विडम्बना है ना
हमारे ही दिए रथ पे सवार वो
राजसूय यज्ञ के लिए निकल पड़े हैं
और
हम
घँसे जा रहे हैं
दो गज ज़मीन में
कोई खाली पेट , कोई पिचके गाल और कोई
नंग - धडंग
बिना पनही के भाग रहे हैं सब
दाल - भात रोटी के लिए
इधर - उधर
और महरूम होते जा रहे हैं
अपनी हिस्सेदारी से

२.
लगभग एक दशक हो गया
जब कुछ अपने ही
झोंक दिए गए थे
अपनी ही जमीन पर
गाजे - बाजे के साथ
सबक सिखाने के लिए
और आज पूरा क़ा पूरा दशक बीत गया
टक - टक
बूटों के साए तले चीखते-चिल्लाते
कुछ परिजन आज भी
दर -दर गुहार कर
छान रहे हैं ख़ाक
न्याय की देहरी पर
एक फैसले के लिए
कुछ सजे धजे रथों के साथ
यात्रा शुरू है वहां
३.
यात्रा यहाँ भी शुरू है
गरीब रेखा के नीचे
गुज़र - बसर करने वाले
एक गरीब प्रदेश में
लकदक करोड़ों की यात्रा
टूटी -फूटी खटिया पर
बिन बिस्तर के बैठी उस बुधिया से बतियाते
औचक है उनकी यात्रा
लाव लश्कर के साथ
मरते हुए बच्चों, पिचके गलों
और धंसी हुई आँखों वाले लोंगों के बीच
वो यात्रा कर रहे हैं
यह जानने के लिए कि
कैसी है जनता ?
४.
एक यात्रा क़ा
अभी ब्लू प्रिंट बन रहा है
एक दलित की बेटी की यात्रा क़ा ब्लू प्रिंट
जिसके रस्ते बुहार दिए जाते हैं
हर रोज
उसके गुजरने के पहले
और धो दी जाती है सड़कें
गैलनो पानी से
ताकि मेहनत कशों और गरीबों की
बेवाइयों से निकालने वाली आह को
साफ़ किया जा सके
और टहल सकें कुछ लोग
उन साफ़ सुथरी सडकों पर
गरीबी मिटाने क़ा नारा ले
अभी बाकी है उनकी
यात्रा


५.
कुछ यात्रायें
अभी आरम्भ नहीं हुई हैं
कयास लग रहे हैं कि
होगी जल्द ही
एक राजकुमार की यात्रा
शायद राजतिलक के बाद
और एक राजमाता की भी
तब सब देखेंगे
कौन है पुरसाहाल और कौन मालामाल
और तब कर पाएंगे हम
यात्राओं क़ा सही गुना - भाग

.


६.
चारो तरफ सज़ गए है रथ
झूठ के वादे और कुछ नए सौदे के साथ
कितनी हसीन है ना ये यात्रायें
और इतनी महीन भी
................................................अलका

विमलेश त्रिपाठी की कविताओं से गुजरते हुए

'विमलेश त्रिपाठी' जिन्हें मैं एक कवि के रूप में ही जानती थी कल ठीक से उनकी प्रोफाइल देख रही थी तो जैसे अचानक DEPARTMENT OF ATOMIC ENERGY पर नज़र ठहर गयी. कविता और Atomic Energy? जैसे दो विपरीत दिशाओं के गुण और योग्यताएं. यह तो जैसे दो विधाएं हैं बिलकुल विपरीत. ऐसा आमतौर पर माना जाता रहा है देश के सबसे पुराने कालेजों मे से एक प्रेसीडेंसी कालेज के छात्र रहे विमलेश ये दो विपरीत मानी जाने वाली योग्यता साथ लेकर चलते हैं. सोचती हूँ ये कैसे होता होगा कि अपने आफिस में काम करते हुए मन से कविता करता हो और वो भी भावों में उतर कर इतनी गहरी और गंभीर कवितायेँ ? आश्चर्य होता ही है और मुझे भी हुआ

यहाँ मैं पहले ही साफ कर दूं कि इस आलेख में मैं विमलेश की कविताओं पर बारीक साहित्यिक टिपण्णी से अधिक एक समाजविज्ञानी के रूप में कविताओं से गुजर रही हूँ. हांलांकि अगर गंभीरता से देखा जाये तो दोनों तरह से कविता की विवेचना में बड़ा फर्क नहीं है किन्तु फ़िर भी समाजविज्ञान की दृष्टी का अपना भी एक रूख है और मैं यहाँ उस रूप से ही साक्षात् कर पा रही हूँ. विमलेश की पहली रचना जिसने मुझे इस बात के लिये मज्बूर किया कि मैं उसपर कुछ लिखूं वो थी '' मै सुबह तक जिन्दा था'' इस रचना ने मुझे ये समझ दी की एक समाज से जुडी कवितओं का महत्व कितना व्यापक है और एक कवि तब कितना सार्थक हो जाता है जब वो समाज और उसके साथ रू - ब- रू होता है.

विमलेश की रचना देखें -

''सुबह मैं जिन्दा था
इस सोच के साथ कि एक कविता लिखूंगा

दोपहर एक भरे पूरे घर में
मैं अकेला था और जिंदा
कुछ परेशान-हैरान शब्दों के साथ

मुझे याद है मेरे घर के पड़ोस में
जो एक छोटी बच्ची है
जिसके दूध का बोतल खाली था
वह ऐसे रो रही थी
जैसे अक्सर इस गरीब देश का कोई भी बच्चा रोता है
उसकी मां ने पहले उसे चुप कराया
फिर उसे पीटने लगी
और फिर उसके साथ खूब-खूब रोई
जैसे अक्सर इस गरीब देश की मां रोती है''

विमलेश को मैं इक अरसे से पढ़ रही हूँ और उनकी कविताओं से गुजरते हुए लगता है जैसे आप भावों के एक अर्थपूर्ण गहरे समन्दर से गुजर रहे हैं जो जितना ही शांत है उसके भीतर एक उतनी ही बड़ी हलचल है जिसकी तहों तक जाने की जरूरत समन्दर में जाने के बाद ही महसूस होती है और इसलिए मैं पूरे विश्वास के साथ कहती हूँ के विमलेश भाव के कवि हैं जो दिल की कलम से लिखते हैं. किन्तु भाव के साथ ही विमलेश की एक और विशेषता उनकी कविताओं में साथ साथ दिखती है वो है उनकी चेतना जो बराबर उनकी रचना धर्मिता को धार देती रहती है. इसीलिए जब विमलेश कहते हैं कि -

मुझे याद है मेरे घर के पड़ोस में
जो एक छोटी बच्ची है
जिसके दूध का बोतल खाली था
वह ऐसे रो रही थी
जैसे अक्सर इस गरीब देश का कोई भी बच्चा रोता है

तो महसूस होता है कि वो एक जागते हुए कवि हैं जो अपने आसपास के परिवेश से बेचैन होते हैं, उनको शब्द देते हैं और सबसे बड़ी बात कि वो उसे लोंगों के सामने उसी पीड़ा और परिवेश के साथ लाने की कोशिश करते हैं जैसाकि वो देखते हैं. यह कविता इसी कड़ी की कविता है. यह छद्म से परे एक इमानदार कोशिश है जो इस देश के कवि की आवश्यकता भी है और दायित्व भी. यह वास्तव में एक तरह क़ा ऐसा साहित्य है जो आपके काल खंड को आनेवाली पीढ़ियों के सामने उसके सामाजिक आर्थिक परिवेश को भी रखता है. इसीलिए इस समय में कविता लिखते हुए जो संवेदना होनी चाहिए वो विमलेश की इस कविता में बखूबी मिलती भी है. यहाँ बरबस धूमिल की इक पंक्ति याद आ गयी. धूमिल कहते हैं के
"एक सही कविता
पहले
एक सार्थक वक्तव्य होती है।"
निश्चय ही 'मैं सुबह तक जिन्दा था' यह कहकर विमलेश इस कविता को सार्थक वक्तव्य बनाते हैं और जब यह कहते हैं कि

एक आम आदमी होने के नाते जो बचे-खुचे शब्द थे
मेरी स्मृतियों में
इतिहास की अंधी गली से जान बचाकर भाग निकले
उनके सहारे
फिर मैंने इस देश के सरकार के नाम
एक लंबा पत्र लिखा
उस पत्र में आंसू थे क्रोध था गालियां थीं
और सबसे अधिक जो था वह डर था

तब वो अपनी इस कविता में अपनी चेतना की उपरोक्त कड़ी को जोड़ते हैं तब वो धूमिल के एक और वक्तव्य को सार्थक करते हैं कि ''कविता भाष़ा में आदमी होने की तमीज है। '' कोइ भी पाठक विमलेश की इस कविता से उनकी भाषा और आदमी होने की तमीज़ पर प्रश्नचिंह नहीं लगा सकता.

विमलेश की एक खासियत और भी है जब वो कविताओं के लिए शब्दों के जाल बनाते हैं तो कभी कभी वो विशुद्ध देशज शब्दों को जैसे जीवित कर देते हैं उसके पूरे बिम्ब के साथ. उनकी इस काबिलियत के लिए आप उनकी ये रचना देख सकते हैं -

माटी की दियरी में रूई की बाती से
हर ताखे चौखट घर आंगन में
जब जगमग होती रोशनी

एक दिया जलती हम सब की आंखों में
एक दिया हृदय में
मन के गहन अंधेरे में भी एक दिया

एक दिया गाय के खूंटे पर
एक दिया चरनी के उपर
एक दिया चौबारे पर तुलसी के नीचे


मैंने इस कविता में प्रयोग किये गए कुछ शब्द अपने बचपन में अपने ननिहाल में सुने थे. इस कविता को पढ़ जैसे अपनी पूरी संस्कृति से गुजर रही हूँ. शायद हर वो पाठक इस मनःस्थिति से गुजरेगा जो इन शब्दों से जुड़ा होगा. माटी की दियरी, चरनी. ताखा ये सभी शब्द कम से कम शहर से तो लुप्त हो गए हैं और गाँव में भी बचे नहीं रहेंगे ये आने वाली संस्कृति कह रही है . तो उस दौर में ये कविता आनेवाली पीढ़ियों को ये बताएगी के चरनी क्या होती थी? और तब बच्चा पूछेगा क्यों होती थी ? और फ़िर सवाल करेगा कि अब ख़तम क्यों हो गयी ? इतना ही नहीं यह कविता हमारे पुराने घरों की बनावट रहनसहन को भी सामने लाने क़ा प्रयास करती है. यानि कह सकते हैं कि इक पूरा दृश्य सबके सामने रखती है और उसके महत्व को भी भी बताती है. बच्चा जान पायेगा ताखा , चरनी के माध्यम से पूरा ग्रामीण परिवेश और साथ ही वो अपने प्रश्नों के सहारे अपनी पूरी संस्कृति से गुजरेगा और एक दृश्य बनाएगा मन में. विमलेश कवि के इस दायित्व को जाने अनजाने निभा ही रहे हैं यह कविता और इस तरह की कविता की आनेवाले वक्त में शिद्दत से जरूरत होगी.

विमलेश शुद्ध कविता और उसके शिल्प और उसके गहरे भाव के लिहाज़ से भी बहुत ही परिपक्व कवितायेँ लाते हैं हमारे सामने उदहारण के लिए ये रचना देखें :

लिखता नहीं कुछ
कहता नहीं कुछ

तुम यदि एक सरल रेखा
तो ठीक उसके नीचे खींच देता
एक छोटी सरल रेखा

फिलहाल इसी तरह परिभाषित करता
तुमसे अपना संबंध

यह एक बहुत ही गहरे भाव से लिखी गयी एक परिपक्व रचना है. जो कवि के व्यक्तित्व से भी परिचय करती है और संबंधों को लेकर उसके नज़रिए को भी. और अब बात शब्दों के महीन धागे की जिसके साथ विमलेश महाकाव्य लिखेंगे -

शब्दों के महीन धागे हैं
हमारे संबंध

कई-कई शब्दों के रेशे-से गुंथे
साबुत खड़े हम
एक शब्द के ही भीतर

एक शब्द हूं मैं
एक शब्द हो तुम

और इस तरह साथ मिलकर
एक भाषा हैं हम

एक ऐसी भाषा
जिसमें एक दिन हमें
एक महाकाव्य लिखना है....

मैं यहाँ इस कविता की आलोचना से इतर विमलेश की इस कल्पना के विषय में सोच रही हूँ के '' एक महाकाव्य लिखना है '' कैसा होगा वो महाकाव्य ? शब्दों के महीन धागे वाले इस महाकाव्य में कैसे परिभाषित किया जायेगा संबंधों को ? जब वो कहते हैं के ''एक शब्द हो तुम और एक मैं और साथ मिलकर एक भाषा है '' तो विमलेश की इस भाषा क़ा विकास कैसा और किन - किन पड़ावों को छुएगा और छूते हुए गुजरेगा ? यह महाकाव्य भाषा के विकास के मायने कैसे तय करेगा ? उस तुम को किस तरह से परिभाषित करेगा? आने वाले दिनों में वो जिस महाकाव्य से हमारा परिचय कराएँगे उसमें समाज कैसा होगा ? किन किन कोनो से ले आजेंगे शब्दों के पुंज इस महीन रेशे से गुथे इस महाकाव्य को पूरा करने के लिए. यह कविता निश्चय ही एक बड़ा अर्थ लिए हुए है और उम्मीद भी. दरअसल ये विमलेश के लिए एक चुनौती है आनेवाले दिनों के लेखन के लिए और हम सबको इंतज़ार रहेगा के वो अपने लिए खुद खडी की गयी इस चुनौती से कैसे दो चार होते हैं.

वैसे सच कहा जाये तो मुझ जैसे पाठक के लिए बहुत रोचक होता है इक ऐसे कवि और उसकी रचनाओं से गुजरना जो शब्दों उसके भाव और समाज से जुड़े अपने सरोकारों को कविता के माध्यम से सार्थक करता है. उसकी कविता और उसके भाव सिर्फ सवागत भाव ना होकर वो उससे ऊपर उठ सामाजिक सरोकारों से भी पाठक को जोड़ती है. विमलेश की हर कविता में कहीं ना कहीं समाज से इक जुडाव साफ़ साफ़ दिखता है चाहे वो शब्दों के माध्यम से हो या सीधे हो. इसीलिए मेरे जैसे पाठक के लिए विमलेश की रचनाओं से गुजरना बहुत सुखद होता है क्योंकि वो बहुत से नए बिम्ब और ताजापन देते हैं अपनी कविताओं में - और अपने सामाजिक सरोकारों को स्वीकार करते हुए लिखते हैं लिखते हैं -
''महज़ लिखनी नहीं होती कविताये ''


.................................डॉ. अलका सिंह

Wednesday, November 9, 2011

पिता, पुत्री के बीच इक रिश्ता है

पिता और पुत्री का सम्बन्ध
वक्त की रेत पर
भावनाओं में उलझी
इक टेढ़ी मेढ़ी किताब है
इक जटिल अनुबंध
जिसपर अबोध दस्तखत के साथ
पढ़ते - पढ़ते
जवान हो जाती हैं बेटियां
और तब भी रह जाता है कुछ
अनसुलझे सवाल की तरह

यह सम्बन्ध जैसे इक बहता हुआ झरना है
जो तब्दील होता जाता है इक
बड़ी सी नदी में
और जीते जी इसे पार करने का साहस
पैदा करना होता है
बेटियों को अकेले ही
अपने आत्म विशवास के रथ पर चढ़ कर
पर अक्सर भावनाएं इस पर चढ़
लगाम कसती हैं

पिता के साथ बेटियों का सम्बन्ध
जैसे इक गाथा है
किश्तों में लिखी इक किताब
जिसके कई पन्ने पूरे तो
कई आधे -अधूरे
बेटियां इस किताब के पन्नों को
पढ़ती और स्तब्ध होती रहती हैं
उम्रभर


कई बार यह सम्बन्ध
आकाश में चमकते झिलमिल तारों सा
लगता है
जिसे निहारते - समझते
आँखों में उतर गए आंसुओं के साथ
बेटियां बांधती और सहेजती रहती हैं
वक्त के कुछ पन्ने


इक अर्थहीन और लाचार सम्बन्ध भी है
पिता और पुत्री का
जो लाचार सा चलता है उम्रभर
कभी चट्टान सा पिता
मोम की तरह पिघलता रहता है
जैसे बेटियां कारण हों लाचारगी का
जैसे पीड़ा हों उम्रभर की
जैसे
मरते हुए सम्बन्ध का मरता हुआ
पन्ना हों


सच कहूँ तो
बदलते वक्त के बदलते पिताओं में
अब भी बचे हैं
शेष के अंश
उसे वो अब भी सहेज रहा है
और
बेटियां अब भी पढ़ रही हैं
इक टेढ़ी किताब
सीधा समझ समझ

.......................................अलका

Tuesday, November 8, 2011

'औरतें '

दूसरे के घरों में
बर्तन माजते , कपडे धोते, झाडू लगाते, पोंछा करते
ऐसे बहुत से चरित्र हैं
जिसे जीती हैं छोटी जात की औरतें
और वो
जो दिखती है गहनों से लदी
बिना पैसे के उम्र भर
लगाती है दिन रात पोंछा , झाड़ू
धोती है कपडे
ये तो सब की सब हैं
छोटी जाती की
'औरतें '

Monday, November 7, 2011

छोटी जाति की औरतें

१.
औरतें
बटी हैं इस देश में
जातियों में, वर्गों में, छूत - अछूत में
और बहुत सी अलग -अलग पहचानो में
कब हुआ ये बटवारा और क्यों
पता नहीं
पर पहली बार
डंके की चोट पर प्रगति कर रहे
इस प्रदेश में
जातियों में बाटी गयी औरतों के लिए
सुने कुछ संबोधन
खचाखच भरी एक दुकांन पर
जब दूकानदार ने -
'छोट जातिया हई सब
हटाव इहाँ से 'कह
उनकी आर्थिक गरीबी का मज़ाक बनाते हुए
फिकरा कसा -
'पैसा ना कौड़ी
बीच बाज़ार में दौरा -दौरी '
बौखला जाने वाले इस वक्तव्य पर भी
संकोच में वो चार
चुप चुप कोने में खडी सुनती रहीं
अपना उपहास.

२.
उसे सूप चाहिए था छठ के लिए
इच्छा थी उसकी
के इस बार सूर्य देव को
पीतल के कलसुप में अरग दिया जाये
अपनी अंती के सारे पैसे जोर बटोर के
पहुँच गयी थी
बर्तन की दुकान पर
दो ले लूंगी सोचा था उसने
बहुत लालच से उसने सूपों को देखा और उठा लिए दो
लेने के लिए
दूकानदार कनखियों से कभी उसे देखता
कभी उसके हाथ के सूपों को
चार सौ में दो मिल जायेंगे
यही सोच उठाये थे दो
पर
एक ही मिलेगा यह जान मन मसोस लिया उसने
और दुकानदार ने छीन लिया
यह कह के -
जेतना औकात हो ओतने सामान लेना चाहिए
हाथ से सूप
३.
उनके घर में,
दीवाली की रात बरामदे के
कोने में बैठी वो औरत
इंतज़ार में थी के आज मिलेगा
अच्छा खाना और कुछ अच्छे पकवान
इंतज़ार करते करते
वक्त बीतता रहा
और वो बैठी रही
सबसे अंत में
उसकी थाली में थी
सुबह की सेंकी गयी कुछ पूड़ियाँ
अंचार और कुछ पेडे
................................alka

Sunday, November 6, 2011

छोटू सपने देखता है

छोटू हर दिन सपने देखता है
ढेरों .....
सोते - जागते, उठते - बैठते
उसकी आँखें भरी होती हैं अनगिनत सपनो
और उन्हें सच करने की मंशा से
पर
पेट की आग और मजबूरियां उसे ला खड़ा करती हैं
ढाबे की चौखट पर
कमा लाने के लिए चंद सिक्के
जहाँ छोटे छोटे उसके हाँथ दिनभर खेलते रहते है
प्लेट प्लेट और उंगली पकडाई
से सवाल
पर फिर भी वो सपने देखता है
हर रोज
सुनहरे सुनहरे




एक सपना बड़ा खींचता है उसे
वो दौड़ता रहता है उसके पीछे
नीद में पूरी रात
के एक स्कूल उसका भी है
बड़ा सा मालिक के बच्चे वाले सा
वो स्कूल जाता है
सुबह सुबह
सुन्दर साफ़ सुथरी ड्रेस पहन
एक डक वाली बोतल और
सुन्दर से टिफिन बॉक्स और बड़ा सा बस्ता ले
काले- काले जूते , सफ़ेद मोज़े
अहा !
वो चहकता है यह देख के
उसे छोड़ने
रोज आती है मां
बस तक
और वो बाय कह
हर रोज वैन में चढ़ जाता है
और छन्न न न
टूट जाती है इक प्लेट
जमीन पर गिर
मालिक तो जैसे सनक जाता है
उसका कान हाथ में ले पूछ बैठता है
साले आज फिर टूट गयी ?
रोज तोड़ता है एक प्लेट ?
कौन भरेगा पैसे ? तेरा बाप?
बस
उसकी आँखों में इक दुःख भी तैर जाता है
वैसे ही जैसे वो
सपना देखता है
सोते - जागते, उठते- बैठते

३.
ऐसी डांट के बाद
अक्सर
जब भी कोइ पूछता है
स्कूल क्यों नहीं जाता रे ?
जबाब में
सर झुका देता है धीरे से
और पलट कर पूछता है
क्या चहिये साब ?
चाय -समोसा , वाटता बड़ा , डोसा, इडली - संभार
और ............
इसी तरह इक बड़ी सी लिस्ट ले
हर दिन विनम्र हो
सबके सामने खड़ा रहता
अपने सपनो की देह पर
ऑर्डर मिलते ही पलट कर
हिरन हो जाता है वो
कभी सर झुकाए और कभी
होले से मुस्कुरा

४.
आज किसी ने टिप दी है उसे
५ रुपये की
और वो विफर रहा है
जार - जार
साहब कम से कम आप तो मत दीजिए
भीख
रोज सोचता हूँ
आपसे कहूँगा अपना वो सपना
और पूछूँगा के कैसे सच होगा
वो
अगर टिप देनी ही है तो
रास्ता दीजिए मुझे
मेरे सपनो पर चलने का
एक स्कूल चाहिए मुझे
एक बस्ता
और कुछ किताबें भी
पानी की बोतल और टिफिन ना भी हो
तो चलेगा

................................................ अलका

Saturday, November 5, 2011

'पेट्रोल' के दाम बढ़ गए हैं

गुनगुनी धूप में सड़क के किनारे
रोज जलते हैं कुछ चूल्हे
उन सिरकियों के पास जो उन मेहनत कशों की है
जो बनाते हैं ताज, संसद बहुमंजिली ईमारत और हजारों कोठियां
पर अपने लिए इक घर नहीं बना पाते
और बिखरे रहते हैं बड़े शहर की चकाचौंध में
इधर - उधर
आज सुबह सुबह इन्हीं सिरकियों के बसेरे में
एक चूल्हा इंतज़ार में था
उन चूड़ियों वाले उस हाथ का जो सारी ममता ले
जोरेगी इक आंच परिवार के लिए और सेंकेगी कुछ
रोटियां सोंधी सोंधी
पर
आज सुबह सुबह ही वो
सर पर हाथ रख सुन रही थी
समाचार
कल रात थकी मांदी सो गयी थी जल्दी
काम पर जाना है कह
क्या हो गया है इसे
चूल्हा सोच में था
और मालकिन सोच में थी के
क्या बोल रहे हैं देश के प्रधान और क्या होता है
डीरेगुलेशन


'पेट्रोल'
क्या करूँ इसका
हर रोज उछल जाता है और मेरा घर
कहीं रुक कर गिनने लगता है
हाथ में आने वाली महीने की रकम
और उनके चेहरे पर उभर आतीं हैं कई लकीरें
आड़ी - टेढ़ी
उनके चेहरे का भूगोल बिगड़ जाता है
और मेरे लिए खुल जाती है फिर से
अर्थशास्त्र की किताब जिसे
हर बार पेट्रोल की बढ़ी कीमत के साथ
समझती हूँ घंटों
इस साल ११ बार उछल चुका है और मैं हर बार
समझने लगती हूँ इतिहास , भूगोल और अर्थशास्त्र
मैं तो गृहविज्ञान की छात्र थी
क्या जानू अर्थ शास्त्र
पर इस साल सचमुच समझ गयी हूँ
पूरा का पूरा अर्थशास्त्र
देश के प्रधान का
डीरेगुलेशन फंडा भी

३.
सदियों गाँव मस्त थे
अपनी दुनिया में सारे तीन तिकड़म से
अनजान
सुबह की पहली किरण के साथ उठ हर रोज
गढ़ते थे अपनी किस्मत
आज उनके माथे पर भी बल हैं
होठों पर हजारों गलियां
कभी अपने पर, कभी अपनी बेबसी पर
और कभी अपनी ही चुनी सरकार पर
फिर बढ़ गए पेट्रोल के दाम
जैसे हवा हो गयी थी खबर
चर्चा गरम थी चौपाल में
के
अब डीज़ल के भी दाम बढ़ेंगे
ऐसा देश के प्रधान कह रहे थे
सब समझने को आतुर थे
डीरेगुलेशन का मर्म
और सारी की सारी औरतें हैं यहाँ
बेखबर

४.
देश के सन्नाटे को चीरती
एक गाडी अभी अभी गुज़री है
बेधड़क, बेख़ौफ़ और बिना चिंता
कुछ गुलाबी लाल चेहरों के साथ
जैसे सारी मलाई इनके खाते में हो
जैसे पेट्रोल इनके कब्जे में हो
डीज़ल बांदी हो
महंगाई इनके चरण में बैठ भजन गाती हो
जैसे सारा रिमोट वो लिए बैठे हैं
तभी तो
वो कहते हैं तो वो बोलते हैं
वो लिखते हैं तो वो गाते हैं
वो देते हैं तो वो पढ़ाते हैं
डीरेगुलेशन के मायने
देश को, जहाँ को
और कोने में पडी वो बुढिया
गरियाती है
ये मुआ क्या समझा रहा है
अलिफ़ बे पे ?

................................................अलका

Friday, November 4, 2011

असुविधा: कविता समय सम्मान- २०१२ से सम्मानित कवि इब्बार रब्बी की एक पुरानी कविता

वाह!!! हँस दीजिए अपने आप पर यदि आप कवि हैं तो पर बात बहुत गंभीर है और सोचने वाली क्योंकि हम बहुत अच्छी तरह बस जड़ना जानते हैं जबकि जरूरत इससे ज्यादा की है . वाह !!!

असुविधा: कविता समय सम्मान- २०१२ से सम्मानित कवि इब्बार रब्बी की एक पुरानी कविता

वाह!!! हँस दीजिए अपने आप पर यदि आप कवि हैं तो पर बात बहुत गंभीर है और सोचने वाली क्योंकि हम बहुत अच्छी तरह बस जड़ना जानते हैं जबकि जरूरत इससे ज्यादा की है . वाह !!!

वह जैबुनिस्सा है,

१.
वह जैबुनिस्सा है,
जैसे देश से अलग
देश के संविधान से अलग
और देश में रह रही स्त्रियों की जात से भी अलग थलग
क्योंकि वह जैबुनिस्सा है
लगता है वह
धर्म जीती है, कौम जीती है और अल्लाह जीती है
पर राष्ट्र नहीं जीती
वह जैबुनिस्सा है
घर जीती है , मर्यादा जीती है, शौहर जीती है और बच्चे भी
पर इस देश में कानून नहीं जीती
वह जैबुनिस्सा है
२.
कल जब निकल पडी थी कुछ और चुन के लाने
अपनी कलम के लिए
अचानक कुछ खटक गए क्षणों ने रोक लिया
उसके पास
दुप्पटे को जिस्म पर लपेट लपेट
उसकी आवाज़ अकेले पड़ गयी थी
कुछ नाशुक्रों से लड़ते लड़ते
के तभी दूसरे नाशुक्रों की टोली
खड़ी हो गयी उसे बचाने के नाम पर
मैं ठिठक गयी उसके हाथ को पकड़
दो किनार्रों की कट्टर दो टोलियाँ
उनका द्वन्द युद्ध
देखने लगे हम हाथ पकड़
अगर कभी देखा इधर
हमारी औरतों पर आंख उठाते आसान नहीं होगा आना
जैसे धमकी थी एक की दूसरे के लिए और
दूसरी भी उबल पडी धौकनी की तरह
और बोल गए संभाल के रखो उसे
कमीनी साल्ली निकल पड़ती है
जब - तब, इधर - उधर
बस तय हो गयी जैबुनिस्सा की रेखा

३.
ऐसा नहीं है के वो खूब सुरक्षित है
उन सबकी साये तले जो बचाने आये हैं उसे
वो वहां भी वैसे ही तोली जाती है जैसा आज उन नाशुक्रों ने तोला था उसे
वहां भी छुई जाती है उसकी देह
लालच् से भर
वहां भी नज़रें उसपर गिरती हैं घिनौनी ही
वहां भी लोंगों की आँखों मे नाखून ही नाखून हैं
वहां भी होते है खिलवाड़ उसकी अस्मिता से
वह सुरक्षित नहीं है
ना इस पार ना उस पार
जानती है वो
पर फिर भी वह मजबूर है रहने के लिए
उस पार
क्योंकि वह जैबुनिस्सा है

4.
मौलवी की दहलीज़ पर खडी
जैबुनिस्सा
तलाक के कगार पर है
वज़ह नहीं जानती क्यों
गुनाह नहीं जानती क्या
पर तलाक के कगार पर खडी
तीन शब्द गिन रही है
तलाक तलाक तलाक
वह खुद अपनी वकील
एक फरियादी भी
कौन पूछता है उसे
ना देश, ना संविधान ना ही ...........
क्योंकि वह जैबुनिस्सा है,
जैसे देश से अलग
देश के संविधान से अलग
और देश में रह रही स्त्रियों की जात से भी अलग थलग

5
अनपढ़ है जैबुनिस्सा
नहीं जानती कलम
अलिफ़ बे पे ते
नहीं जानती
अ आ इ ई
पर सवाल बहुत करती है
जवाब के लिए
सब चुप है
कौन देता है जवाब
क्योंकि वह जैबुनिस्सा है,
जैसे देश से अलग
देश के संविधान से अलग
और देश में रह रही स्त्रियों की जात से भी अलग थलग

.............................................................अलका

Thursday, November 3, 2011

स्त्री सीखचों मे जीती है

स्त्री सीखचों मे जीती है
बरसों बरस एकांगी
इक मन , कई भाव
रिश्ते , आंसू और सैकड़ों प्रलाप
पर वो दुनिया कभी नहीं जीती
या कहें उसे जीने नहीं दिया जाता
बालात बांध दिया जाता है
इक नक़्शे में जहाँ की धुरि कह
हमेशा उसके अस्तित्व से सोख लिए जाते हैं
उसके सारे तत्त्व और बना दी जाती है वो समिधा
धीरे धीरे वो भूलती जाती है
अपनी गंध, अपने होने का अर्थ और अक्सर अपना नाम
और नाम से बुलाने पर चौंकती है
जैसे वो जानती ही नहीं अपना नाम
पर आज अदालत मे खड़ी वो स्त्री
कुम्भलाये चेहरे के साथ
आधे अधूरे मन से
खोज रही थी सालों पीछे छोड़ आयी
अपना नाम

अपने अस्तित्व की तलाश करती
औरतों के राह मे अदालतें
अक्सर ही रास्ता काट जाती हैं
तो कभी वो ही धकेल दी जाती हैं
अदालतों के दरवाजे
और कभी परिस्थितियां जाल बुन
बुला लाती हैं उनको अपने दरवाजे
पर हर बार वो उतनी ही अनजान होती हैं
इस अदालतों के जाल से
जैसे आज वो अनजान सी
बड़ा सा डर लिए
भटक रही थी इधर - उधर
निरीह सी

क्या जिरह चाबुक होती हैं
जो चलती है अक्सर
औरतों के कपड़ों पर , कभी मन पर और अक्सर
उनके चरित्र पर
जिसे संभालने मे उम्र गुजार देती हैं
मां , वो खुद और पिता भी
आज देखा उसे
हर प्रश्न पर मरते हुए
हकला कर बयान देते
सबकी नज़रों से बच
पल्लू सम्भालते
और आदालत के बाहर
जोर जोर से चिघाड़ते
... .................. अलका

Tuesday, November 1, 2011

यह सुना था

यह सुना था
राजनीति हर तरफ हर बात पर होती है
लोग उसकी चपेट में होते हैं
कतार में खड़े छोटे लोग भी
चमकती बड़ी गाड़ियों में बैठे सबसे बड़े भी
वो भी हिस्सा हैं इक गहरी राजनीती का
जो कहीं नहीं गिने जाते किसी कड़ी में
काटते हैं अपने दिन पोलीथिन की सिरकियों में
या दलदले स्लमों की अँधेरी गलियों में
और सबसे अधिक तो
मझोली गाड़ियों में, स्कूटरों में बैठे
मझोले लोग
आज देखी है इक राजनीति
फल की मंडी में
दुकानों पर भी
सबसे सुन्दर सुडौल फल
बड़ी गाड़ियों के नाम
और सबसे पिलपिले उन बस्तियों के नाम
जिन्हें इक बरस में
आज ही कुछ फल नसीब होते हैं
और बाकी सारे उन मझोली गाड़ियों और स्कूटरों के नाम
और जो कतार में हैं
उनके लिए
........................................................अलका